
– मिशन 2023 के लिए सभी मोर्चों पर किलेबंदी
पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव के संपन्न होने के बाद भाजपा और कांग्रेस का पूरा फोकस मिशन 2023 पर हो गया है। मतदाताओं को साधने के लिए दोनों पार्टियां रणनीति बनाने में जुट गई हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में 51 फीसदी वोट पाने के लिए भाजपा का पूरा फोकस 1-1 वोट पर है। यानी पार्टी हर वर्ग को साधने में जुटी हुई है। खासकर ओबीसी और एससी-एसटी पर पार्टी का पूरा फोकस है।
गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम/भोपाल (डीएनएन)। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से अधिक वोट पाने के बाद भी सत्ता से दूर रही भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव के लिए एक-एक वोट पर फोकस कर रही है। इसके लिए पार्टी ने रणनीति बनाकर नेताओं को मोर्चे पर तैनात करना शुरू कर दिया है। उधर, पंचायत और निकाय चुनाव के परिणाम की समीक्षा के बाद संघ, संगठन और सरकार ने कमजोर प्रदर्शन वाले क्षेत्रों में जमावट शुरू कर दी है। यही नहीं विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा अपने सभी मोर्चों को सक्रिय कर आगामी रणनीति को लेकर प्रशिक्षित करेगी। हर मोर्चे पर भाजपा मप्र की किलेबंदी करेगी। हर वर्ग को साधने के लिए भाजपा ने सबका साथ सबका विकास की रणनीति को आगे बढ़ाने की नीति पर काम करना शुरू कर दिया है। हर मोर्चे के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर पार्टी की रीति और नीति के हिसाब से व्यूह रचना की जाएगी।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा सत्ता और संगठन के बीच समन्वय बनाकर मिशन 2023 को धार दे रहे हैं। पार्टी ने हर मोर्चे को मिशन की रणनीति सौंप दी है। इसके तहत युवाओं, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और ओबीसी वर्ग पर सबसे अधिक फोकस करना है। इसके लिए आने वाले दिनों में सत्ता और संगठन मिलकर इन वर्गों के लिए कार्यक्रम आयोजित करेंगे। ताकि आगामी विधानसभा चुनाव से पहले हर वर्ग का भरपूर समर्थन मिल सके।
51 फीसदी वोट का लक्ष्य
भाजपा ने विधानसभा चुनाव 2023 में 51 फीसदी वोट पाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए पार्टी का फोकस आदिवासी और ओबीसी वोट बैंक पर है। हालांकि भाजपा के साथ कांग्रेस भी इस वोट बैंक के लिए प्रयास कर रही है। मप्र के 22 फीसदी आदिवासियों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने जमावट शुरू कर दी है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि प्रदेश में आदिवासी जिस ओर रहते हैं, उसी पार्टी की सरकार बनती है। 2018 में आदिवासियों ने कांग्रेस पर विश्वास जताया था। ऐेसे में मिशन 2023 से पहले भाजपा और कांग्रेस की कोशिश है कि आदिवासी वोट बैंक को अपने पाले में लाया जाए। भाजपा की तरफ से संघ, संगठन और सरकार सक्रिय हो गई है। वहीं कांग्रेस ने भी तैयारी शुरू कर दी है। मप्र की सियासत में अभी तक का गणित कहता है कि प्रदेश की इस 22 प्रतिशत आबादी को जिसने साध लिया, सरकार उसी की बनती है। प्रदेश में अजजा के लिए आरक्षित 47 सीट हैं। इसके अलावा 35 सीट पर आदिवासी वोटर्स की संख्या 50 हजार से ज्यादा है। 82 सीट पर आदिवासी वोट अहम हैं। ऐसे में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर दो करोड़ आदिवासी वोटरों को साधने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने अभी से ताकत लगानी शुरू कर दी है। भाजपा में तीन मोर्चे संघ, संगठन और सरकार सक्रिय हैं तो कांग्रेस ने अपने आदिवासी नेताओं को मैदान में उतारा है।
भाजपा ने कांग्रेस सरकार को वर्ष 2003 में हिंदू संगम के बाद उखाड़ फेंका था। पार्टी ने 41 में से एकतरफा 37 सीट हथियाकर दो तिहाई बहुमत पाया था। भाजपा अब अजजा की आरक्षित 47 सीट में से 40 जीतने का लक्ष्य लेकर काम कर रही है। भाजपा ने सालभर के आयोजनों का कैलेंडर बनाया है। संघ लगातार सक्रिय है। सीएम शिवराज सिंह और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सक्रिय हो गए हैं। वहीं एक साल में भाजपा ने आदिवासी वर्ग में पैठ के लिए बड़े आयोजन किए। बिरसा मुंडा जयंती पर जनजातीय गौरव दिवस सम्मेलन हुआ। टंट्या मामा की शहादत दिवस पर अमृत महोत्सव मनाया। दो लाख आदिवासी भोपाल में एकत्र हुए। हबीबगंज स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति स्टेशन किया। टंट्या मामा की प्रतिमा लगाई गई है। गौरतलब है कि 2018 में कांग्रेस ने अजजा के लिए आरक्षित 47 में से 31 सीट जीती थी। इस वोट बैंक को सहेजने के लिए कांग्रेस ने आदिवासी नेताओं की टीम गठित की है। आदिवासी कांग्रेस का अध्यक्ष ओमकार सिंह मरकाम को बनाया गया है। मरकाम प्रदेश के 89 में से अधिकांश ब्लॉक में पहुंच चुके हैं। उनका कहना है कि आदिवासी वर्ग की कभी भाजपा हितैषी नहीं रही, जबकि कांग्रेस ने कल्याण के कई कदम उठाए। आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने के लिए मनमोहन सरकार ने 2006 में नियम बनाकर लागू किया, जिसे 16 साल बाद भी प्रदेश की भाजपा सरकार लागू नहीं कर पाई है। ये मुद्दे हम उठाएंगे। कमलनाथ सरकार ने आदिवासियों का साहूकारों से लिया गया कर्ज माफ करने की जो योजना बनाई थी, कांग्रेस सरकार आने पर उसके क्रियान्वयन का वादा पार्टी करेगी। दिग्विजय सिंह की दो बार सरकार बनाने में आदिवासियों की अहम भूमिका रही थी। 1993 में अजजा वर्ग की 52 और 1998 में 50 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं।
2023 की तैयारियों में जुटी दोनों पार्टियां
प्रदेश में पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव निपटने के बाद भाजपा और कांग्रेस मिशन मोड में नजर आने लगी है। दोनों पार्टियों का अगला टारगेट 2023 में होने वाला विधानसभा चुनाव है। ऐसे में दोनों पार्टियों ने पंचायत और निकाय चुनाव की समीक्षा कर संगठन और नेताओं पर नकेल कसने की तैयारी कर दी है। गौरतलब है कि उपरोक्त चुनावों में दोनों पार्टियों के संगठन में बिखराव और नेताओं में तालमेल का अभाव नजर आए। ऐसे में खामियों को दूर करने की कोशिश की जाएगी। गौरतलब है कि स्थानीय सरकार के चुनावों के बाद अब भाजपा और कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव 2023 के लिए बिसात बिछाने की शुरुआत कर दी है। भाजपा ने बूथ नेटवर्क को मजबूत करने के साथ ही भीतरी असंतोष को थामने कसावट का डोज देना तय किया है, तो कांग्रेस ने कोर-एरिया को और मजबूत करने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। उधर, पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव के जीते उम्मीदवारों का शपथग्रहण जारी है। इस बीच कुछ जगह से ऐसी तस्वीरें भी सामने आ रही हैं, जहां पत्नी की जगह पति हावी दिखाई दिए। इस कारण पार्टी की छवि खराब हुई है। अब पार्टी ऐसे नेताओं पर नकेल कसेगी।
इस बार विधानसभा चुनाव बेहद अहम माना जा रहा है कि ऐसे में सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस कोई मौका नहीं छोडऩा चाहती है। जहां भाजपा पंचायत और निकाय चुनाव की समीक्षा करके मैदानी मोर्चे पर सक्रिय होने जा रही है वहीं कांग्रेस भी कमलनाथ के नेतृत्व में लगातार कई बैठकें कर चुकी है। सूत्रों की माने तो इन कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले नेताओं को ही 2023 में विधानसभा के टिकट के लिए प्राथमिकता दी जाएगी। संगठन के कामकाज के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं को निर्देश दे दिए गए हैं, विधायकों को यह भी हिदायत दी गयी है कि क्षेत्र में जनता के बीच ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं और सरकार की रीति नीति लोगों तक पहुंचाने का काम करें, उनकी नाराजगी दूर करें। वहीं यह भी साफ कर दिया गया है कि संगठन के काम में पुअर परफॉर्मेंस करने वाले नेताओं पर पार्टी एक्शन लेगी। इस पूरी कवायद पर भाजपा नेताओं का कहना है कि बैठक, काम का वितरण और उसके बाद फीडबैक लेना भाजपा की कार्य पद्धति है। संगठन की ओर से सौंपे गए दायित्वों को सभी को पूरा करना है। यानि भाजपा 2023 के चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहती है।
हार वाले क्षेत्र में कसावट
प्रदेश भाजपा ने स्थानीय चुनाव के हिसाब से आकलन शुरू कर दिया है। कटनी, सीधी, सिंगरौली सहित कुछ जगहों पर परिणाम ठीक नहीं आने के बाद वरिष्ठ नेताओं की नजरें इन इलाकों को लेकर टेढ़ी हो गई हैं। क्षत्रप नेताओं को लेकर भी संगठन नाराज है, क्योंकि टिकट वितरण के समय इन क्षत्रपों ने ही दबाव बनाया था। इन इलाकों को लेकर संगठन कसावट की रणनीति तैयार कर रहा है। प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा आने वाले दिनों में इन इलाकों सहित दूसरे खराब परफॉर्मेंस वाले क्षेत्रों को लेकर कसावट पर काम करेंगे। जिन बूथों पर अच्छे वोट नहीं मिले हैं, उनको भी चिह्नांकित किया जा रहा है ताकि अलग से ध्यान दिया जा सके। मप्र में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस अब भाजपा से कदम से कदम मिलाकर मुकाबला करने को तैयार है। लेकिन इससे पहले पार्टी अपनी अंदरूनी खामियों को दूर करेंगी। राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग के खेल के बाद अब भाजपा की नजरें कांग्रेस के चुनिंदा विधायकों पर टिक गई है। इसमें मुख्य रूप से क्रॉस वोटिंग करने वाले आदिवासी विधायकों को रडार पर लिया गया है। इसमें अभी केवल बैकग्राउंड तैयारी हो रही है। प्रदेश कांग्रेस स्थानीय चुनाव में मतदान को लेकर उत्साहित है। पार्टी का मानना है कि उसे बहुमत मिला है, लेकिन जहां कम वोट प्रतिशत मिला वहां को लेकर रणनीति बनाई जा रही है। विधानसभा चुनाव के हिसाब से इन इलाकों पर संगठन को मजबूत करने की रणनीति बनने लगी है। ऐसे इलाकों में जिन विधायकों या पूर्व विधायकों ने पार्टी प्रत्याशियों का साथ नहीं दिया, उन्हें लेकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के स्तर पर नाराजगी है। इसे लेकर संगठन में आगे काम होगा।
पार्टी की संभावित रणनीति के अनुसार अब दिग्गज नेता पूरे प्रदेश का दौरा सडक़ मार्ग से करेंगे और पार्टी के लिए माहौल बनाएंगे। इस संबंध में पिछले दिनों हुई पार्टी की बैठक में फैसला लिया गया है। कांग्रेस का पूरा प्रयास होगा कि वो अपने खोए जनाधार को इस प्रयास से दोबारा हासिल करे और साल 2023 में सत्ता में वापसी करे। कांग्रेस का दावा है कि दिग्गजों के जमीन पर उतरने से पार्टी को 2023 में लाभ मिलेगा और एक बार फिर सत्ता में वापसी होगी। बीते दिनों हुई बैठक में कांग्रेस सर्व सम्मति से यह तय कर चुकी है कि अगला चुनाव कमलनाथ के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। साथ ही कमलनाथ कैबिनेट में मंत्री रहे नेताओं को भी अपने अपने क्षेत्र में सक्रिय होने की हिदायत दे दी गई है।
मोर्च पर तैनात होगा संघ
मिशन 2023 के मद्देनजर मप्र चुनावी मोड में आ चुका है। नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव के परिणामों का आकलन कर संघ ने आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिए मैदानी जमावट पर काम शुरू कर दिया है। हमेशा पर्दे के पीछे रहकर काम करने वाला संघ इस बार कई मार्चे पर फ्रंट पर रहकर भाजपा के लिए चुनावी काम करेगा। इसके लिए इस बार हार्ड हिंदुत्ववादी और सेवा संगठनों को फ्रंट मोर्चे पर तैनाती की तैयारी की गई है। गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनाव से सबक लेते हुए संघ ने इस बार समय से पहले चुनावी मोर्चा संभालना शुरू कर दिया है। खास तौर पर कांग्रेस के प्रभाव वाली सीटों पर विशेष फोकस किया जा रहा है। इन क्षेत्रों में संघ के प्रचारक, समयदानी और विस्तारकों की विशेष टोलियों को भेजा जाएगा। संघ के ये वालंटियर भाजपा के पक्ष में माहौल तैयार करेंगे और क्षेत्र में पार्टी की मौजूदा स्थिति का फीडबैक भी देंगे। जिलों में बढ़ती गुटबाजी को नेताओं के बगावती तेवरों को साधने का रास्ता भी सुझाएंगे। आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव के मद्देनजर संघ इस बार सुनियोजित रणनीति पर काम कर रहा है। इसके तहत संघ ने हाल ही में अपने नेटवर्क को नए सिरे से पुनर्गठित कर लहार को मध्यभारत प्रांत में आरएसएस का नया जिला बनाकर जिला प्रचारक की नियुक्ति कर दी है। इसके अलावा करीब डेढ़-दो दर्जन जिलों में प्रचारकों के बीच नए सिरे से कामकाज का विभाजन कर दिया है। शुरुआती दौर में जिन जिलों पर फोकस किया गया है उनमें से ज्यादातर ग्वालियर-चंबल संभाग क्षेत्र के अंतर्गत हैं। इन जिलों में नए सिरे से प्रचारकों की जमावट की गई है।
इस बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हार्डकोर हिंदुत्व के सहारे चुनावी मैदान में काम करेगा। भाजपा एक बार फिर हार्ड हिंदुत्व का कार्ड खेलने की तैयारी में है। कोविड काल में संघ के सेवा संगठनों ने गांव-गांव में लोगों को राशन और मेडिसिन की सुविधाएं उपलब्ध कराईं थीं उससे उनके प्रति समाज में एक सकारात्मक छवि बनी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत नहीं मिला। मार्च 2020 की सियासी उथल-पुथल के बाद भाजपा पुन: सत्ता में है लेकिन प्रदेश में अब भी कांग्रेस की 96 सीटें हैं। यही वजह है कि कांग्रेस के प्रभाव वाली सीटों को चिन्हित कर वहां मैदानी स्तर पर भाजपा की जमीन तैयार करने की कवायद शुरू की गई है। नगर निगम चुनावों मे मिली हार से भाजपा से लेकर संघ तक में चिंता से लेकर चिंतन तक का दौर शुरु हो गया है। हाल ही में हुए संघ में बदलाव को इसी से जोडक़र देखा जा रहा है। इसके पीछे का बड़ा कारण पार्टी की जमीन पर कमजोर होती पकड़ माना जा रहा है। संघ ने पिछले साल संभागीय संगठन मंत्रियों की व्यवस्था खत्म कर उनकी ताजपोशी निगम-मंडलों में कर दी। इस बदलाव के बाद भाजपा की जमीनी पकड़ कमजोर होती गई जिसका उदाहरण नगर निगम चुनाव हैं जिनमें भाजपा की सीट 16 से घटकर 9 पर आ गईं। हाल ही में वरिष्ठ संघ नेता अजय जामवाल को क्षेत्रीय संगठन महामंत्री बनाया गया है, उनको मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जिम्मेदारी दी गई है। इस बदलाव के बाद अब प्रदेश संगठन महामंत्री के साथ दो सह संगठन मंत्रियों को जोड़ा जा रहा है। पार्टी सूत्रों ने संगठन मंत्रियों को हटाए जाने की बड़ी वजह मानी है कि संभागीय कार्यालय सत्ता और संगठन के नए केंद्र के रूप में काम कर रहे थे। विधायकों से लेकर जिलों में काम करने वाले पदाधिकारियों का संगठन मंत्रियों के प्रभाव में आकर फैसले लेने का प्रचलन बढ़ता जा रहा था। इतना ही नहीं, प्रशासनिक कार्यप्रणाली भी इनके हस्तक्षेप से प्रभावित हो रही थी। यही वजह है कि अब नई व्यवस्था को लागू किया जा रहा है।
एससी-एसटी वोट बैंक पर फोकस
भाजपा का फोकस अब आदिवासी और अनुसूचित जाति पर होगा। 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले इस वर्ग में पैठ और बढ़ाना है। पिछले विधानसभा चुनाव में इन दो वर्ग के रूठने के कारण ही भाजपा की सरकार नहीं बन पाई थी। यह निष्कर्ष भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज नेताओं के बीच मंथन में निकला है। जाहिर है सत्ता बरकरार रखने की मंशा लेकर भाजपा ने अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग में पैठ बढ़ाने की कवायद तेज करेगी। 2003 से 2013 तक के चुनाव में उसे सत्ता सुख भी तभी मिला, जब एससी वर्ग का साथ मिला, वहीं 2018 में इस वर्ग के मोहभंग की कीमत सत्ता गंवाकर चुकानी पड़ी। 230 सीटों की मध्य प्रदेश विधानसभा में 35 सीटें एससी वर्ग और 47 सीटें एसटी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। पिछले चुनाव में अजा की 35 सीटों में भाजपा की 28 सीटें घटकर 18 पर पहुंच गई थी। वहीं अजजा की 47 सीटों में भाजपा की संख्या 32 से घटकर 16 पर आ गई थी। वहीं कांग्रेस की सीटें इस वर्ग में 14 से 30 पर पहुंच गई थी। यही वजह है कि कुल 82 सीटों पर भाजपा अब फोकस बढ़ाएगी।
अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो साफ समझ आ जाएगा कि भाजपा आदिवासी वोट बैंक पर इतना जोर क्यों दे रही है। असल में मध्य प्रदेश में आदिवासियों की आबादी पर नजर डालें तो यह दो करोड़ से ज्यादा है। यह दो करोड़ से ज्यादा आदिवासी प्रदेश की कुल 230 विधानसभा सीटों में से 87 सीटों पर प्रभावी भूमिका में हैं। यानी इन सीटों पर आदिवासी वोट हार या जीत तय कर सकते हैं। इसमें भी खास बात यह है कि इन 87 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। यही वजह है कि भाजपा का पूरा फोकस आदिवासी वोट बैंक पर है। बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। असल में मध्य प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा जिस तरह से बहुमत से दूर हुई थी, उनमें आदिवासी बहुल इन 87 सीटों की बड़ी भूमिका थी। 2018 में हुए इन चुनावों में भाजपा इन 87 में से सिर्फ 34 सीटों पर ही जीत हासिल करने में कामयाब रही थी। जबकि 2013 में इन्हीं 87 सीटों में भाजपा ने 59 पर अपना परचम लहराया था। ऐसे में अंदरखाने भाजपा को इस बात का डर है कहीं फिर से आदिवासी उनसे दूर न हो जाएं। इसी को देखते हुए भाजपा अपने शीर्ष नेतृत्व के जरिए इस वर्ग में यह संदेश पहुंचाने में लगी है कि उसे आदिवासियों की वाकई चिंता है।