मन टटोलने का थर्मामीटर होते हैं स्थानीय चुनाव

  • अरुण पटेल
 स्थानीय चुनाव

मध्यप्रदेश में नगरीय निकायों एवं पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों की रणभेरी अंतत: बज चुकी है और पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव प्रचार अभियान प्रारम्भ हो गया है। मतदाताओं का मन टटोलने का थर्मामीटर होते हैं स्थानीय चुनाव। नगरीय निकाय संस्थाओं में नामजदगी पर्चे दाखिल करना भी प्रारंभ हो गया है। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव दलीय आधार पर नहीं होते हैं फिर भी इनके नतीजों से इस बात का पता चल ही जाता है कि आखिर ग्रामीण जनमानस का रुझान किस ओर है, क्योंकि निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में ही विभिन्न दलों से जुड़े ग्रामीण अंचलों के नेता व कार्यकर्ता चुनावी समर में रहते हैं। नगरीय निकायों में किस दल को मतदाता कितना पसंद करते हैं यह नतीजों से साफ हो जाता है  क्योंकि हर चीज सामने साफ रहती है। लेकिन पंचायती राज संस्थाओं में राजनीतिक दलों को बढ़-चढ़ कर दावे करने का अवसर मिल जाता है। कांग्रेस हमेशा अंतिम समय तक अपने उम्मीदवार नगरीय निकायों के लिए खोजने की उहापोह में उलझी रहती थी जबकि इस बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने अधिकांश नगर निगमों के उम्मीदवारों के नामोें की घोषणा कर इस मामले में भाजपा को पीछे छोड़ दिया है, क्योंकि वहां अभी दावेदारों द्वारा केवल दबाव बनाया जा रहा है और चेहरे साफ होने में एक-दो दिन का समय और लगेगा। जहां तक नगर निगमों का सवाल है इन चुनावों में भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है क्योंकि सभी नगर निगमों में उसी का कब्जा रहा है।  जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसके पास इसमें खोने को कुछ नहीं है लेकिन यदि कुछ मिलता है तो वह उसकी उपलब्धि ही होगी।
कांग्रेस प्रत्याशियों के चयन के साथ ही ऐसी रणनीति बना रही है जिससे कि उसे इन चुनावों के साथ ही 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में इसका फायदा मिल सके।  नगरीय निकायों के लिए नामांकन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी है लेकिन अभी भी उम्मीदवारों के चेहरे साफ होने में कुछ समय लग सकता है। हालांकि कांग्रेस ने 16 में से 15 नगर निगमों के लिए अपने महापौर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है, जबकि भाजपा में अभी विचार-मंथन ही चल रहा है। रतलाम नगर निगम में कांग्रेस प्रत्याशी को लेकर जरुर पेंच फंस गया है क्योंकि यहां पर कमलनाथ के सर्वे में अलग नाम आया है जबकि कांतिलाल भूरिया जो कि पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं उनकी पसंद अलग है तो उनके बेटे तथा प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रान्त भूरिया की पसंद भी अलग है। जहां तक भाजपा का सवाल है वह चाहती है कि उसके प्रत्याशी इस बार परिवारवाद के साये से मुक्त हों तथा जो भी पार्टी के लिए सक्रिय हैं उन्हें ही मौका दिया जाए। चूंकि पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव दलीय आधार पर नहीं हो रहे इसलिए वहां पर भाजपा नेताओं के नाते- रिश्तेदार जरुर चुनावी मैदान में उतरे हैं। देखने वाली बात यही होगी कि नगरीय निकायों में भाजपा के प्रयास कितना परवान चढ़ पाते हैं। नेता पुत्रों के टिकट के सवाल पर केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक बड़ा बयान देते हुए साफ किया है कि सिंधिया परिवार के अंतर्गत राजनीति में परिवार का एक ही व्यक्ति रहता है और मेरे परिवार में यह नियम पिछले 40 सालों से लागू है। उनका कहना था कि भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का यह कदम सही है और सभी को मौका मिलना चाहिए। परिवार का एक सदस्य ही राजनीति में होना चाहिए जो  काफी है। इसके साथ ही फिलहाल सिंधिया के बेटे आर्यमन सिंधिया की क्रिकेट के बाद जल्द ही राजनीति में आने की अटकलों पर फिलहाल उन्होंने विराम लगा दिया है।  राजनीतिक गलियारों में यह माना जा रहा था कि 2023 के चुनाव में आर्यमन सिंधिया राजनीति में उतर सकते हैं। मध्यप्रदेश में अनेक नेता पुत्र चुनावी राजनीति में उतरने के लिए उतावले हैं, लेकिन देखने वाली बात यही होगी कि क्या पिता-पुत्र की जोड़ी एक साथ राजनीति में रहेगी या किसी एक को चुनावी राजनीति से तौबा करना होगा।
नगरीय निकाय और पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही गंभीर हैं तो वहीं इन चुनावों में अपना जनाधार तलाशने के लिए समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी भी ताकत लगा रही हैं। आम आदमी पार्टी की इच्छा 2023 के विधानसभा चुनावों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराने की है और इसके लिए वह भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं पर निगाह गड़ाए हुए है ताकि कोई एक ऐसा चेहरा ढूंढ सके जिसे वह भावी मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाकर चुनाव मैदान में जा सके। इस दल से अभी तक कोई बड़ा चेहरा नहीं जुड़ा है इसलिए अपनी धमक जमाने के लिए उसे फिलहाल एक अदद चेहरे की तलाश है और वह चेहरा कौन होगा इस पर ही उसकी भविष्य की चुनावी संभावनायें टिकी हुई हैं। प्रत्याशी चयन में भाजपा को अधिक मशक्कत करना पड़ रही है क्योंकि वह नये चेहरों को ज्यादा अवसर देना चाहती है जबकि कांग्रेस ने अपने विधायकों पर भी दांव लगाने से परहेज नहीं किया है। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव में इस बात के प्रयास हुए कि निर्विरोध निर्वाचन की स्थिति आये और कुछ जगहों पर इसमें सफलता मिली है। पंचायत चुनाव में इस बार उम्मीदवारों की संख्या में कुछ कमी देखी गयी है उसका एक कारण यह है कि चुनाव लड़ने के पूर्व नोड्यूज भी मांगे गये थे और कई के बिजली बिल इतने अधिक थे कि वे भर नहीं पा रहे थे और बाद में चुनावी खर्च को देखते हुए प्रत्याशी चुनावी मैदान से हट गए। कुछ पंचायतों ने समरस पंचायत बनाने की पहल की तथा निर्विरोध निर्वाचन कराकर सरकार से पुरस्कार की राशि प्राप्त करना बेहतर समझा और इस राशि से पंचायत का विकास करना बेहतर माना। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांवों से लेकर शहर तक इन दिनों प्रदेश में चुनावी फिजा बनी हुई है।
-लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं

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