दोनों पार्टी की रणनीति में खोट

विधानसभा

मिशन 2023 का घमासान आसान नहीं….

हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। हिमाचल प्रदेश, गुजरात विधानसभा के साथ ही दिल्ली एमसीडी चुनावों के परिणाम ने संकेत दे दिया है कि इस साल मप्र सहित 10 राज्यों (जम्मू-कश्मीर में चुनाव होते हैं तो)में होने वाला चुनावी घमासान किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा। यानी कांग्रेस केवल एंटी इंकम्बेंसी और भाजपा मोदी लहर के भरोसे चुनाव नहीं जीत सकती। इसके लिए स्थानीय मुद्दों को महत्व देना होगा। साथ ही रणनीति बदलकर चुनावी मैदान में काम करना होगा।
मप्र में विधानसभा चुनाव होने में अब 10 महीने से भी कम का समय रह गया है। ऐसे में प्रदेश का राजनैतिक माहौल गर्म होने लगा हैं, तो वहीं राजनैतिक दल भी अपनी-अपनी चुनावी रणनीतियां तय करने में जुट गए हैं। हालांकि सत्ता की चाबी जनता किसे सौंपने वाली है ये तो भविष्य ही बताएगा लेकिन एक बात तय है कि 2023 का चुनावी मुकाबला आसान नहीं होने वाला है। मैदान में भाजपा पूरी शक्ति के साथ  उतरेगी जैसा कि वह हर चुनाव में करती है लेकिन कांग्रेस भी इस बार जोरदार तैयारी कर रही है।
2018 व 2020 के चुनाव को समझना होगा
दरअसल, 2023 के अंत में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और अटकलों से परे मध्यप्रदेश की राजनीति को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि भाजपा हमेशा से कांग्रेस पर भारी रही है। 2018 को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में पिछले 15 साल से भाजपा का शासन है। हालांकि, चौथी बार भी शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। हाल की बात करें तो अभी भाजपा की स्थिति मजबूत है और आने वाले विधानसभा चुनाव को वह जीतती ही दिख रही है। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं इसे जानने और मध्य प्रदेश में आने वाले 2023 के विधानसभा चुनाव को समझने के लिए वहां के सीटों का समीकरण और 2018 व 2020 के चुनाव को समझना होगा। राज्य में कुल 230 विधानसभा सीटें हैं जिसमें से अभी भाजपा के पास 127, कांग्रेस के पास 96 और बसपा के पास 2 सीटें हैं। लेकिन 2018 में ये आंकड़े कुछ अलग थे, 2018 में लगभग डेढ़ दशक बाद जनता ने कांग्रेस को 114 सीटों के साथ बहुमत से सिर्फ एक सीट कम दी थी, वहीं भाजपा को 109 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने बसपा और निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर सरकार तो बना ली लेकिन ज्यादा दिन चला न सकी, क्योंकि कांग्रेस की आपसी गुटबाजी ने चंबल संभाग के क्षेत्र में पकड़ रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को अलग-थलग करने का प्रयास किया लेकिन सिंधिया ने कांग्रेस को ही तोड़ दिया। सिंधिया कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए और अपने साथ 22 विधायकों को ले गए जिसके बाद कांग्रेस की सरकार अल्पमत में पहुंच गई। इसके बाद कुल 28 सीटों पर नवंबर 2020 में उप चुनाव हुए थे जिसमें से 19 सीटें भाजपा के खाते में और 9 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। 2020 के उपचुनाव के बाद पुन: शिवराज सिंह चौहान की वापसी हुई। देखा जाए तो 2018 में भाजपा सरकार बनाने से कुछ ही दूर थी लेकिन उसने अंतत: 2020 में सरकार बना ही ली। यहां एक बात गौर करने योग्य यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद चंबल संभाग की सीटों पर भाजपा की पकड़ और मजबूत हो गई है जिसका लाभ आने वाले समय में देखने के लिए भी मिलेगा।
लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकजुटता
इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव विपक्षी एकता की तस्वीर भी साफ कर देंगे। देश में 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी के सामने विकल्प पेश करने की कोशिशें लंबे समय से होती रही हैं। एक स्वाभाविक विकल्प कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का है। नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और केसीआर विपक्षी एकता की कवायद में लगातार जुटे हैं। लोकसभा चुनावों में भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष के क्षेत्रीय क्षत्रप इस कुनबे में आप और कांग्रेस को भी लाना चाह रहे हैं, ताकि भाजपा के खिलाफ वोट न बंट सकें। लेकिन, गुजरात में आप को मिले वोट से पार्टी की महत्वाकांक्षा बढ़ गई है। ऐसे में पार्टी कांग्रेस के साथ लोकसभा चुनाव में एक मंच पर आएगी या नहीं, इस पर संशय है। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), जो अब भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) है, तेलंगाना में सरकार बचाने की कोशिश करेगी। यहां के मुख्यमंत्री केसीआर बड़ी जीत हासिल करके खुद को राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं।
एमएनएफ, एनडीपीपी व एनपीपी के लिए भी यह साल महत्वपूर्ण है। मेघालय, मिजोरम और नागालैंड जैसे राज्यों में पार्टी से ज्यादा उम्मीदवार मायने रखता है। क्षेत्रीय दलों के लिए 2023 में यहां जीतने का अच्छा अवसर है। अगर मेघालय में एनपीपी और नगालैंड में एनडीपीपी का भाजपा के साथ गठबंधन कायम रहा तो वे जीत दर्ज करके राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के पक्ष में माहौल बना सकती हैं।
2024 पर कितना पड़ेगा असर
गौरतलब है की इस साल 9 राज्यों मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड व मिजोरम में चुनावी मुकाबले होने हैं। अगर जम्मू-कश्मीर को भी जोड़ लें तो आंकड़ा 10 हो जाता है। इन राज्यों के नतीजे 2024 के लोकसभा चुनाव में मनोवैज्ञानिक बढ़त के काम आएंगे। हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता कि 2023 के रिजल्ट 2024 के समीकरण तय करेंगे। क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों का लोकसभा चुनाव पर मामूली असर ही दिखा है। 2018 में कांग्रेस ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव जीते, लेकिन 2019 के लोकसभा में भाजपा ने इन राज्यों में लगभग हर सीट जीत ली। ठीक ऐसा ही ट्रेंड दिल्ली में भी था। आने वाले विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद अहम हैं। कांग्रेस हाल ही में हिमाचल में जीती है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वापसी की उम्मीद लगाए बैठी है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस पूरा दम लगाएगी। क्योंकि कर्नाटक में भाजपा अंतर्कलह से जूझ रही है। मप्र में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को कांग्रेस भुनाना चाहेगी। मगर हाल में हुए गुजरात चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, जबकि वहां पार्टी 27 साल से सत्ता में है। ऐसे में कांग्रेस सिर्फ एंटी इंकम्बेंसी के भरोसे नहीं रह सकती।
भाजपा को सरकार बचाने की चुनौती
भाजपा के लिए इस साल होने वाले चुनाव खास हैं, क्योंकि उसे 5 राज्यों में सरकार बचानी है। मप्र, त्रिपुरा और कर्नाटक में भाजपा अपने दम पर जबकि नगालैंड में नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार चला रही है। भाजपा इससे खुश हो सकती है कि 2022 में उसने 5 राज्यों (यूपी, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और गुजरात) के चुनाव जीते हैं। मगर इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि यहां पीएम नरेंद्र मोदी का जादू ही चला है। लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे कहता है कि इन राज्यों में 5 साल में बेरोजगारी व महंगाई तेजी से बढ़ी। औसतन 75 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी और 85 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने बढ़ती कीमतों की बात मानी है। इसके बावजूद लोगों ने भाजपा को वोट दिया, क्योंकि अब भी पीएम मोदी पर उनका भरोसा कायम है। मगर यह भी सच है कि विधानसभा चुनाव में स्थानीय फैक्टर ज्यादा मायने रखते हैं। यही वजह रही कि जिन राज्यों में अंदरूनी कलह हावी रही, वहां भाजपा को चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे इसका उदाहरण हैं।

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