रावण वध से पैदा हुआ मानव चेतना में अन्याय के प्रतिकार का भाव

  • विजय बहादुर सिंह
रावण वध

आज दशहरा है। लोक की मान्यता है कि अन्यायी रावण इसी दिन हारा था। महिषासुर मर्दनी ने अपनी विजय पताका फहराई थी। तभी से मानव चेतना के इतिहास में अन्याय का बोध और उसका प्रतिकार करने का भाव एक स्थायी भाव बना चला आ रहा है। अन्याय चाहे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में हो या फिर सांस्कृतिक जीवन में, उसका उन्मूलन और विनाश हमारे धार्मिक मनुष्य होने की पहली जिम्मेदारी है। परआज हम सभ्यता के एक ऐसे चरण में पहुंच गए हैं जब न्याय अन्याय की हमारी यह पहचान -शक्ति नष्ट हो चुकी लगती है । तब अंधकार ही हमें सबसे बड़ा प्रकाशित सत्य लगने लगा हैऔर हम चौंधिया से उठे हैं। हकीकत यह कि आज हम सत्य के गर्भगृह से स्वयं को आत्मनिर्वासित कर असत्य के औपचारिक ड्राइंगरूम  में आकर थोथी और मूल्यहीन सामाजिक व्यावहारिकता को अपना जीवन सत्य और सफलता मानने लगे हैं। तब यह कैसे संभव है कि हम अपनी रोज रोज खोती चली जाती स्वतंत्रता और स्वाधीनता की रक्षा कर पाएंगे? राष्ट्रकवि ने कभी यह सवाल उठाया था… हम कौन थे? पर हमने इस सवाल को भुला दिया है न जाने क्यों? पर हमारे कवियों ने निरंतर इस सवाल को उठाया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुरऔर जयशंकर प्रसाद ने।गुरुदेव ने कहा कि आत्मगौरव जीवन का सबसे बड़ा मूल्य है। उन्हीं के शब्द हैं… चित्त जहाँ भय शून्य मुक्त हो ज्ञान जहाँ पर.. कवि और नाटककार प्रसाद ने हमें पुकार पुकार कर कहा… स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती । उन्होंने ही लिखा.. ब्राह्मण न किसी राज्य में रहता है,न किसी के दिए हुए अन्न पर पलता है।वह स्वराज्य में विचरता है। कहने की जरूरत नहीं कि आज हमारा यह यह स्वराज्य बुरी तरह संकटग्रस्त है। हमारे अनुभव करने ,सोचने और अपने लोगों से वैचारिक संवाद करने को अपराध माना जा रहा है। हम उस सत्य को भी दोहरा नहीं सकते जिसे राष्ट्रपिता ने हमें एक अमृत मंत्र की तरह सौंपा था। तब यह कैसी और किसकी विजयदशमी और किसका दशहरा?
आज तो राष्ट्रपिता तक का अस्तित्व खुद ही संकटग्रस्त है। कहीं उनके पुतले को गोली मारी जा रही ,कहीं उन्हें महिषासुर का पर्याय बना कर उन्हें उस बिरादरी में शामिल किया जा रहा है जिसके पराभव और विनाश का सपना यह देश युगों से देखता चला आ रहा है।तब क्या यह जरूरी नहीं कि ऐसे गिरोहों की पहचान की जायन कि हम त्यौहारों के जड़ कर्मकाण्डों के पालन को ही अपना सांस्कृतिक दायित्व मानकर आत्मसंतुष्ट हो जायँ । क्या हम मध्यवर्ग के लोग ऐसे ही कर्मकाण्डों कोअब अपनी जीवन परिभाषा की पहचान बना कर जीने को पुरुषार्थहीन सफलता मान लें? कभी ऐसी ही स्थितियों की भयावहता का अनुभव कर, कवयित्री महादेवी वर्मा ने याद दिलाया और लिखा था…
झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्च्छा गहरी
आज पुजारी बने ज्योति का यह लघु प्रहरी
जब तक लौटे दिन की हलचल
तब तक यह जागेगा प्रतिपल
दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो।
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो..
..दीपशिखा से
आज हमारी यह मूर्च्छा कुछ अधिक ही सघन हो चली है। तब कैसा दशहरा और कैसी विजयदशमी? यह तो तब तक संभव न होगी जब तक यह समाज और देश अपने आतंकमुक्त स्वराज्य में लौटकर अपनी नागरिकता न प्राप्त कर ले। और अब यह इतना सरल भी नहीं बचा है। मायावी शक्तियां अपनी हजार हजार बाहों से हमें चतुर्दिक से घेरे खड़ी हैं।वे केवल हमारा इतिहास भर नहीं हमारी असली धर्मचेतना की व्याख्या तक भ्रष्ट करने पर उतारू हैं। गीता के कृष्ण ने हमें सिखाया था कि – परित्राणाय साधूनाम्–सुसभ्य और न्यायसंगत सामाजिक जीवन को आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए –विनाशाय च दुष्कृताम् जरूरी है। जबकि आज का सच अब बिल्कुल इसके विपरीत है।कुछ थोड़े से आतंकी समुदाय ही इस देश की लोकतांत्रिक चेतना की छाती पर बैठकर अपने झूठ को एकमात्र सच साबित करने पर उतारू हैं और वृहत्तर लोक अंधे धृतराष्ट्र की चीरहरण वाली सभा में आँख और कान मूँदे गूँगा बहरा हुआ अपनी ही स्वतंत्रताओं का चीरहरण होते देख रहा है। तब यह कैसा विजयोत्सव और कैसा दशहरा?
इसलिए मित्रो! अगर हमें अपने खोते जा रहे स्वदेश और स्वराज को पाने और उसमें लौटने की इच्छा है तो सोचने और संकल्प लेने की यह सबसे सटीक घड़ी है। न कि औपचारिक शुभकामनाओं को अदा कर इस मुगालते में जीने की कि हमने सचमुच अपना विजयोत्सव मना लिया।
(लेखक जानेमाने साहित्यकार हैं)

Related Articles