मप्र में बसपा और सपा नहीं बन पायी तीसरी ताकत

बसपा और सपा
  • अब आप लगा रही निकाय चुनाव में ताकत, लेकिन बेअसर

भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। मध्यप्रदेश ऐसा राज्य है जिस पर बहुजन समाज पार्टी से लेकर सपा तक की नजर बीते दो दशक से लगी हुई है, लेकिन यह दोनों दल तीसरी ताकत बनने के दावे के बीच अब तक अपना पुराना प्रदर्शन भी दोहराने में असफल रहे हैं। इस बीच अब प्रदेश में दो नए दल नगरीय निकाय चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने के लिए उतरे हैं।
इनमें आम आदमी पार्टी और अशुद्दीन औबेसी की पार्टी शामिल हैं। आप प्रदेश में राजनैतिक जमीन तलाशने के प्रयास में तो लगी है , लेकिन उसके पास ऐसा कोई चेहरा नही हैं जो मतदाताओं को लुभा सके। यही वजह है कि अब तक वह पूरी तरह से बेअसर साबित बनी हुई है। एक समय ऐसा भी आया जब सपा व बसपा के विधायकों की संख्या आधा दर्जन के आंकड़े को पार कर गई थी , लेकिन तब दोनों दलों की बारी-बारी से उप्र में सत्ता होने की वजह से मप्र पर ध्यान ही नहीं दिया गया , लिहाजा बनता हुआ कुनबा ऐसा बिखरा की अब प्रदेश मेंं इन दोनों ही दलों के इक्का दुक्का विधायक ही जीत पाते हैं। उनकी जीत भी पार्टी के प्रभाव की वजह अन्य कारणों से होती है। अब प्रदेश में निकाय चुनाव हो रहे हैं, लिहाजा यह दोनों ही दल इनमें दम मारने के प्रयासों में लगे हुए हैं , लेकिन संगठन बेहद कमजोर होने की वजह से वे सभी 16 नगर निगमों के लिए प्रत्याशियों तक की तलाश नही कर सके हैं।  प्रदेश के ग्वालियर, चंबल और विंध्य क्षेत्र में बसपा का प्रभाव रहा है। वर्तमान में बसपा के दो विधायक भी थे , लेकिन वे अब केसरिया बाना पहन चुके हैं। इसी तरह से सपा का एकमात्र विधायक भी भगवा रंग में रंग चुका है, जिसकी वजह से विधानसभा में भी अब इन दोनों ही दलों की उपस्थिति शून्य हो गई है। यह बात अलग है कि विधानसभा के उपचुनाव में बसपा ने जीत भले ही दर्ज न की हो मगर नतीजों पर असर डाला है, यही कारण है कि बसपा नगरीय निकाय के चुनावों को पूरी ताकत से लड़ने का दावा कर रही है। बसपा को ग्वालियर, चंबल, मालवा और बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों में अपने प्रभाव पर अब भी भरोसा बना हुआ है। जानकारों की माने तो नगर निगम और नगर पालिका क्षेत्रों में बसपा भले ही बेअसर साबित हो , लेकिन नगर पंचायतों के चुनाव में बसपा बड़ा असर डाल सकती है। उधर सपा का भी मप्र के कुछ उन सीमाई इलाकों में प्रभाव नजर आ सकता है जो उप्र की सीमा से सटे हुए हैं।
आप की परीक्षा
 ऐसे में आप पार्टी ने प्रदेश में अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने का काम शुरू किया है। सक्रिय तो आप प्रदेश में पहले से थी पर इस बार शहर सरकार के चुनाव में वह पूरी ताकत से मैदान में उतरी है। आप ने प्रदेश के आधा दर्जन शहरों में मेयर के पदों पर प्रत्याशी उतारे हैं , तो प्रदेश के अधिकांश जिलों में पार्षद पर भी उसके प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं।  देश की राजधानी दिल्ली के बाद पंजाब में सरकार बनाने और गोवा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद आप के हौसले बुलंद हैं। वह प्रदेश में तीसरी ताकत बनने की रणनीति पर काम कर रही है।
सालभर बाद होने वाले विधानसभा चुनावों पर उसकी नजर है। यही वजह है कि वह नगरीय निकाय चुनाव में प्रदेश के लगभग सभी शहरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है। आप ने इस बार इंदौर, मुरैना, ग्वालियर सागर, छिंदवाड़ा, जबलपुर सतना, कटनी और सिंगरौली में मेयर के लिए अपने प्रत्याशी उतारे हैं तो पार्षद पद के प्रत्याशी उसने जिलों समेत छोटे शहरों में भी उतारे हैं। भोपाल के 85 वार्डो में से करीब 75 पर उसके प्रत्याशी हैं तो इंदौर और अन्य शहरों में भी अधिकांश वार्डों में उसने प्रत्याशी उतारे हैं।
 इसके अलावा प्रदेश के सभी जिलों की नगरपालिकाओं समेत छोटे शहरों की नगरपरिषद में भी पार्षद पद के लिए उसके उम्मीदवार मैदान में हैं। आप के रणनीतिकारों का मानना है कि इन चुनावों में मिलने वाले वोट उसे विधानसभा चुनाव का आंकलन देंगे। आप अगर कुछ स्थानों पर जीत जाती है तो उसका पहली बार खाता प्रदेश में खुलेगा। दिलचस्प यह भी है कि बसपा और सपा की तरह आप ने भी भाजपा और कांग्रेस से टिकट न मिलने वाले लोगों पर ही दांव खेला है। ग्वालियर में उसकी मेयर प्रत्याशी रुचि गुप्ता कांग्रेस की बागी है। वहीं सिंगरौली में उसने रानी अग्रवाल को मैदान में उतारा है।
दो अंचलों में बसपा बिगाड़ सकती समीकरण
प्रदेश के 14 शहरों में मेयर का चुनाव लड़ रही बसपा ग्वालियर-चंबल में भाजपा और कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ सकती है। इन इलाकों में बसपा का प्रभाव काफी पहले से माना जाता है। सतना में कांग्रेस छोड़कर बसपा से चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री सईद अहमद ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है, वहीं मुरैना में आप की प्रत्याशी ममता मौर्य कांग्रेस की शारदा सोलंकी और भाजपा की मीना जाटव को कड़ी टक्कर दे रही हैं। यहां शारदा सोलंकी पिछला चुनाव काफी कम मार्जिन से हारी थी। जबलपुर में बसपा के लखन सिंह अहिरवार को मिलने वाले वोट भाजपा और कांग्रेस के जीत के समीकरण प्रभावित कर सकते हैं। वहीं यूपी से लगे विंध्य, ग्वालियर-चंबल और बुंदलेखंड में सपा का भी अपना वोट बैंक है। उसके प्रत्याशी भी पार्षद पदों में उलटफेर कर सकते हैं।
यह भी है कमजोर होने की वजह
दरअसल भाजपा ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की आखिरी उम्मीदें भी निकाय चुनाव होने से पहले ही खत्म कर दी थीं।  सपा और बसपा के विधायक बीजेपी में शामिल कर दोनों दलों को बड़ा झटका दिया है। जिस जातिगत समीकरणों से कभी समाजवादी पार्टी (सपा)और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उत्तर प्रदेश से सटे बुंदेलखंड, चंबल-ग्वालियर अंचल में सियासी जमीन तलाश कर जगह बनाने की कोशिश की थी, वही अब उनके लिए चुनौती बनकर उभर रहे हैं। वजह है विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि चेहरों का अभाव, वहीं भाजपा के कद्दावर नेताओं का प्रभाव। बसपा से ज्यादातर नेता पलायन कर चुके हैं, सपा में खींचतान चल रही है। कांग्रेस की इधर स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में भाजपा अपना किला मजबूत करने में सफल हो सकती है। जातिगत समीकरणों को देखें तो बुंदेलखंड क्षेत्र में गरीब वर्ग में अहिरवार और चंबल-ग्वालियर से लगे इलाके में सबसे ज्यादा वोट जाटव सहित अन्य अनुसूचित जातियों के हैं। इनका रुझान भाजपा की ओर बढ़ता रहा है।

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