4-5 दिन के सत्र में भी नहीं हो रही पूरी बैठकें

विधानसभा सत्र

– लगातार सिमट रहे मप्र विधानसभा के सत्र
– सरकारी कामकाज निपटाने तक ही सीमित हो रहे सत्र

भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। पक्ष-विपक्ष की तकरार के बीच महज 5 दिन का मानसून सत्र भी पूरा नहीं चल पाया और न ही मुद्दों पर बहस हो पाई। तीसरे दिन ही सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई।  ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। अगर देखा जाए तो पिछले कुछ सालों से विधानसभा के सत्र सिमटते जा रहे हैं। लगातार छोटे हो रहे सत्र में जनता के मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पा रही है। हंगामों के कारण सत्र केवल सरकारी कामकाज निपटाने तक ही सीमित हो रहे हैं।
मप्र विधानसभा के पिछले कई सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गए। सत्रों के कार्य दिवस भी पहले की तुलना में कम होने लगे हैं। पहले से ही छोटे इस 5 दिवसीय मानसून सत्र को 4 दिवसीय करते हुए विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि बैठकों का समय बढ़ा दिया गया है और लंच ब्रेक भी नहीं होगा। ऐसे में यह उम्मीद की जा रही थी कि यह छोटा सत्र कम से कम पूरा चलेगा और विभिन्न मुद्दों पर प्रभावी चर्चा होगी। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
आम लोग अपने प्रतिनिधि के तौर पर विधायकों को चुनकर विधानसभा तक इसलिए पहुंचाते हैं, जिससे वे उनकी आवाज वहां उठा सकें। मुद्दों पर चर्चा कर सकें, लेकिन सदन में हंगामा और शोर-शराबा के बीच उनकी ही आवाज दब रही है। बैठकों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। काम के घंटे कम हो रहे हैं। सदन की बैठक के पहले स्पीकर सर्वदलीय बैठक बुलाते हैं। यह परंपरा इसलिए है, जिससे सदन की बैठकें सुचारू ढंग से हो सकें। बैठक में इस पर चर्चा भी होती है, लेकिन इसका नतीजा सिफर नजर आता है।
बिना चर्चा के पारित हो रहे बजट और विधेयक
मानसून सत्र में हंगामे के बीच 43 मिनट में बिना चर्चा के नौ हजार 519 करोड़ रुपए से अधिक का अनुपूरक बजट, भारतीय स्टांप शुल्क मध्य प्रदेश संशोधन, लाड़ली लक्ष्मी बालिका प्रोत्साहन, वेट अधिनियम, काष्ठ चिरान विनियमन, नगर पालिक विधि, मध्य प्रदेश नगर पालिका द्वितीय संशोधन, निजी विश्वविद्यालय स्थापना एवं संचालन, सिविल न्यायालय, मध्य प्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल और भू-राजस्व संहिता में संशोधन विधेयक  पारित कर दिए गए। अगर पिछली बैठकों का आंकलन किया जाए तो पिछले कुछ सालों से ऐसा ही होता आ रहा है। वहीं मप्र की पिछली विधान सभाओं की बैठकों पर नजर डाली जाए तो पूर्व में प्रत्येक विधानसभा में औसतन बैठकों की संख्या 150 से 200 तक रही है, लेकिन अब यह संख्या सिमटकर 100 तक सीमित हो गई है। सत्र मात्र दो-तीन दिन के होने लगे हैं। इन दो-तीन दिन के सत्र में भी सदन में विभिन्न मसलों पर सार्थक चर्चा नहीं हो पाती। राज्य का बजट सहित महत्वपूर्ण विधेयक बिना चर्चा के ही पारित हो जाते हैं, जबकि इन पर चर्चा होनी जरूरी है। चर्चा होगी तो और बेहतर कानून बन सकेंगे। आम लोग जान-समझ सकेंगे।
नेता प्रतिपक्ष का आरोप
नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह का इस सत्र को लेकर कहना है कि जब भी विपक्ष गंभीर मुद्दों पर चर्चा करना चाहता है, सरकार उससे भागती है। सरकार विपक्ष की आवाज दबाती है। सदन में सत्ता पक्ष अपने साथियों से हल्ला करवा कर बात समाप्त करवा देती है। जिन सवालों से सरकार के घोटाले उजागर हो सकते हैं, उनका जवाब नहीं देते। ऐसे सवालों के जवाब में जानकारी एकत्र की जा रही है ,जैसे जवाब आते हैं।
तीन दिन भी पूरा नहीं चला सदन
पांच दिवसीय मानसून सत्र शुरू होने के पहले ही इसकी संख्या एक दिन कम कर दी गई। हालांकि इसके साथ ही सदन की बैठकें देर शाम तक चलाए जाने का निर्णय लिया गया, लेकिन शाम तो दूर यह बैठकें दोपहर तक भी नहीं चल सकीं। दूसरी ओर लोकसभा की बात करें तो यहां काम के घंटे बढ़े हैं। यहां देर शाम तक भी सदन की बैठकें हुई हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में इस तरह प्रयोगों को करने की कोशिश हुई ,लेकिन इसमें विधायकों का ही सहयोग नहीं मिला। परिणाम स्वरूप समय से पहले मानसून सत्र स्थगित हो गया। 24-27 मार्च 2020 तक के सत्र में तीन बैठकें होनी थीं, लेकिन 9 मिनट में स्थगित हो गया। इस दौरान सीएम शिवराज ने बहुमत प्राप्त किया। 16 मार्च से 13 अप्रैल 2020 के सत्र में 17 बैठकें होनी थीं। यह सत्र दो दिन में हो गया। अल्पमत में आई कमलनाथ सरकार के समय सत्र बुलाया गया था। हमने जिस यूके से संसदीय प्रणाली ली है, वहां संसद के दोनों सदनों की बैठकों की औसतन वार्षिक संख्या 150 है। अमेरिकी संसद में पिछले दो चार वर्षों का औसत 180 बैठकें रहा है। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि हमारी संसदीय गंभीरता में कितना अंतर है। संविधान विशेषज्ञ एवं रिटायर पीएस छग विधानसभा देवेन्द्र वर्मा का कहना है कि पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में 100 तक सदस्य वाली विधानसभा के लिए 40-50 बैठकें, 100+ के लिए 70-80 बैठकें, 300+ वाली विधानसभा के लिए 100 से अधिक बैठकों का प्रस्ताव पारित हो चुका है। इन दिनों सरकारों में विधानसभा के प्रति उत्तरदायित्व की भावना कम होती जा रही है। यह चिंता का विषय है।

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