तन नहीं मन से भी भीगें

  • शीला मिश्रा
मन से भी भीगें

इस बरसात के मौसम में किसका भीगने का मन नहीं करता। हल्की-फुल्की फुहार में थोड़ा सा भीग जाएं तो मन कितना खुश हो जाता है। उसके बाद गरम-गरम चाय- कॉफी या गर्मागर्म पकौड़े मिल जायें तो मानो दिन बन जाता है। कभी सोचा है आपने .. हल्की सी फुहार से मन कितना खुश हो जाता है। पूरे नौ-दस महीने हम इस  फुहार का इंतजार करते हैं और फिर इन नन्ही-नन्ही बूंँदों का आनंद लेते हुए आनंद के रस में डूब जाते हैं। यह रस से निकला आनंद हमें कितनी खुशी देता है। यह रस ही तो जीवन की ऊर्जा है चाहे भोजन से मिलने वाला रस हो या पेय पदार्थ से मिलने वाला रस हो, चाहे तन के भीगने का रस हो चाहे मन से भीगने का। सोच में पड़ गए ना आप ….,मन से भीगने का क्या तात्पर्य है ?
आजकल कौन और कितना मन से भीग पाता है….?  इस भागमभाग वाली जिंदगी में सब अपने में इतने व्यस्त हैं कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा, किसी का गम, किसी के मन में चल रही असमंजस- कशमकश-ऊहापोह-परेशानी-द्वन्द्व को कहाँ कोई समझ पा रहा है। इसीलिए तो आए दिन सुनने में आता है, चाहे बच्चे हों, युवा हों, वयस्क हों या बुजुर्ग; आत्महत्या कर रहे हैं और इसके  साथ ही हत्या जैसा संगीन अपराध भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इसकी तह में जाएं तो यही सामने आएगा कि समाज में, परिवार में रहते हुए भी व्यक्ति अकेला है। अपनों के बीच बढ़ती संवादहीनता धीरे-धीरे भावशून्यता में बदलती जा रही है। अब अपनों का दुख किसी को नहीं सालता … दूसरे के दुख से किसी की आँखें नहीं भीगतीं तो फिर मन भीगने का तो प्रश्न ही नहीं है।
अब इंसान अजीब-सी मनोस्थिति में जी रहा है…,जहाँ पूर्व में अपनों का संग-साथ ही खुशी का कारण रहता था ,वहीं अब अपनों को छोड़ व्यक्ति मशीनों में खुशी ढूँढ रहा है। सोशल मीडिया में खुशी तलाश रहा है और जब खुशी नहीं मिलती तो इस दुख में रोगग्रस्त हो जाता है। विडंबना यह है कि न तो वह अपनों को कुछ बताता है और न ही अपने यह जानने की कोशिश करते हैं कि वह दुखी क्यों है।
ऐसा नहीं है कि पूर्व में सभी खुशहाल थे। बड़े से बड़ा दुख, अपनों का साथ पाकर कम हो जाता था। संयुक्त परिवार में किसी को थोड़ी सी भी परेशानी आई तो घर के बड़े आपस में सलाह-मशविरा करके कोई न कोई हल निकाल ही लेते थे। अगर परिवार संयुक्त नहीं है तो भी किसी की समस्या को सुनकर सब एक जगह एकत्रित होते थे और समाधान के लिए विचार -विमर्श करते थे। यहाँ तक कि गर्मी की छुट्टियों में जब पूरा परिवार दादा-दादी या नाना-नानी के यहाँ इक_ा होता था तो बच्चे अपनी मस्ती में मगन हो जाते थे और घर के बड़े -बुजुर्ग परिवार के किसी भी सदस्य को कोई समस्या हो तो उस पर मंथन करने बैठ  जाते थे और अंत में समस्या को जड़ से खत्म करके ही चैन पाते थे। ये है परिवार की ताकत .. ये है एकता की ताकत …
काश आज की पीढ़ी इस अपनेपन की ताकत को समझे व महसूस करे। प्रत्येक परिवार दिन में दस मिनट से लेकर आधे घंटे का समय अपनी परेशानियों व समस्याओं को साझा करने में बिताएं। अगर रोज संभव नहीं है तो प्रत्येक रविवार को एक घंटे का समय टी.वी. व मोबाइल से दूर रहते हुए आपसी बातचीत में  बिताएं।यह संवाद अपनों को समझने का व समझाने का सबसे  अच्छा तरीका है। जब संवाद बढ़ेगा तो एक -दूसरे के मन के भावों को व्यक्ति बिना बोले बिना बताए भी समझने लगेगा। फिर अपनों की परेशानी में उसका मन भीगने लगेगा। जब मन भीगेगा तो निश्चित ही वह उसकी परेशानी को दूर करने का प्रयास करेगा।
अगर ऐसा हो गया तो निराशा, तनाव,अवसाद, बेबसी, कुंठा जैसे भाव मन में पनपने ही नहीं पायेंगे। फिर न कोई पिता अपनी  पुत्री की हत्या करेगा और न ही कोई लडक़ी अपरिचितों के ताने सुनकर आत्महत्या करेगी और न ही कोई युवा अपनी पत्नी की प्रताडऩा से तंग आकर जीवन त्यागने का विचार करेगा और न ही आर्थिक परेशानी से त्रस्त  होकर पूरा का पूरा परिवार प्राण त्यागने का विचार करेगा।
समाज व परिवार की अवधारणा का मुख्य ध्येय हमारे  पुरखों ने भावनात्मक व आर्थिक संरक्षण ही रखा था। अब हमें पुन: अपने पुरखों द्वारा निर्धारित की गई राह पर चलकर संवादहीनता व भावशून्यता को समाप्त करने के लिए  प्रयास करने होंगे। तो इस पावस में केवल तन से नहीं भींगें अपितु अपनों की भावनाओं को महसूसते हुए मन से भीगने का प्रयास करें।        

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