
- 15वीं विधानसभा का रिपोर्ट कार्ड
एक समय ऐसा था जब मप्र विधानसभा पूरे देश की विधानसभाओं के लिए प्रेरणा बनती थी। क्योंकि उस समय मप्र विधानसभा के सभी सत्र पूरे समय तक चलते थे और विधायक अपने-अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं और आवश्यकताओं पर सरकार का ध्यान केंद्रित करते थे। लेकिन 15वीं विधानसभा का रिपोर्ट कार्ड देखें तो इस दौरान माननीयों की रूचि सदन चलाने में तनिक भी नहीं दिखी। सत्तापक्ष और विपक्ष हमेशा शोर-शराबे और हंगामे करते दिखे।
भोपाल। जिस राज्य में मुख्यमंत्री हर मंच से यह कहने से चूकते नहीं हैं कि मप्र मेरा मंदिर है और जनता इसकी भगवान और मैं जनता का सेवक। उस प्रदेश में लोकतंत्र के मंदिर में भगवान की किस कदर उपेक्षा की जाती है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 15वीं विधानसभा में हुए कुल 15 सत्र में 128 बैठकें आयोजित की गईं, लेकिन उनमें से सदन केवल 128 घंटे ही चल पाया। उस दौरान भी जनहित के मुद्दों की बजाय हंगामे ही होते रहे। अगर कामकाज की दृष्टि से देखें तो 15वीं विधानसभा में 133 विधेयक पास किए गए। वर्ष 2019 में 42, वर्ष 2020 में 19, वर्ष 2021 में 36, वर्ष 2022 में 30 और वर्ष 2023 में 6 विधेयक पास किए गए। लेकिन विडंबना यह रही कि इनमें से अधिकांश विधेयक शोर-शराबे और हंगामे के बीच पारित किए गए। जबकि नियम है कि किसी भी विधेयक पर पहले चर्चा होनी चाहिए। चर्चा के दौरान आए सुझावों के अनुसार उसमें जरूरी हो तो संशोधन करना चाहिए, लेकिन मप्र की 15वीं विधानसभा में बिना चर्चा के ही अधिकांश विधेयक पास हो गए। मप्र्र में जब भी विधानसभा का कोई सत्र शुरू होता है, सत्तापक्ष और विपक्ष बड़ी तैयारी के साथ सदन को चलाने के दावे करते हैं, लेकिन हर बार सदन की कार्यवाही कुछ ही दिनों में सिमट जाती है। सत्तापक्ष, विपक्ष पर और विपक्ष, सत्तापक्ष पर सदन न चलने का आरोप मढ़ देता है। लेकिन इसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ता है। माननीयों का इससे कुछ नहीं बिगड़ता है। जहां सरकार की कोशिश रही कि वह इस दौरान सारे विधेयक, अनुपूरक बजट या अन्य काम जल्दी-जल्दी निपटा ले, वहीं विपक्ष हर बात पर हंगामा करने में लगा रहा। हद तो यह कि सारे विधेयक, सारे बिल बिना चर्चा के ही पारित होते गए। यानी इस लोकतंत्र के मंदिर में न कोई कायदा दिखा और न कोई कानून। एक जमाना था जब विधानसभा का एक-एक सत्र 50 से 70 दिन तक चला करता था, लेकिन 15वीं विधानसभा के आंकड़े बताते हैं कि इस बार मुश्किल से 5 से 7 दिन सत्र चले।
मप्र में जब गिरीश गौतम विधानसभा अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने नियमों के तहत सदन को चलाने का दावा किया था। इस दौरान कई बार उन्होंने कहा था कि 15वीं विधानसभा के बाकी सत्र पूरे दिन चलेंगे। यही नहीं, इन्होंने विधानसभा में कई नवाचार भी किए हैं, जिसे देशभर में सराहना भी मिली है। लेकिन विडंबना यह भी रही है कि इनके नेतृत्व में विधानसभा का एक भी सत्र पूरे समय तक नहीं चल पाया है। इसके लिए भाजपा जहां विपक्षी कांग्रेस को दोष देती है, वहीं विपक्षी भाजपा को। वजह जो भी हो, लेकिन यह तो साफ है कि मप्र विधानसभा में अब जनता के मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है। सत्तापक्ष और विपक्ष बेवजह के मुद्दों पर हंगामा करते हैं और सदन की कार्यवाही कुछ दिनों तक ही जैसे-तैसे चल पाती है। मप्र विधानसभा का मानसून सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। 11 जुलाई से 15 जुलाई तक 5 दिन सत्र चलना था। 2 दिन में ही इसे खत्म कर दिया गया। इन दो दिनों में भी सत्र 4 घंटे ठीक से नहीं चला। विपक्ष के भारी हंगामे के बीच दोनों दिन 2-2 घंटे ही सदन चला। 12 जुलाई को सत्र के दूसरे दिन अनुपूरक बजट पेश हुआ। भारी हंगामे के बीच वित्तमंत्री जगदीश देवड़ा ने 26 हजार 816 करोड़ 63 लाख 87 हजार रुपए का अनुपूरक बजट पेश किया। हुक्का बार और तंबाकू से बने उत्पाद के विज्ञापन पर बैन के लिए संशोधित विधेयक पास हुआ। 15वीं विधानसभा का यह अंतिम सत्र था। सत्र के दूसरे दिन विपक्ष ने महाकाल लोक भ्रष्टाचार, आदिवासी अत्याचार, सतपुड़ा भवन की आग के मामले में जांच की मांग को लेकर नारेबाजी की। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। इससे पहले प्रश्नकाल के बाद सदन की कार्यवाही 10 मिनट के लिए स्थगित हुई।
जनहित के मुद्दे नदारद
विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। विधायक चुने जाने वाले नेता ही विधानसभा में जनता के मुद्दों को उठाकर उस पर चर्चा करते हैं, जिसके आधार पर सरकारें नियम व कानून बनाती है। यहां पर होने वाले सवाल-जवाबों के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचना ही आदर्श संसदीय व्यवस्था होती है, लेकिन अब प्रदेश में स्थितियां अलहदा होती जा रही हैं। इसकी वजह है विधानसभा सत्रों में चर्चा के नाम पर हंगामा, विरोध और फिर कार्यवाही का स्थगन हो जाना। प्रदेश की विधानसभा में इसी तरह का कुछ चिंताजनक ट्रेंड बना हुआ है। यही वजह है कि अगर बीते तीन दशकों पर नजर डालें तो प्रदेश विधानसभा में चर्चा के लिए जितना समय माननीय लेते थे, उसमें अब 75 फीसदी तक की कमी आ चुकी है। हद तो यह है कि 15वीं विधानसभा का अंतिम सत्र बुलाया तो 5 दिन के लिए गया था, लेकिन वह भी 2 दिन में ही समाप्त हो गया। इस दौरान सदन की कार्यवाही महज 2 घंटे 34 मिनट ही चली। इस दौरान विपक्ष ने सीधी पेशाब कांड, आदिवासी अत्याचार, महाकाल लोक घोटाला और सतपुड़ा भवन अग्निकांड के मुद्दों को उठाते हुए चर्चा की मांग की, जिसके चलते सत्तापक्ष व विपक्ष के सदस्य आमने-सामने आ गए थे।
अगर प्रदेश की विधानसभा के इतिहास पर नजर डालें तो कई बार ऐसे भी मौके आए जब मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तय समय की सीमा में भी वृद्धि की गई है या फिर देर रात तक कार्यवाही चलती रही है, लेकिन अब ऐसे मौके आने की नौबत ही नहीं आती है। इसकी वजह है अब माननीय सदन में अपनी बात रखने के लिए तर्कों के बजाय हंगामा करने को अधिक महत्व देते नजर आते हैं। इस तरह के हालात 12वीं विधानसभा से बनने शुरू हुए तो वह अब तक जारी है। यही नहीं इसके बाद से तो चर्चा के समय में लगातार गिरावट के हालात बने हुए हैं। इसके पूर्व की कार्रवाई पर नजर डालें तो पहले औसतन हर विधानसभा के कार्यकाल में करीब साढ़े पांच सौ घंटे चर्चा होती थी, जो अब कम होकर औसतन सवा सौ घंटे के आसपास ही रह गई है। 15वीं विधानसभा में तीन सत्रों को छोडक़र चार साल में अन्य कोई भी सत्र (बजट, मानसून और शीतकालीन) अपनी निर्धारित अवधि पूरी नहीं कर सका। यहां तक की बजट सत्र की बैठकें भी समय से पहले ही समाप्त हो गईं। जबकि इस सत्र के सबसे लंबा होने की परंपरा रही है।
सत्र चलाने में किसी की रूचि नहीं
दरअसल, पक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रूचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरुआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। इससे अध्यक्ष व्यथित भी नजर आए। सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं। दिग्विजय सरकार के बाद अगर 15 माह की कांग्रेस सरकार को छोड़ दिया जाए तो पूरे समय भाजपा की ही सरकारें बनती रही हैं। इस दौरान सत्र की संख्या में तो वृद्धि की गई, लेकिन चर्चा के लिए निर्धारित दिनों के पहले सत्र समाप्त होने व चर्चा के लिए समय में भी तेजी से गिरावट आती रही। 12वीं विधानसभा में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री बने जिनमें उमा भारती, बाबूलाल गौर और मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। 12वीं विधानसभा में 15 सत्र हुए, लेकिन इनमें केवल 159 दिन बैठकें हुईं। इन बैठकों में 275 घंटे विधायकों ने विभिन्न मुद्दों व विषयों पर चर्चा की। इसके बाद 13वीं और 14वीं विधानसभा में 17-17 सत्र बुलाए गए, लेकिन 13वीं विधानसभा में 167 दिन बैठकें हुईं, जिनमें चर्चा के लिए 265 घंटे का समय विधायकों को मिल सका। 14वीं विधानसभा में 135 दिन के लिए बैठकें बुलाई गईं और चर्चा के लिए समय घटकर मात्र 182 घंटे रह गया। विधानसभा में हुए हंगामे को लेकर संसदीय कार्यमंत्री व गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा, कांग्रेस ने सत्र हंगामे की भेंट चढ़ा दिया। हम चर्चा चाहते थे, ये भागना चाहते थे। शायरी में कहा- बदहवास हुए इस तरह से कांग्रेस के लोग, जो पेड़ खोखले थे उसी से लिपट गए। उधर, पीसीसी चीफ कमलनाथ ने कहा, ये जनता की बात हमसे सुन लेते, लेकिन इन्हें परेशानी है। दबा दो, छिपा दो, इनके पास यही बचा है। वहीं महेश्वर से कांग्रेस विधायक विजयलक्ष्मी साधौ ने कहा, सत्तापक्ष अहंकार में है। विधानसभा सत्र चलाना चाहिए। जनता ने हमें चुनकर भेजा है, हम तो अपनी आवाज उठाएंगे। ये सौदे की सरकार है, इसीलिए इसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। उधर, राजस्व एवं परिवहन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत ने कहा, विधानसभा अध्यक्ष ने पूरी तरह से चाहा कि सत्र चले। जो मुद्दे उठाए गए, उनका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर कार्रवाई हो चुकी है। विपक्ष का हमेशा रहता है कि उधम करो।
विधायकों के अधिकारों का हनन
पिछले कई सालों से जिस तरह विधानसभा के सत्र सिमटते जा रहे हैं और सदन की कार्यवाही बाधित हो रही है, उससे विधायकों के अधिकारों का हनन हो रहा है। बड़ी तैयारी के साथ विधायक विधानसभा सत्र के लिए प्रश्न लगाते हैं। एक घंटे के प्रश्नकाल में 25 प्रश्नों का चयन लॉटरी के माध्यम से होता है। जिन सदस्यों के प्रश्न इसमें शामिल होते हैं वे सदन में सरकार का उत्तर चाहते हैं और पूरक प्रश्न भी करते हैं पर हंगामे के कारण प्रश्नकाल ही पूूरा नहीं हो पा रहा है। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने के अधिकार का हनन भी हो रहा है। अपनी बात रखने का उन्हें मौका भी कम मिल रहा है। इसे लेकर विधायक आपत्ति भी दर्ज करा चुके हैं। विधेयकों को लेकर भी स्थिति अलग नहीं है। इस दौरान अधिकतर विधेेयक हंगामे के बीच ध्वनिमत से चंद मिनटों में पारित हो जाते हैं। नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह का कहना है कि सरकार सदन में चर्चा कराने से भागती है। विपक्ष लोक महत्व के विषयों पर चर्चा करना चाहता है पर सत्तापक्ष हंगामा करने लगता है। वहीं संसदीय कार्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा का कहना है कि कांग्रेस कभी जनहित के मुद्दों पर चर्चा नहीं करती। हंगामा करना ही इनका मकसद रहता है। जबकि, सदन का मंच हमें जनहित पर चर्चा करने के लिए दिया है और सबकी प्रक्रिया निर्धारित है। गौरतलब है कि विधानसभा का सालाना बजट लगभग 100 करोड़ रुपए है। इसमें से 15 करोड़ रुपए विभिन्न अनुदानों के अलग निकाल दिए जाएं तो 85 करोड़ रुपए विधायकों के वेतन-भत्ते, सचिवालय के अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतनभत्ते, बिजली बिल, पानी, साफ-सफाई सहित अन्य व्यवस्थाओं पर खर्च होते हैं। सदस्यों को सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए प्रतिदिन डेढ़ हजार रुपए दैनिक भत्ता मिलता है। यह सत्र प्रारंभ होने से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक दिया जाता है। निजी वाहन से सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए आने पर प्रति किमी के हिसाब से 15 रुपए का भुगतान किया जाता है। इसके अलावा शासन स्तर पर प्रश्न-उत्तर तैयार करने से लेकर अन्य व्यवस्थाओं में अलग राशि खर्च होती है। विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव भगवानदेव इसरानी का कहना है कि सदन में जनहित के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए। जनता भी यही अपेक्षा करती है कि उनसे जुड़े विषयों पर सदस्य चर्चा करेंगे और समाधान निकलेगा। यदि ऐसा नहीं होगा तो मतदाताओं में निराशा का भाव आएगा, जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है। सत्र पूरा चले और विधेयकों पर चर्चा हो, इसकी जिम्मेदारी सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की है। संसदीय कार्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि हमने पहले ही दिन कहा था कि हम सभी मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं। पर समस्या यह है कि किससे बात करें। सामने (प्रतिपक्ष) में अब कोई बहस करने वाला ही नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि हमारे विधायकों ने कई मुद्दों पर प्रश्न, ध्यानाकर्षण और स्थगन सूचनाएं भी दीं पर सरकार चर्चा ही नहीं कराना चाहती थी। यही वजह है कि सत्र की अवधि पहले ही कम रखी और फिर उसे चंद घंटों में समाप्त भी कर दिया।
15वीं विस का कोई सत्र पूरा नहीं
15वीं विधानसभा की स्थिति यह रही कि पिछले 5 साल में कोई भी सत्र पूरी अवधि तक नहीं चला। 15वीं विधानसभा का आखिरी सत्र यानी मानसून सत्र 5 दिन की बजाय दूसरे दिन ही खत्म हो गया। 2 दिन चली बैठक में 4 घंटे भी सदन के अंदर काम नहीं हुआ। इसको लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं पर जनहित से जुड़े मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। कांग्रेस के नेताओं ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा कि हम बड़ी तैयारी के साथ प्रश्न लगाते हैं ताकि समस्या का समाधान हो जाए। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम का कहना है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी पक्ष और विपक्ष दोनों की होती है। विधानसभा अध्यक्ष ने बताया कि अध्यक्षों के सम्मेलन में भी सत्र की अवधि लगातार घटने का मुद्दा उठा था। लोकसभा वर्ष में सौ दिन, बड़ी विधानसभा 90 से 75 दिन और छोटी विधानसभा में सदन की कार्यवाही 60 दिन चलनी चाहिए। इसके लिए संविधान में संशोधन होना चाहिए। अभी वर्ष में छह माह के भीतर सत्र बुलाना अनिवार्य है। इस अवधि को तीन माह करने की अनुशंसा की है। लोक लेखा समितियों के सम्मेलन में भी यही कहा गया। हर बार कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में सदन की कार्यवाही संचालित करने पर सहमति बनती है। लेकिन सदन में पहुंचते ही नेता हंगामे पर उतर आते हैं। आलम यह है कि 15वीं विधानसभा के आखिरी सत्र यानी मानसून सत्र में 41 ध्यानाकर्षण और 6 स्थगन प्रस्ताव की सूचना दी गई थी, वहीं 139 के संबंध में 2 प्रस्तावों पर चर्चा होनी थी, लेकिन विधानसभा की कार्यवाही दो दिन में ही सिमट गई। ऐसा ही 15वीं विधानसभा के लगभग हर सत्र में हुआ है।
15वीं विधानसभा प्रदेश के इतिहास में कुछ अलग ही प्रकार की है। प्रदेश के इतिहास में पहली बार सत्तापक्ष के विधायकों की बगावत के बाद विपक्षी भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई। यानी कांग्रेस ने 15 महीने तो भाजपा ने बाकी समय सरकार चलाई। इस दौरान भी विधानसभा के जितने सत्र आयोजित किए गए, वे सभी पूरे नहीं चले। इस कारण जनता के मुद्दे दबकर रह गए। बीते रोज यानी 12 जुलाई को 15वीं विधानसभा का 15वां और आखिरी सत्र समाप्त हो गया है। इस विधानसभा के दौरान कोविड महामारी की वजह से कुछ सत्र औपचारिक रूप से हो सके। विधानसभा में 79 दिन की बैठकें बुलाई गईं, जिनमें छह विधानसभा की तुलना में सबसे कम 128 घंटे ही चर्चा हुई है। इस विधानसभा में शुरुआत के 5 सत्र कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के रहे तो, 10 सत्र शिवराज सरकार के कार्यकाल के हैं। कमलनाथ सरकार ने पांच सत्रों में 28 बैठकें बुलाकर 49 घंटे सदन में विभिन्न विषयों व जनता के मुद्दों पर चर्चा की, लेकिन इसके बाद विधानसभा के आखिरी सत्र तक शिवराज सरकार ने 51 दिन की बैठकों में 79 घंटे ही चर्चा कराई। विधानसभा की कार्यवाही की समयसीमा धीरे-धीरे सिमट रही है, इससे लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा भी कम हो रही है। आलम यह है कि कभी सदन में मंत्री गायब रहते हैं तो कभी सवाल पूछने वाले विधायक। इसका असर यह हो रहा है कि जनहित के मुद्दों पर विधानसभा में स्वच्छ बहस नहीं हो पा रही है। इससे जनता का भी रूझान सदन की कार्यवाही के प्रति कम हो रहा है।
करोड़ों रुपए पर सिर्फ हंगामा
मप्र विधानसभा में बीते कुछ सालों से सत्र तय समय से पहले स्थगित हो रहे हैं। जबकि इन सत्रों पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। यह राशि जनता के टैक्स की होती है और उम्मीद की जाती है कि यहां जनहित के मुद्दों पर सार्थक बहस होगी, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। सत्तापक्ष और विपक्ष ने इसे राजनीति और सिर्फ हंगामा करने का स्थान बना लिया है। हंगामे के कारण सत्र तय अवधि से पहले ही स्थगित कर दिया जाता है। सबसे लंबा चलने वाला बजट सत्र भी 13 दिन में स्थगित होने का उदाहरण मौजूद है। कमलनाथ सरकार के समय भी अधिकांश सत्र पूरे नहीं चले। इसी तरह इसी 9 अगस्त से बुलाया चार दिवसीय मानसून सत्र तो सिर्फ 2 घंटे 11 मिनट में पूरा हो गया। इस दौरान मिलावटी शराब के मामलों में फांसी जैसी सजा के प्रविधान वाला आबकारी संशोधन विधेयक भी बिना चर्चा पारित हो गया। जानकारों के मुताबिक ऐसा लगता है कि सत्तापक्ष या विपक्ष, दोनों सदन चलाने को लेकर गंभीर नहीं हैं। जनहित के मुद्दे पर बहस न होना या कानून बनाने की कवायद पर चर्चा न होना लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। वर्ष 2017 से अब तक कोई भी सत्र अपनी तय अवधि तक नहीं चला। 21 फरवरी से तीन मई 2017 के सत्र में चार दिन बैठक नहीं हुई। जुलाई 2017 में दो, नवंबर-दिसंबर 2017 में चार, फरवरी-मार्च 2018 में पांच, जून 2018 में तीन, जुलाई 2019 दो, दिसंबर 2019 में एक, मार्च 2020 में 15, सितंबर 2020 में दो और फरवरी-मार्च 2021 में 10 दिन बैठकें नहीं हुईं। 15वीं विधानसभा में तीन सत्रों को छोडक़र चार साल में अन्य कोई भी सत्र (बजट, मानसून और शीतकालीन) अपनी निर्धारित अवधि पूरी नहीं कर सका। यहां तक की बजट सत्र की बैठकें भी समय से पहले ही समाप्त हो गईं। जबकि यह सबसे लंबा होने की परंपरा रही है। दरअसल, पक्ष हो या विपक्ष किसी की भी रुचि अब अधिक अवधि तक सत्र चलाने में नहीं रह गई है। सरकार का जोर इस बात पर रहता है कि विधायी कार्य पूरे हो जाएं। वहीं, विपक्ष शुरुआत से ही हंगामा करना प्रारंभ कर देता है। स्थिति अब तो यह बनने लगी है कि प्रश्नकाल तक पूरा नहीं हो पाता और अध्यक्ष को सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है। पिछले मानसून सत्र में यही स्थिति बनी। इससे अध्यक्ष व्यथित भी नजर आए पर सदन के सुचारू संचालन में पक्ष और विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जाहिर है दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को ही जिम्मेदार बताते हैं।
विधानसभा की कार्रवाई का एक मिनट के संचालन का खर्च करीब 66 हजार रुपए आता है। इसके बाद भी जनता से जुड़ी समस्याओं के प्रति विधायकों की गंभीरता नहीं दिख रही है। 2 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के आम बजट पर सामान्य चर्चा हुई तो 230 सदस्यों की विधानसभा में महज 19 सदस्य ही उपस्थित थे, जिनमें से 4 मंत्री और 2 विधायक सत्तापक्ष के। इस बीच भाजपा विधायक राजेंद्र पांडे ने सदन का ध्यान आकृष्ट कराया कि यह देख लिया जाए कि सदन में कोरम पूरा है या नहीं। विधानसभा अध्यक्ष ने दिखवाया तो 10 फीसदी विधायक ही सदन में मौजूद थे, इसे देखते हुए उन्होंने सदन की कार्रवाई पांच मिनट के लिए स्थगित कर दी और संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा को सदन में उपस्थित रहने को कहा। विधानसभा का सालाना बजट 100 करोड़ रुपए है, जिसमें से 15 करोड़ रुपए अनुदान, वेतन और खर्चों के रहते हैं। बाकी 85 करोड़ रुपए सदन की कार्यवाही के संचालन पर खर्च होते हैं। यानी सालभर में तकरीबन 45 बैठकें होती हंै। इस हिसाब से एक दिन की बैठक के दौरान पांच घंटे सदन की कार्रवाई चलती है, जिस पर 2 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। एक घंटे की कार्रवाई पर 40 लाख रुपए और 1 मिनट की कार्रवाई पर खर्च 66 हजार रुपए के करीब खर्च होते हैं। यही नहीं अगर विधायकों द्वारा पूछे गए सवालों के खर्च का आंकलन करें तो सदन में पूछे गए एक सवाल का जवाब तैयार करने में औसत 50 हजार रुपए तक खर्च आता है। कुछ सवालों के जवाब जुटाने में गांवों से भी जानकारी मंगाई जाती है। इनका खर्च 75 हजार से एक लाख रुपए तक चला जाता है। एक दिन के प्रश्नकाल पर औसतन 50 लाख रुपए तक आता है। ये राशि विधानसभा की एक दिन की बाकी कार्यवाही के कुल खर्च से भी ज्यादा है, क्योंकि सदन की हर घंटे की कार्यवाही 2.50 लाख रुपए की पड़ती है। यदि 5 घंटे सदन चला तो कुल खर्च 12.50 लाख तक आता है। 2019 से अब तक ऐसे 500 सवाल पूछे जा चुके हैं, जिनमें एक ही जवाब मिला- जानकारी एकत्रित की जा रही है। यदि इसी बजट सत्र की बात करें तो 5 दिनी कार्रवाई में 28 फरवरी को 224, 1 मार्च को 227, 2 मार्च को 230, 3 मार्च को 307 सवाल पूछे गए। किसानों की कर्जमाफी को लेकर तीन साल में 100 से ज्यादा सवाल पूछे गए। लेकिन, सभी में सिर्फ एक ही जवाब दिया गया- जानकारी जुटा रहे हैं। व्यापमं घोटाले की जांच 2013 से चल रही थी जो 2015 में बंद कर दी गई। इस बारे में अब तक 80 सवाल पूछे गए, जिसमें हमेशा कोर्ट का हवाला देकर जवाब खत्म कर दिया गया। 2017 में हुए मंदसौर गोलीकांड के बाद 2018 में न्यायिक आयोग गठित हुआ था, तब से अब तक 100 से ज्यादा सवाल पूछे जा चुके हैं। दो सरकारें बदल चुकीं, लेकिन अब तक इसमें एक ही जवाब मिला- कार्यवाही प्रक्रियाधीन है। विधायकों द्वारा पूछे गए किसी एक सवाल का जवाब तैयार करने में विधायक, उसके स्टाफ का वेतन, विधानसभा का स्टाफ, संभाग और जिलास्तर पर होने वाला खर्च शामिल रहता है। इसमें कर्मचारी का वेतन, विशेष भत्ता, फोटोकॉपी, डाक या व्यक्ति द्वारा दस्तावेज भोपाल ले जाने का खर्च भी शामिल रहता है। एक प्रश्न में विधायक का आधा दिन खर्च होता है और उनके स्टाफ निजी सचिव के दो दिन का वेतन। कुल खर्च 5 हजार रुपए। प्रश्न की प्रिटिंग, फोटोकॉपी, दस्तावेज इकट्ठा कर प्रश्नशाखा में प्रश्न लगाने का खर्च 1000 रुपए। इस शाखा में प्रश्न का इनवर्ड होगा और इसे कम्प्यूटर पर टाइप किया जाएगा। यहां से अंडर सेक्रेटरी से लेकर 15 से 20 लोगों के स्टाफ का वेतन। कुल खर्च 4 से 5 हजार रुपए। हफ्तेभर बाद प्रश्न संबंधित विभाग में जाता है। यहां जांच होती है। मंत्री की सहमति से सचिवालय को भेजते हैं। कुल खर्च 10 हजार रुपए। 5. 80 प्रतिशत प्रश्नों की जानकारी संभाग, जिलों से आती है। इस पर कुल 15 हजार रुपए खर्च होते हैं।