क्या मप्र में भी युवाओं को भत्ता देगी सरकार

  • चुनावी साल में लॉलीपॉप देने की तैयारी…

भोपाल/अपूर्व चतुर्वेदी/बिच्छू डॉट कॉम। भले ही अब छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन चुका है, लेकिन आज भी छग व मप्र में होने वाले निर्णयों से दोनों राज्यों की सियासत प्रभावित होती है। इसकी वजह है दोनों ही राज्यों के मतदाताओं की सोच से लेकर एक जैसे विचार होना। दरअसल आज का छत्तीसगढ़ की भले ही अलग राज्य है, लेकिन उसका गठन मप्र से अलग होकर ही हुआ है। इसकी वजह से आज भी एक दूसरे राज्यों के निर्णय दोनों राज्यों पर प्रभावशील बने रहते हैं। इनमें सियासी से लेकर प्रशासनिक ही नहीं सरकारी योजनाओं का भी प्रभाव देखा जाता है। दोनों राज्यों की सीेमाएं एक होने और सीमावर्ती जिलों में एक दूसरे से जुड़ाव की वजह से मतदान का असर भी एक जैसा ही दिखता है। इसकी वजह है दोनों राज्यों के सीमावर्ती जिलों का आदिवासी बाहुल होना। इन दोनों ही राज्यों में विधानसभा चुनाव भी एक ही साथ होते हैं और परिणाम भी लगभग एक जैसे ही होते हैं। इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले छग की भूपेश सरकार ने बेरोजगारों के लिए दो साल तक ढाई हजार रुपये प्रतिमाह भत्ता देने की घोषणा की है, जिसका प्रभाव मध्य प्रदेश के उन जिलों पर पड़ने की संभावना है, जो छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे हुए हैं। इसकी वजह से अब प्रदेश सरकार पर भी इसके लिए दबाब बनता दिख रहा है। दरअसल मप्र में 38 लाख 93 हजार 149 पंजीकृत बेरोजगार हैं। जाहिर है कि कांग्रेस, छत्तीसगढ़ के बेरोजगारी भत्ता सहित गाय-गोबर, गौठान और अन्य वर्ग की कल्याणकारी योजनाओं को मध्य प्रदेश में चुनाव के समय मॉडल के रूप में पेश करेगी। दरअसल, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तासीर में समानता के चलते मतदान का ट्रेंड भी एक जैसा ही रहता है।
इस तरह की रही है भूमिका
 मप्र के विधानसभा चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने वाले आदिवासी वर्ग को ही लें , तो स्पष्ट है कि 1990 में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भाजपा को सफलता मिली तो सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा सरकार को मौका मिला। इस वर्ग ने रुख बदला तो 1993 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। करीब 10 साल तक आदिवासी वर्ग कांग्रेस के साथ रहा, लेकिन 2003 में आदिवासी वर्ग ने भाजपा का साथ दिया, नतीजा रहा कि कांग्रेस सत्ता से विदा हो गई। इसी साल छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी भाजपा के साथ हो गए, जिससे 90 में से 50 सीटें भाजपा को मिलीं। वोट शेयर 39.3 प्रतिशत था। आदिवासी वर्ग कुछ आंकड़ों में हेरफेर के साथ 2008 और 2013 में दोनों राज्यों में भाजपा के साथ बना रहा। 2008 में छग में भाजपा की 50 सीटें आईं और वोट शेयर बढ़कर 40.3 प्रतिशत हो गया, वहीं मप्र में 143 सीटें मिलीं। 2013 के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी वर्ग ने दोनों राज्यों में भाजपा का साथ दिया। छग में एक सीट कम होकर आंकड़ा 49 हो गया, लेकिन वोट शेयर बढ़कर 42.3 प्रतिशत हो गया था, जबकि मप्र में 165 सीटों पर भाजपा को जीत मिली।
दोनों राज्यों में बदल गई सरकार
2018 में दोनों राज्यों में आदिवासी वर्ग का भाजपा से मोहभंग होकर कांग्रेस की तरफ रुख हुआ, तो दोनों राज्यों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई। छग में भाजपा को महज 15 सीटें ही मिल सकीं और उसका मतदान प्रतिशत 33.6 रह गया। इसी तरह से मप्र में भाजपा को आदिवासी प्रभाव वाली आधी सीटों का नुकसान हो गया, तो वहीं कांग्रेस की सीटें दोगुनी हो गईं। आंकड़ों को देखें तो आदिवासी प्रभाव वाली भाजपा की 32 सीटों की संख्या कम होकर 16 रह गईं, जबकि कांग्रेस 14 से 30 पर पहुंच गई थी। प्रदेश में इस वर्ग की आरक्षित सीटें 47 हैं। सामान्य की कुछ सीटें ऐसी भी हैं, जहां आदिवासी मतदाता निर्णायक की भूमिका में है। 15 वर्ष बाद दोनों राज्यों के मतदाताओं ने मन बदला तो दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई थी।

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