- कांग्रेस को फिर प्रदेश में सत्तारूढ़ होने की उम्मीद बंधी
- गौरव चौहान

मप्र की राजनीति में ग्वालियर-चंबल का बड़ा महत्व रहा है। कहा जाता है कि जिसने बीहड़ को साध लिया उसकी सरकार बनना तय है। अपनों की बगावत के बाद सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस इस बार बीहड़ के रास्ते सरकार बनाने की रणनीति पर काम कर रही है। पार्टी की कोशिश है कि ग्वालियर-चंबल अंचल में आने वाली सभी 34 सीटों को जीता जाए। इसके लिए पार्टी ने अपना पूरा फोकस इस क्षेत्र पर लगा दिया है। दरअसल, कांग्रेस के आतंरिक और सरकार की खुफिया एजेंसियों के सर्वे से मिले फीडबैक से प्रदेश कांग्रेस के मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ उत्साहित हैं। कांग्रेस को फिर ग्वालियर-चंबल के रास्ते से प्रदेश में सत्तारूढ़ होने की उम्मीद बंधी है। यही कारण है कि नाथ ने दिग्विजय सिंह को किनारे कर ग्वालियर-चंबल अंचल में कमान संभाल ली है। दोनों अंचलों से जुड़े निर्णय स्वयं ले रहे हैं और स्थानीय नेताओं से सीधे संवाद भी कर रहे हैं। दिग्विजय की सक्रियता ने भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी है।
कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि इस बार ग्वालियर-अंचल क्षेत्र में कांग्रेस बड़ी जीत की तैयारी में है। गौरतलब है कि भाजपा के आधार स्तंभ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और राजमाता विजयराजे सिंधिया ने पार्टी को मजबूत आधार प्रदान किया था। पितृ पुरुष कुशभाऊ ठाकरे ने भी संगठन को मजबूती प्रदान करने में अथक परिश्रम किया था। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सेंध लगाने में कामयाब हुई। इस चुनाव में कांग्रेस को दोनों अंचलों में व्यापक जनसमर्थन मिला। इसी का नतीजा था कि कांग्रेस 34 विधानसभा सीटों में 27 सीटें जीतने में कामयाब रही और भाजपा को केवल सात सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसी कारण उसे सत्ता से बाहर भी होना पड़ा। एक सीट बसपा के खाते में गई थी, जबकि 2013 के विस चुनाव के नतीजे ठीक विपरीत थे। इस चुनाव में 20 सीटें भाजपा ने जीती थी और 12 सीटों पर जीत कांग्रेस के खाते में आई थी। दो सीटों पर बसपा उम्मीदवार जीते थे , जिसकी वजह से ही भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला था।
इस बार होगा असली मुकाबला
कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि इस बार ग्वालियर-अंचल क्षेत्र में कांग्रेस बड़ी जीत की तैयारी में है। उधर भाजपा की तरफ से सिंधिया मोर्चे पर सबसे आगे रहेंगे। इससे हालात ऐसे बन चुके हैं कि ग्वालियर-चंबल से भाजपा और कांग्रेस के कई दिग्गज नेता होने के बावजूद विधानसभा चुनाव में मुकाबला राजा और महाराजा के बीच ही होने की संभावनाएं बनती दिखाई दे रही हैं। भाजपा की तरफ से ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़ा चेहरा हैं, तो कांग्रेस ने सिंधिया के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को उतार दिया है। दिग्विजय सिंह ने अंचल में कई दिन बिताकर रणनीति भी बनाई है। भाजपा भले ही समरसता का दावा करे, लेकिन ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस से आए नेताओं के कारण दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। पार्टी के मूल नेता और कार्यकर्ता नाराज बताए जा रहे हैं। सिंधिया समर्थकों और पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय परवान नहीं चढ़ पाया है। इसी का नतीजा रहा कि पार्टी ग्वालियर में 57 साल बाद महापौर का चुनाव हार गई। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के लोकसभा क्षेत्र मुरैना में भी महापौर की कुर्सी भाजपा के हाथों से निकल गई। ग्वालियर-चंबल में 2018 से पहले हुए एट्रोसिटी आंदोलन का असर अब तक महसूस किया जा रहा है। जब मुकाबला सीधे कांग्रेस से होगा, तो इस मुद्दे से पार पाना महाराज के लिए भी बड़ी चुनौती होगा। भाजपा भूली नहीं है कि इसी मुद्दे पर एससी मतदाता पार्टी से दूर हुए थे और सत्ता का समीकरण बदल गया था।
भाजपा के दिग्गजों को घेरने की रणनीति
अगर ग्वालियर-चंबल के राजनीतिक परिदृश्य को देखा जाए तो इस क्षेत्र में भाजपा के पास दिग्गज नेताओं की फौज है। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भाजपा के दिग्गजों को उनके ही क्षेत्र में सीमित रखने के लिए दिग्विजय सिंह को मोर्चे पर उतार दिया है। ऐसे में माना जा रहा है कि अंचल में यह पहला चुनाव होगा, जब कांग्रेस भी पूरी एकजुटता के साथ भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ेगी, वरना अब तक दिग्विजय और सिंधिया की कांग्रेस आपस में ही लडक़र एक-दूसरे को निपटा देती थी। इस अंचल में विधानसभा की 34 सीटें हैं, जो अगली सरकार बनाने में अहम भूमिका अदा करेंगी। दरअसल, चुनाव में तमाम मुद्दों और समीकरणों के साथ सियासी अदावत भी अहम है। ग्वालियर-चंबल ही वह क्षेत्र है, जिसमें बड़ी संख्या में विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी और वर्ष 2020 में प्रदेश में फिर से भाजपा की सरकार बन गई। उपचुनाव में अधिकांश को भाजपा ने टिकट दिया और वह फिर विधायक चुने गए। उपचुनाव में सर्वाधिक 16 सीटें ग्वालियर-चंबल की थीं, जिसमें भाजपा के पास 10 सीटें ही आई थीं। जबकि छह सीटों पर कांग्रेस जीती थी। इमरती देवी, एंदल सिंह कंसाना और गिर्राज दंडोतिया चुनाव हार गए थे। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि दिग्विजय सिंह ने खुद पर लगे मिस्टर बंटाधार के टैग को अब खत्म कर लिया है। इसी टैग के साथ अब वो खुद को विपक्षी दलों का पंचिंग बैग भी बताने लगे हैं। वैसे तो वे मुस्कुराते हुए ही चुनावी चालें चलते हैं। कैबिनेट मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया की कार्यकर्ताओं के बीच उनकी पकड़ और संगठन गढऩे की क्षमता पर कोई शक नहीं किया जा सकता। 2018 में कांग्रेस की जीत का सेहरा कमलनाथ के सिर सजा, पोस्टर बॉय बने ज्योतिरादित्य सिंधिया। दिग्विजय सिंह मंच के नीचे ही बैठे। इसका ये मतलब नहीं था कि वो जीत के भागीदार नहीं थे। राजनीतिक विश्लेषकों ने भी यही दावा किया था कि उस वक्त भी दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा ने कांग्रेस को मजबूत किया था।