- दिनेश निगम त्यागी

एक और कांग्रेस नेता की पब्लिक मीटिंग से तौबा….
कांग्रेस में अब तक एक वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ही ऐसे हैं जो पब्लिक मीटिंग के स्थान पर पार्टी नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की बैठकें लेने पर भरोसा करते हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे जनसभा में बोलेंगे तो कांग्रेस के वोट कट जाएंगे। एक वायरल वीडियो में खुद ऐसा कह कर वे ठहाका लगाकर हंसते दिखे थे। दिग्विजय लगातार दौरे पर हैं ,लेकिन कोई पब्लिक मीटिंग नहीं कर रहे हैं। कहते हैं इससे कांग्रेस को लाभ होता है। कांग्रेस के एक और बड़े नेता हैं अरुण यादव। उन्होंने भी कह दिया है कि आगे वे कोई पब्लिक मीटिंग नहीं करेंगे। इसकी बजाय वे कार्यकर्ताओंं की बैठकें लेंगे। दिग्विजय तक तो ठीक है। वे मंजे रणनीतिकार हैं, इसलिए काम का उनका तरीका अपनी जगह है, लेकिन अरुण यादव को यह घोषणा क्यों करना पड़ गई। पब्लिक मीटिंग में भीड़ की समस्या है, पार्टी नेतृत्व की ओर से उन्हें ऐसा कोई हिंट दिया गया है या फिर कोई और वजह है, यह वे ही बात सकते हैं। फिलहाल उनकी इस घोषणा से राजनीतिक अटकलों का बाजार गर्म है। लंबे समय से उनके और कमलनाथ के बीच संबंध मधुर नहीं रहे। अरुण के पिता स्वर्गीय सुभाष यादव से जुड़े कार्यक्रम में कमलनाथ के पहुंचने से ऐसा लगा था कि मतभेद सुलझ गए हैं। क्या ये सच है, कोई नहीं जानता।
कैलाश की नजर में भाजपा भी कांग्रेस जैसी….
कांग्रेस और भाजपा में अब कोई फर्क नहीं रहा। कांग्रेस के कई नेता कहते रहे हैं कि कांग्रेस एकजुट रहे तो उसे कोई नहीं हरा सकता। हां, कांग्रेस ही कांग्रेस को हरा सकती है। दिग्विजय सिंह प्रदेश के दौरे पर हैं और अब भी बैठकों में कह रहे हैं कि कांग्रेस को कांग्रेसी ही हराते हैं। कांग्रेस की यह बीमारी अब भाजपा में भी आ गई। लिहाजा, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने भी कह दिया कि कांग्रेस में भाजपा को हराने की हिम्मत नहीं, भाजपा ही भाजपा को हराती है। साफ है कि कांग्रेस की राजनीतिक बीमारी अब भाजपा के अंदर प्रवेश कर गई है। गुटबाजी के चलते जिस तरह पहले कांग्रेस के नेता पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ काम करते थे, भाजपा में भी अब वही होने लगा है। माना जाता था कि कांग्रेस में नेताओं का अपना वोट बैंक होता है। टिकट न मिलने पर वे अपना वोट किसी अन्य प्रत्याशी के पक्ष में डलवा देते थे। इसके विपरीत भाजपा के वोटर को ऐसा नहीं माना जाता। किसी नेता के कहने पर वह अपना मन नहीं बदलता और अपना वोट कमल के फूल को ही देता है। कैलाश के कथन से साफ है कि अब भाजपा बदल गई है। भाजपा में भी वह होने लगा जो कभी कांग्रेस में होता था। अर्थात भाजपा नेता चाहें तो पार्टी प्रत्याशी को हरवा सकते हैं। मतलब, यहां भी वोटर कमल के नहीं, नेताओं के हो गए हैं।
जाते-जाते भाजपा को राह दिखा गए दीपक…
पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी के कांग्रेस में जाने से भाजपा को कितना नुकसान होता है और कांग्रेस को कितना फायदा, यह बाद में पता चलेगा। फिलहाल वे जाते-जाते भाजपा नेतृत्व और कई अन्य नेताओं को राह जरूर दिखा गए। सबसे बड़ा असर यह हुआ कि भाजपा जिन नेताओं को तरजीह नहीं दे रही थी, उनकी पूछपरख होने लगी। इसीलिए वरिष्ठ नेताओं सत्यनारायण सत्तन, हिम्मत कोठारी और अनूप मिश्रा जैसे नेताओं को बुलाकर बात की गई। दूसरा असर यह कि जो नेता असंतोष के स्वर दबा कर बैठे थे, वे मुखर हो गए। भंवर सिंह शेखावत के बाद वरिष्ठ नेता कुसुम मेहदेले ने भी पार्टी नेतृत्व को आइना दिखा दिया। दीपक विजयवर्गीय के ट्वीट पढऩे लायक हैं। दीपक जोशी के जाने के बाद उन्होंने ट्वीट किया कि ‘जिम्मेदारों की बेहोशी और मदहोशी के कारण ही संकट पैदा होते हैं।’ दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा कि ‘कुछ तो वजहें जरूर होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।’ स्पष्ट है कि पार्टी के अंदर असंतोष और नाराजगी गहरे तक है। सत्तन, कोठारी और मिश्रा से बुलाकर बात की गई, ठीक है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। मेहदेले, शेखावत और विजयवर्गीय की तरह पार्टी के अंदर असंतुष्टों की फौज है, भाजपा नेतृत्व ने इस समस्या को कंट्रोल न किया तो चुनाव में लेने के देने पड़ सकते हैं।
धीरेंद्र शास्त्री जी! बचाईए खुद को इस चकाचौंध से…
छतरपुर जिले के बागेश्वर धाम प्रमुख आचार्य धीरेंद्र शास्त्री ने जितने कम समय में सोहरत की बुलंदियों को छुआ है, उसी तरह उनका विवादों से भी नाता रहा है। सच कहें तो शास्त्री जी में शिखर पर पहुचंने का दंभ दिखने लगा है, वे राजनीतिक चकाचौंध के आगोश में भी फंस रहे हैं। दंभोक्ति ऐसी कि वे किसी को भी चुनौती देते और मसल देने जैसी भाषा का इस्तेमाल करते नजर आते हैं। राजनीतिक चकाचौंध इसलिए ,क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे राजनेता उन्हें दंडवत कर उनके मंच से लोगों को संबोधित करने लगे हैं। उनके अनुयायी ही कहने लगे हैं कि एक कथावाचक, विद्वान के लिए ये ठीक नहीं। संत तुकाराम और भगवान सहस्त्रबाहु के लिए उनकी टिप्पणियां भी लोगों को पसंद नहीं आईं। इनके कारण समाज का एक बड़ा वर्ग गुस्से से भर गया। शास्त्री जी को इसके लिए बार-बार माफी मांगनी पड़ी। वे माने या न माने लेकिन एक दलित की शादी में उनके भाई द्वारा मचाए गए उत्पात, जमीन पर कब्जे को लेकर लोगों के विरोध, पिछड़े वर्ग के कुछ नेताओं द्वारा बेवजह उलझने जैसी घटनाओं के कारण भी शास्त्री जी की साख पर बट्टा लगा है। आचार्य जी को चाहिए कि वे विवादों में उलझने की बजाय अपने काम पर फोकस रखें। यही उनके भविष्य के लिए ठीक है।