- विजय मनोहर तिवारी का नया शहकार
- लाजपत आहूजा

स्याह रातों के चमकीले ख्वाब, विजय मनोहर तिवारी का नया उपन्यास पत्रकारिता के अन्त:पुर की कई कहानियों के साथ आया है। इसमें सपने हैं, घुटन हैं, दांवपेंच है, प्रतिकार है और पत्रकारिता के एक बड़े जहाज के डूबने की भी कहानी है। वो जहाज भी ऐसा जो कभी हिन्दी पत्रकारिता का मानक था। बेशक लेखक ने कहा है कि कहानी का अखबार और उसके किरदार किसी अखबार विशेष से संबंधित नहीं है, पर उनके दिल से निकला एक एक शब्द और समूचा ताना बाना स्पष्ट संकेत अपने में समेटे है । अब नाम उन्होंने नहीं लिया तो मैं भी नहीं ले रहा हूँ पर जानकारों के लिए यह खुला रहस्य ही है। वैसे विजय की भाषा शैली। कथ्य और चुटीलापन इसे किसी भी अखबार या यों कहिये कि किसी भी दफ्तर, संगठन की कहानी भी कह सकते हैं। अन्त:पुर के षड्यंत्र सभी जगह एक से है।
उपन्यास में न्यूज स्टोरी का बनना, दबना और कभी न छपना, भले ही कारण अलग -अलग हो सभी अखबारों का एक सा किस्सा है। प्रमाणित योग्यता के बाद भी उपेक्षित कर दिया जाना भी हर जगह का अपना ही किस्सा है। भारत कहानियों का देश है। अपने इस शहकार में विजय मनोहर तिवारी ने कहानी के अंदर कहानियां सहेजी है। इसमें मुंबई में आतंकवादी हमला, दो महिला पत्रकारों का पत्रकारिता से हटकर बच्चों के लिये एनजीओ बनाना जैसी ख़ुशबूएं हैं तो, एक पत्रकारी साम्राज्य का तिल तिल कर टूटना शामिल भी है । हां अब कुछ आलोचना, नहीं, समालोचना भी। विजय ने कहा है कि यह उपन्यास पुराना लेखन है। सच है, साथ ही यह भी लगता है कि भारी तरीके से संपादित है। पाठक कई और रंगों से महरूम हो गए। इस उपन्यास का नाम देखकर पता नहीं क्यों मेरे मन में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म बंबई रात की बांहों में, याद आ गई थी। वो तो बाद में पता चला कि कथानक में इतने फिल्मी किरदार हैं कि मैंने गिनना ही छोड़ दिया ।
लेखक पूर्व संचालक जनसंपर्क विभाग हैं।