- शीला मिश्रा

जेठ की तपती दोपहरी, आग बरसाता सूरज, गर्मी से त्रस्त जनता, झुलसे हुए पत्ते, ठूंठ बन गए पेड़, चुभती तीखी हवा, बच्चे बूढ़े जवान सब त्राहि माम.. त्राहि माम… पुकार उठते, तब अचानक चल उठती बयार, हाथों में हाथ डाले श्वेत बादल उमड़ते- घुमड़ते स्याह से होने लगते और…. बिजली की चमक, बादलों के गर्जन के साथ आ जाता सावन……..और ढोल ढमाकों के साथ बूंदें छम- छम -छम -छम धरती पर गिरने लगतीं …..प्रकृति निखरने लगती, पानी से धुले पत्ते मुस्कुरा उठते ……., उमंग- उत्साह लिये हवा नृत्य करने लगती……, पूरा का पूरा परिदृश्य एकदम से बदल जाता ……
वो गर्मी से भरी उकताहट, चिड़चिड़ाहट से मुख पर छाई मुर्दनी गायब हो उठती और सबके चेहरों पर छा जाती मुस्कान…., आंँखों में चमक….., मिलने- जुलने की ललक….और जीवन हो उठता खुशमय ……., बस यही है जीवन….!
कुछ भी स्थायी नहीं है। अगर दुख है तो, सुख भी आयेगा ही…., परिस्थितियां बदलेंगी….. मन को शांत रखना है। अपनी सोच को सकारात्मक रखना है और मन के सावन को हरा भरा बनाये रखना है । यही तो प्रकृति सिखाती है। जो हवा चुभती थी, वही सुखद बयार बन जाती है। जो पेड़ ठूंठ बन गये थे, वे हरे -भरे हो लहलहाने लगते हैं। जहां पंछी दुबके रहते थे, वहीं अब पंछियों के गुंजन से मधुरम संगीत- सा सुनाई देने लगता है । झुलसती गर्मी से झुलसता मन अब मिट्टी की सौंधी महक से तरोताजा हो उठता है। बस….मन को समझाने के लिए प्रकृति की ओर देखिए ..पुराने पत्ते झड़ गये, नये पत्तों का आगमन हो गया …. जो पुराना हो गया, उसे तो जाना ही है …नया सृजित होगा । टूटना- बिखरना तो प्रकृति का नियम है …जो गया उसे जाने दो, बस उत्साह, उमंग, जोश को थामे रखना है। कुछ नया रचने के लिए……यही जीवन का अर्थ है और जिसने यह अर्थ समझ लिया मानो सुखी रहने मूल मंत्र पा लिया।
(लेखिका साहित्यकार हैं)