पं. प्रदीप मिश्रा: तुलसी के गुरुत्व और कौवों की कांव-कांव से डरना जरूरी है…!

  • महेश दीक्षित  
पं. प्रदीप मिश्रा

कथा वाचक पंडित प्रदीप मिश्रा (ढ३. ढ१ंीिीस्र ट्र२ँ१ं सीहोर वाले) के हाल ही के तीन विवादास्पद (प्र) वचनों पर गौर कीजिए-  
एक- मंदसौर में शिव पुराण महाकथा करते हुए कहा कि- मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मैं तो तुलसीदास जी के समान गंवार हूं।    
दो-  मंदसौर में ही प्रवचनों में पं. मिश्रा ने मीडिया को कौवे की संज्ञा दी और कहा कि इन्हें जब तक मांस का टुकड़ा नहीं दो, तब तक  कांव-कांव करते रहते हैं।  
तीन- अशोक नगर में कहा कि वह मंदसौर कथा करने इसलिए जा रहे हैं, ताकि वहां पर देह व्यापार करने वाली बहन- बेटियों को गंदे धंधे से मुक्त करा सकूं।
हालांकि, लोगों ने जैसे ही ऊपर उल्लेखित (प्र) वचनों को लेकर प. मिश्रा को गरियाना शुरू किया, तो पं. मिश्रा ने यह कहते हुए खुद अपने कान पकड़ लिए कि, मेरे (प्र) वचनों के गलत निहितार्थ निकाले गए हैं।  (प्र)वचनों का अर्थवाद किया गया है। मेरे शब्द बुरे हो सकते हैं, पर मन-भाव या आशय गलत नहीं था।  यदि यह मान भी लिया जाए कि इन (प्र) वचनों के पीछे  पं. मिश्रा के मनो-भाव बुरे नहीं थे। पर, लोक प्रसिद्धि के अहंकार में उन्हें मतिभ्रम तो हो गया है। थोथा चना-बाजे घना…ऐसा ज्ञान का अहंकार हो जाने पर होता है। वर्ना ऐसे असंतुलित (प्र) वचन कोई संतुलित चित्त धर्मात्मा (संत) कैसे कह सकता है?  कैसे उन भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी को गंवार कह सकता है? जिनकी श्रीरामचरित मानस आज भारत के बहुसंख्य समाज के घर-घर में श्रद्धा से गाई और सुनाई जाती है। जिसकी चार करोड़ से ज्यादा प्रतियां (गीता प्रेस गोरखपुर के अनुसार)  प्रकाशित होकर घर-घर में ज्ञान-भक्ति का उजास फैला रही हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने तो मानस में 4608 चौपाईयों और 1074 दौहों की रचना की, पं. मिश्रा उन जैसी दो-चार चौपाइयां ही रचकर दिखा देते, तो भी मान लेते कि, तुलसी जैसे भक्त शिरोमणि को गंवार कहने का गुरुत्व उनके पास है। वर्ना तो पं. मिश्रा सिर्फ गुरू घंटाल हैं। उनका पांडित्य और धर्म ज्ञान संदिग्ध है। धर्म प्रचारक का ध्येय यदि धर्म की संस्थापना और मानव मात्र का कल्याण है, तो वह किसी विषम परिस्थिति में भी ऐसे (प्र) वचन नहीं बोलता। लेकिन अंतर्मना में यदि लोक प्रसिद्धि और धन कमाने की लोकेषणा (आसक्ति) है, तो ऐसा होना स्वाभाविक है। शास्त्र और अनुभव साधुजन कहते हैं कि, किसी भी साधक के धर्म पथ में जरासी भी भौतिक लोकेषणा जहर तुल्य है। लोकेषणा उसके लोक-परलोक का विनाश कर देती है। उदाहरण हम देख चुके हैं-आशाराम, राम रहिम, अखाड़ा प्रमुख नरेन्द्र गिरी महाराज जैसे संतों का क्या हश्र हुआ? इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि, धर्म भीरू लोगों के सिर फिलवक्त पं. प्रदीप मिश्रा की शिवपुराण महाकथा का जादू सिर चढकर बोल रहा है। टीवी पर उनकी कथा सुनने के लिए भीड़ टूट रही है। उनके सीहोर आश्रम में रुद्राक्ष पाने मेला-रेला लगा हुआ है। लोग उनके बताए टोने- टोटकों में शारीरिक-मानसिक संतापों से मुक्ति और भौतिक उपलब्धियों की औषधि तलाश रहे हैं। लेकिन यह तो ऐसी बात हुई कि, पंडितजी लोकप्रसिद्धि की लोकेषणा (विषय आसक्ति) में पागल हो रहे हैं, तो शुद्धधर्म से अनभिज्ञ-जन तत्कालिक शुभ-लाभ के लिए टोने-टोटको के सम्मोहन में पगला रहे हैं। न तो लाखों रुपए दक्षिणा लेकर कथा वाचने वाले पं. मिश्रा को गहन साधना-भक्ति से कोई लेना-देना है और न राजसी-तामसिक वृति लोगों की शुद्ध भक्ति में कोई श्रद्धा-आस्था है। यहां साधकों-साधुजनों के साध्य समाधिस्थ भगवान शिव के नाम पर सिर्फ धर्म का गोरखधंधा चल रहा है। शास्त्र और संत कहते हैं कि भगवान शिव में आसक्ति और संसार के विषयों में विरक्ति बिना मानव जीवन में सुख और आनंद  का प्रादुर्भाव (स्फुरण) कैसे भी संभव नहीं है। तुलसी दासजी मानस में लिख गए हैं कि-
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥
अर्थात-कलियुग में झूठे, दम्भी तथाकथित संत तो पूजे जाएंगे और सच्चे साधु-संत गंवार कहाएंगे ।

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