
- मिशन 29 में दिखा भाजपा की सामूहिकता का असर
केंद्रीय संगठन से मिले लक्ष्य को पूरा करने के लिए भाजपा ने जिस सामूहिता के साथ 24&7 काम किया उसी का परिणाम है कि 40 साल बाद(जब मप्र-छग का बंटवारा नहीं हुआ था) मप्र में किसी पार्टी ने लोकसभा की सभी सीटें जीत ली है। भाजपा की इस जीत के शिल्पकार मुख्यमंत्री मोहन यादव, प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संगठन महामंत्री हितानंद, मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा हैं।
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)। मप्र में भाजपा ने पहली बार लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटों पर क्लीन स्वीप किया है। 1980 से 2024 तक हुए 12 चुनावों में यह पहला मौका है, जब प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर भाजपा के सांसद काबिज हुए हैं। इससे पहले 1984 में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया था। वर्ष 2000 से पहले अविभाजित मप्र में लोकसभा की 40 सीटें थीं। इन सभी सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे। अब ठीक 40 साल बाद 2024 में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया है। यह जीत ऐसे समय मिली है, जबकि भाजपा का दूसरे हिंदी भाषी राज्यों में प्रदर्शन औसत दर्जे का रहा है। दरअसल प्रदेश में भाजपा संगठन व सत्ता ने मिलकर ऐसा चक्रव्यूह रचा, जिसे तोड़ पाना कांग्रेस के लिए मुश्किल हो गया था। इसके लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने पांच स्तरीय चुनावी घेरा तैयार किया था। जिसकी कमान पार्टी ने अपने छह बड़े सेनापतियों को सौंप रखी थी। इनमें मुख्यमंत्री मोहन यादव, प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संगठन महामंत्री हितानंद, मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा शामिल थे। दरअसल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद सरकार बनने के बाद सरकार से लेकर संगठन तक कुछ माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गया था, जिसका परिणाम अब सामने है।
मप्र में सत्ता और और संगठन के नेताओं ने लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के पहले से ही प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों को जीतने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। मिशन-29 को पता करने के लिए भाजपा नेताओं ने 24&7 काम किया। कोई कार्यालय में बैठकर, तो कोई क्षेत्र में घूम-घूमकर रणनीति को अंजाम देने में लगा रहा। इसी का परिणाम रहा कि देश की दो सबसे बड़ी जीत मप्र को मिली है। इंदौर से भाजपा सांसद शंकर लालवानी 11 लाख से अधिक वोटों से जीत हैं तो वहीं पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आठ लाख वोटों से जीतकर दूसरे नंबर पर हैं। प्रदेश की औद्योगिक राजधानी ने नोटा में सर्वाधिक वोटों के साथ ही लोकसभा चुनावों के इतिहास में सबसे बड़ी जीत का रिकॉर्ड भी बनाया है। इससे पहले 2019 में गुजरात के नावासार सीट पर भाजपा के सीआर पाटिल ने 6,89,668 वोटों से जीत कर अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। वहीं इन भाजपा नेताओं की मेहनत का ही परिणाम है कि भाजपा ने कमलनाथ के गढ़ पर 26 साल बाद एक बार फिर कब्जा जमाया है। यहां 1997 में हुए उप चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने कमलनाथ को हराया था। अब 2024 में भाजपा के विवेक साहू बंटी ने कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ को मात दी है। साहू को कमलनाथ ने पिछले विधानसभा चुनाव में हराया था, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इस सीट को जीतने में पूरी ताकत झोंक दी थी। मप्र में 1989 से भाजपा की ताकत लगातार बढ़ी है। इंदौर, भोपाल, भिंड और दमोह सीट पर भाजपा ने 1989 से लगातार अपनी जीत इस बार भी बरकरार रखी है। इंदौर में वर्ष 1984 में कांग्रेस के प्रकाश चंद्र सेठी जीते थे। इसके बाद 1989 से लगातार भाजपा के कब्जे में यह सीट रही है। यही स्थिति भोपाल की है। यहां से आखिरी बार कांग्रेस प्रत्याशी केएन प्रधान 1984 में जीते थे। इसके बाद यहां भी 1989 से लगातार यहां भाजपा जीतती रही है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को यहां से लड़ाया, पर उन्हें भी हार मिली। इस बार पूर्व महापौर आलोक शर्मा ने कांग्रेस के अरुण श्रीवास्तव को मात दी है। भिंड, विदिशा और दमोह में भी 1989 यानी से भाजपा ही जीतती रही है। जबलपुर, मुरैना बैतूल और सागर में भाजपा वर्ष 1996 से लगातार जीत रही है।
एक फीसदी वोट बढ़ाकर बनाया रिकॉर्ड
प्रदेश में भाजपा ने लोकसभा चुनावों में क्लीन स्वीप किया और 29 में से 29 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने प्रदेश की 29 सीटों पर करीब 59.5 प्रतिशत वोट हासिल किए। यह 2019 के 58.5 प्रतिशत के मुकाबले सिर्फ एक प्रतिशत ज्यादा रहा। कांग्रेस की बात करें तो 2019 के 34.8 प्रतिशत के मुकाबले 32.19 प्रतिशत वोट ही हासिल किए। यह करीब-करीब ढाई प्रतिशत की कमी बताता है। यह बात अलग है कि इंदौर में कांग्रेस के उम्मीदवार ने नाम वापस ले लिया था। वहीं, खजुराहो सीट को कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन में समाजवादी पार्टी के लिए छोड़ा था। प्रदेश में भाजपा की जीत में पन्ना समिति की भूमिका अहम रही। खासकर तीसरे और चौथे चरण के मतदान के दौरान मतदाताओं को घर से बाहर निकालकर मतदान केंद्रों तक ले जाने की रणनीति को सफलता मिली थी। इसी का नतीजा है कि भाजपा ने ग्वालियर-चंबल अंचल की मुश्किल सीटों पर भी जीत हासिल की। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि कई स्तरों पर रणनीति रची गई थी। पहला तो कांग्रेस को कमजोर करना था। इसके लिए उन नेताओं की तलाश शुरू हुई, जो भाजपा में आ सकते हैं। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण ठुकराकर कांग्रेस ने यह मौका भी दे दिया। कांग्रेस के छोटे-बड़े करीब चार लाख कार्यकर्ता भाजपा से जुड़े। इससे जमीनी स्तर पर कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं का टोटा हो गया। प्रदेश के कई मतदान केंद्रों पर तो कांग्रेस की टेबल तक नहीं लगी। इससे भाजपा के पक्ष में माहौल बना। प्रदेश में करीब छह महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को 48.55 प्रतिशत मत मिले थे और कांग्रेस को 40.40 प्रतिशत। इसके मुकाबले लोकसभा चुनावों में भाजपा के वोट करीब 11 प्रतिशत अधिक है। यह पहली बार नहीं हुआ है। 1984 के बाद से जब भी प्रदेश में विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव हुए, भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2018 के विधानसभा चुनावों में 41.02 प्रतिशत वोट भाजपा को मिले थे, जबकि उसके बाद 2019 लोकसभा चुनावों में करीब 58.5 प्रतिशत वोट उसे मिले थे।
1980 में भाजपा की स्थापना हुई और 1984 का लोकसभा चुनाव पार्टी का राज्य में पहला बड़ा चुनाव था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में कांग्रेस ने 57.1 प्रतिशत वोट के साथ राज्य की सभी 40 में से 40 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा को तब 30 प्रतिशत वोट मिले थे। इसके बाद के पांच साल में जैसे-जैसे राम मंदिर आंदोलन ने गति पकड़ी, भाजपा को आधार मिलता गया। भाजपा ने 1989 में 39.7 प्रतिशत वोट के साथ 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को 37.7 प्रतिशत वोट के साथ सिर्फ आठ सीटें मिली थीं। 1991 में कांग्रेस ने दिल्ली की कुर्सी पर वापसी की, लेकिन भाजपा का वोट नहीं घटा। कांग्रेस ने 45.3 प्रतिशत वोट के साथ 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा का वोट प्रतिशत बढक़र 41.9 प्रतिशत हुआ था। उसे 12 सीटों पर ही जीत मिली थी। 1996 में 41.3 प्रतिशत वोट के साथ 27 सीटें, 1998 में 45.7 प्रतिशत वोट के साथ 30 सीटें और 1999 में भाजपा ने 46.6 प्रतिशत वोट के साथ 29 सीटों पर जीत हासिल की थी। वर्ष 2000 में मप्र का विभाजन हुआ। 11 लोकसभा सीटें छत्तीसगढ़ में चली गईं। विभाजित मप्र का पहला लोकसभा चुनाव 2004 में हुआ और भाजपा ने 48.1 प्रतिशत वोट के साथ 25 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को 34.1 प्रतिशत वोट के साथ चार सीटें मिली थीं। 2009 में कांग्रेस ने वापसी की थी। कांग्रेस के युवा नेताओं ने भाजपा के स्थापित नेताओं को मात देकर 29 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी। उसे 40.1 प्रतिशत वोट मिले थे। भाजपा को 43.4 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने 16 सीटें हासिल की थी। 2014 में मोदी लहर ऐसी चली कि भाजपा ने 29 में से 27 सीटों पर जीत हासिल की। सिर्फ गुना (ज्योतिरादित्य सिंधिया) और छिंदवाड़ा (कमलनाथ) में ही कांग्रेस को जीत मिली। भाजपा को 54.8 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को सिर्फ 35.4 प्रतिशत। 2019 में तो लहर और बड़ी हो गई। भाजपा को मिले 58.5 प्रतिशत वोट और 28 सीटें। इस बार गुना में सिंधिया को उनके करीबी रहे केपी यादव ने धूल चटाई थी। छिंदवाड़ा जरूर कांग्रेस का अभेद्य किला बना रहा। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 34.8 प्रतिशत रहा था। अब 2024 में भाजपा ने वोट प्रतिशत को और बढ़ाकर करीब 59.5 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं। सिंधिया भाजपा के टिकट पर थे, इस वजह से गुना में आसानी से जीते। छिंदवाड़ा में जरूर कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
ये बने जीत के शिल्पकार
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इस बार मप्र में पूरी तरह से क्लीन स्वीप कर जो नया इतिहास रचा है उसके शिल्पकार 6 नेता रहे। इनमें मुख्यमंत्री मोहन यादव, प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संगठन महामंत्री हितानंद, मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा शामिल थे। दरअसल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद सरकार बनने के बाद सरकार से लेकर संगठन तक कुछ माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गया था, जिसका परिणाम अब सामने है। मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने यूपी, बिहार तक रोड शो और प्रचार-प्रसार किया, लेकिन मप्र में अपनी पकड़ ढीली नहीं होने दी। कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाकर मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने इतिहास रच दिया है। आजादी के बाद से पहली बार ऐसा मौका आया है, जब मप्र में सभी 29 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का परचम लहराया है। मुख्यमंत्री मोहन यादव का इस चुनाव परिणाम से पार्टी में कद बढ़ गया है। सभी सीट को जीतने के लिए मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने कांग्रेस के गढ़ में लगातार सेंध लगाई। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट पर कांग्रेस विधायक कमलेश प्रताप शाह को भाजपा ज्वाइन कराई गई। इसके बाद महापौर को भी भाजपा में लाया गया। इतना ही नहीं कांग्रेस के दो और मौजूदा विधायक चुनाव के पहले भाजपा में शामिल हो गए। इससे लगातार भाजपा का पलड़ा भारी होता चला गया। यादव ने सत्ता संभालते ही केंद्र सरकार की योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए पूरी ताकत लगा दी। लाभार्थी सम्मेलन किए। ब्लॉक और पंचायत लेवल तक विकसित भारत कार्यक्रम कर लोगों को केंद्र की योजनाओं से जोड़ा। चुनाव के दौरान डॉ. यादव 185 विधानसभा सीटों पर गए और भाजपा प्रत्याशियों के समर्थन में 195 सभाएं लीं। छिंदवाड़ा सीट पर डॉ. यादव ने दो रातें गुजारीं। यहां के कार्यकर्ताओं को भरोसा दिलाया कि वे खुद उनका ख्याल रखेंगे। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा खुद खजुराहो से प्रत्याशी थे। यहां से सपा प्रत्याशी का पर्चा निरस्त होने के बाद उनका मुकाबला एकतरफा हो गया था। इसके बाद भी वे अपनी सीट पर लगातार प्रचार करते रहे। इस बीच उनके द्वारा बाकी 28 सीटों पर उन्होंने 148 सभाएं लीं। चारों चरणों के चुनाव के दौरान और मतगणना के दिन वे भाजपा के चुनावी वॉर रूम से बूथ लेवल के कार्यकर्ता और प्रत्याशियों के सीधे संपर्क में रहे। इसका फायदा यह हुआ की जहां भी कमजोर स्थिति का पता चला उसमें सुधार के लिए कार्यकर्ताओं को लगा दिया। शिवराज सिंह चौहान ने विदिशा सहित 21 लोकसभा क्षेत्रों में 66 सभाएं और 16 रोड शो किए। वे तीन लोकसभा क्षेत्रों के प्रत्याशियों के नामांकन कार्यक्रम में भी शामिल हुए। 8 से 11 मई तक खंडवा, खरगोन, देवास, रतलाम, उज्जैन और मंदसौर सीट पर 22 से ज्यादा सभाएं लीं। चौथे चरण के अंतिम दिन शिवराज ने उज्जैन लोकसभा से भाजपा प्रत्याशी अनिल फिरोजिया के समर्थन में खाचरौद, आलोट और माकड़ौन में चुनावी सभाओं को संबोधित किया। शिवराज ने मालवा निमाड़ के छह लोकसभा क्षेत्रों का दौरा किया। एक दिन में छह से आठ सभाएं और रोड-शो किए। यह सब उनके द्वारा तब किया गया जबकि वे स्वयं विदिशा सीट से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। प्रदेश संगठन महामंत्री हितानंद ने विस चुनाव के बाद से ही हारी हुई सीटों पर फोकस करना शुरु कर दिया था। चुनाव प्रचार के दौरान भी उनका पूरा ध्यान इन्हीं सीटों पर लगा रहा। वे विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आने के कुछ दिनों बाद ही रतलाम की लोकसभा की सैलाना के तंबोलिया गांव पहुंच थे। यहां उन्होंने कार्यकर्ताओं से पिछले तीन चुनाव के ट्रेंड पर बात की थी। इस बीच उनका पूरा फोकस इस बात पर रहा कि कार्यकर्ता हर उस लाभार्थी परिवार तक पहुंचकर सम्पर्क में रहे, जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है। पूर्व गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को न्यू ज्वॉइनिंग टोली का प्रभारी बनाकर पार्टी ने बड़ी जिम्मेदारी दी थी। मिश्रा ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भाजपा में लाकर पूरे प्रदेश में कांग्रेस संगठन को कमजोर करने का काम किया। मिश्रा का दावा है कि पूरे प्रदेश से कांग्रेस के करीब 4 लाख कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हुए। कांग्रेस से भाजपा में आए पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी कहते हैं, संगठन मजबूत होने का फायदा भाजपा को मिला है। मध्यप्रदेश कांग्रेस में विधानसभा चुनाव की हार के बाद जिस तरह से नेतृत्व परिवर्तन हुआ उससे कांग्रेस नेता ही खुश नहीं थे। पार्टी के बड़े चुनावी रणनीतिकारों में शामिल मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने छिंदवाड़ा में सक्रियता दिखाने के बाद अपना फोकस मालवा निमाड़ पर किया था। यह वो अंचल था, जहां चुनाव के पहले भाजपा को बेहद कमजोर माना जा रहा था। इसकी वजह थी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का इस अंचल में किया गया अच्छा प्रदर्शन। विजयवर्गीय इस दौरान अंचल की हर सीट पर जाकर रणनीति बनाने के साथ ही कार्यकर्ताओं को लगातार उत्साहित करने में लगे रहे। उनकी सक्रियता भी ऐसी दिखी जैसी कि वे खुद के चुनाव में दिखाते हैं।
मप्र के बाहर भी दिखा दम
प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों पर कमल खिलाने वाले मप्र भाजपा के नेताओं का दूसरे राज्यों में दम दिखा। मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार करने गए। डॉ. मोहन यादव ने 8 राज्यों की 33 लोकसभा सीटों पर प्रचार किया। इनमें से भाजपा ने 13 सीटें जीतीं। वहीं, शिवराज 3 राज्यों की 13 सीटों पर प्रचार के लिए पहुंचे थे। इनमें से भाजपा ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की। भाजपा ने डॉ. मोहन यादव को यूपी, बिहार और झारखंड की ऐसी सीटों पर प्रचार के लिए भेजा था, जो यादव बाहुल सीटें हैं, जबकि शिवराज ने दिल्ली, झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीटों पर प्रचार किया था। वहीं, भाजपा नेताओं का कहना है कि बाहरी राज्यों की कौन सी सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की, कौन सी सीटें हार गई, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। एनडीए की सरकार सभी के प्रयासों से बनी है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हरियाणा और तेलंगाना में डॉ. यादव का पूरा अभियान यादव बहुल इलाकों में ही बनाया था। चार चरणों तक मध्यप्रदेश में पार्टी का नेतृत्व करने की वजह से वे यहीं डटे रहे। डॉ. यादव ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी, लखनऊ, झांसी, हमीरपुर, अमेठी, इटावा, एटा, मैनपुरी, कन्नौज, फिरोजाबाद, बदायूं, आजमगढ़, फैजाबाद, देवरिया, संत कबीर नगर, कुशीनगर, महाराजगंज, गाजीपुर, जौनपुर और राबट्र्सगंज में प्रचार किया था। वे तीसरे-चौथे चरण की दो-तीन सीटों पर ही पहुंच पाए। वहीं, बिहार के पटना साहिब, पाटलीपुत्र और गया में भी यादव वोट महत्वपूर्ण हैं। वहीं, नार्थ-ईस्ट दिल्ली को तो यूपी-बिहार-मध्यप्रदेश के ओबीसी का गढ़ माना जाता है। झारखंड की रांची, गोड्डा, कोडरमा, हजारीबाग, दुमका और राजमहल सीटों पर भी यादव वोटों का प्रभाव माना जाता है। हरियाणा के रोहतक, तेलंगाना के खम्मम और महाराष्ट्र की साउथ मुंबई सीट पर भी इसी रणनीति के तहत डॉ. यादव को प्रचार के लिए भेजा गया था। नार्थ-वेस्ट दिल्ली में तो यादव समाज के एक सम्मेलन भाजपा प्रत्याशी योगेंद्र चंदौलिया के समर्थन में शपथ दिलाई थी। महाराजगंज के बरगदवा में हुई जनसभा के दौरान जिले के 20 यादव ग्राम प्रधान (सरपंच) भाजपा के सदस्य बने। मुख्यमंत्री डॉ. यादव को भाजपा ने यादव समाज को साधने का जिम्मा दिया था। हालांकि, डॉ. यादव ने कई मौकों पर ये कहा कि वे भाजपा के कार्यकर्ता के तौर पर प्रचार करने पहुंचे हैं। मैनपुरी की सभा में उन्होंने कहा कि उनकी विधानसभा में 500 वोटर भी यादव नहीं होंगे। उसके बाद भी भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया है। अमेठी के गौरीगंज में हुए उनके भाषण में तो उन्होंने भगवान कृष्ण का हवाला देते हुए कहा था कि कृष्ण ने अधर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। आज भी वो स्थिति आ गई है। यही बात उन्होंने मैनपुरी की सभा में भी दोहराई थी। समाजवादी पार्टी के गढ़ इटावा में एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉ. मोहन को यादव राजनीति का नया चेहरा बताया था। उन्होंने कहा- सपा वाले जिस समाज का ठेकेदार होने का दम भरते हैं, वह भ्रम भी अबकी बार टूट जाएगा। आज भी सपा को उम्मीदवार बनाने के लिए उनके परिवार के बाहर का कोई यादव नहीं मिला। वहीं, भाजपा में कोई कार्यकर्ता बड़े से बड़े पद तक पहुंच सकता है। आज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव अपने प्रदेश को दौड़ा रहे हैं। यादव लैंड में प्रचार के दौरान भाजपा के दूसरे स्टार प्रचारकों ने भी मोहन यादव का नाम जाति के बड़े राजनीतिक चेहरे के तौर पर इस्तेमाल किया। कोशिश यह थी कि यादव समाज को सपा का विकल्प दिया जाए। भाजपा ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हो रहे एक उपचुनाव में भी स्टार प्रचारक के तौर पर भेजा था। यह सीट थी सोनभद्र जिले की दुद्धी। डॉ. यादव ने 30 मई को यहां एक जनसभा को संबोधित किया था और रोड शो में शामिल हुए थे। इन कोशिशों के बाद भी यहां से भाजपा उम्मीदवार श्रवण कुमार तीन हजार 208 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए। यह सीट सपा के विजय सिंह ने जीती है। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश के बाहर तीन राज्यों में प्रचार के लिए गए। इनमें दिल्ली की सभी सात सीटों पर उन्होंने जनसभा, रोड शो और कार्यकर्ता सम्मेलनों को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को घेरा। झारखंड की शहरी सीटों पर भी उन्होंने गठबंधन सरकार के भ्रष्टाचार पर ही बात की। वहीं, पश्चिम बंगाल में उन्होंने ममता बनर्जी पर भ्रष्टाचार और मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाए। शिवराज ने दिल्ली झारखंड में जिन सीटों पर प्रचार किया उन सभी पर भाजपा प्रत्याशी जीते हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल में सभी तीन सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा है। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता राकेश शर्मा का कहना था कि प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और मुख्यमंत्री मोहन यादव की अगुआई में जिस तरह का काम यहां हुआ है उसकी बदौलत 29 की 29 सीटों पर जीत मिली। संगठन में जो काम कर रहे हैं, उन वरिष्ठ नेताओं की मांग पूरे देश में होती है। सीएम डॉ. मोहन यादव, पूर्व सीएम शिवराज और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने दूसरे प्रदेशों में भी जाकर भाजपा का प्रचार किया। राकेश शर्मा कहते हैं कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि जहां इन नेताओं ने प्रचार किया वहां कितनी सीटों पर सफलता मिली और कितनों पर नहीं मिली। बड़ी बात यह है कि देश में सबसे अधिक मांग मप्र के भाजपा नेताओं की हुई।
कांग्रेस के वरिष्ठों का भविष्य खतरे में
मप्र में लोकसभा की 29 सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की जीत हुई है। इस बार कांग्रेस छिंदवाड़ा सीट भी नहीं बचा पाई है। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने ही घर में बड़ी मार्जिन से चुनाव हार गए। कांग्रेस की इस तरह की हार से बुजुर्ग नेताओं के भविष्य क्या होगा, इस सवाल खड़े हो रहे हैं। वहीं कांग्रेस का युवाओं को प्रदेश की जिम्मेदारी देने का प्रयोग भी इस चुनाव में काम नहीं आया। दरअसल कांग्रेस ने हाल ही में पीसीसी चीफ की कमान जीतू पटवारी को दी थी। वहीं विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद आदिवासी युवा नेता उमंग सिंघार को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। इसके बाद से यह माना जा रहा था कि कांग्रेस के इस परिवर्तन से नई पीढ़ी उनके साथ जुड़ेगी और उन्हें लोकसभा चुनाव में 10 से 15 सीटें मिल सकती हैं। लेकिन इसके उलट कांग्रेस मप्र में खाता भी नहीं खोल पाई। अब जीतू पटवारी और उमंग सिंघार के भविष्य पर भी सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। देखना होगा कि क्या कांग्रेस आलाकमान इन नेताओं को आगे भी काम करने का मौका देगी या एक बार फिर से बदलाव किया जाएगा। हालांकि जीतू पटवारी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मप्र में मिली हार की जिम्मेदारी ले ली है। और किसी भी परिवर्तन के लिए तैयार रहने की बात कही है। दरअसल कमलनाथ लगातार 45 सालों से छिंदवाड़ा में जीतते आए हैं। 2019 में उनके पुत्र नकुलनाथ ने छिंदवाड़ा से विजय हासिल की थी। लेकिन इस बार वे बंटी साहू से बड़े अंतर से चुनाव हार गए। इसका सीधा असर कमलनाथ की राजनीतिक करियर पर पड़ेगा। खास बात यह है कि कमलनाथ के साथ-साथ उनके पुत्र नकुलनाथ के भविष्य पर भी संकट के बदल छाने लगे हैं। क्योंकि कमलनाथ ने अपने पुत्र को छिंदवाड़ा से जीत दिलाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। कांग्रेस के बड़े नेता होने के बावजूद वे एक सीट पर सिमटकर रह गए थे। अब ऐसे में नकुलनाथ को दोबारा छिंदवाड़ा से टिकट दिलवा पाना उनके लिए टेढ़ी खीर होगी।
मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सिंह को राजगढ़ से चुनावी रण में उतारा गया था। ऐसा माना जा रहा था कि दिग्विजय सिंह राजगढ़ से कांग्रेस को विजय दिलाएंगे। लेकिन दिग्विजय सिंह को अपने घर में ही बड़ी हार मिली है। अब इसके बाद से दिग्विजय सिंह के करियर पर भी सवालिया निशान खड़ा हो रहा है। जानकारी के लिए बता दें भले ही दिग्विजय सिंह मप्र में चुनाव नहीं लड़ते थे, लेकिन हर चुनाव में उनकी अहम भूमिका रहती थी। चाहे वह टिकट वितरण में हो या प्रत्याशियों का प्रचार प्रचार करना हो। कार्यकर्ताओं के बीच उनकी अच्छी पकड़ है। लेकिन अब वह इस चुनाव को आखिरी बता रहे थे उनका साफ कहना था कि इसके बाद में वे चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन उनको जाते-जाते भी हर का सामना करना पड़ा है।
कांग्रेस के 10 से 15 सीटों के दावे हुए हवा
कांग्रेस के सभी बड़े नेता लगातार दावा कर रहे थे कि मप्र में उन्हें 10 से 15 सीटों पर विजय मिलेगी। लेकिन वह इस बार मप्र में खाता तक नहीं खोल पाए। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 सीट पर जीत दर्ज की थी। छिंदवाड़ा सीट जीतकर कांग्रेस ने भाजपा को क्लीन स्वीप से रोका था। इस बार ऐसा नहीं हो पाया। एग्जिट पोल में भी भाजपा के इस बार क्लीन स्वीप का अनुमान लगाया गया था। लोकसभा चुनाव से पहले कमलनाथ अपने पुत्र नकुलनाथ के साथ भाजपा में शामिल होने की पूरी तैयारी कर ली थी। लेकिन अचानक उनके मन में परिवर्तन आया और वे अपने निर्णय को बदल दिया और कांग्रेस में ही रहकर छिंदवाड़ा से एक बार फिर चुनाव लड़ा। अब अगर कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ का भविष्य संवारने के लिए भाजपा में जाने का रुख करते हैं, तो ऐसे में भाजपा उन्हें स्वीकार नहीं करेगी। क्योंकि भाजपा उन्हें छिंदवाड़ा से ही चुनाव लडऩे के लिए अपने पार्टी में शामिल कर रही थी। अब भाजपा को छिंदवाड़ा में विजय हासिल हो गई है, इसलिए अब उन्हें कमलनाथ की जरूरत नहीं पड़ेगी।