- अवधेश बजाज कहिन

मेरा यह अहसास गाढ़ा होता जा रहा है कि भूतकाल से सीख लेकर भविष्य के सामने आसन्न किसी भूत सरीखे ही हालात से सबक लेना ही होगा। स्कूल के समय में कहानी ‘अंधेर नगरी पढ़ी थी। वही कहानी जिसमें टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ वाली बात की शासन व्यवस्था से भयभीत एक गुरू अपने चेले को वह राज्य छोड़ देने की सलाह देता है। यह उस दौर की बात है, जब सुखांत के लिए खासा आग्रह हुआ करता था। लिहाजा इस कहानी में भी प्राण पर संकट आने के बाद भी लालची चेले की जान अंतत: उसके गुरु ही बचा लेते हैं। लेकिन अब तो महा-लालचियों और उनके भी आका महा-गुरुओं का समय है। ये गुरू पूरी तरह शुरू हैं, लालचियों की इस फितरत को भुनाने के लिए। उनके सुख-चैन सहित सुरक्षित भविष्य की हत्या कर देने के लिए। हर तरफ मुफ्त के नाम पर अंधेर मचा हुआ है और इसलिए मुझे लगता नहीं कि उस रोशनी की तरफ बहुत अधिक ध्यान दिया जाएगा, जो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ईकोरेप रिपोर्ट में बिखरती दिख रही है। यह रिपोर्ट आज के काले सच और उसके चलते भयावह अन्धकार से घिरे आने वाले कल की तस्वीर दिखा रही है। बल्कि वह कल तो आज के रूप में हमारे सामने आ गया है। तेलंगाना से लेकर पंजाब और तमाम राज्यों में आम जनता को मुफ्तखोरी की जो आदत लगाई गयी, उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। कर्ज की माफी से लेकर मुफ्त सामान देने की योजनाएं भले ही राम-राज्य की याद दिलाएं, किन्तु यही सब कई राज्यों सहित देश की अर्थव्यवस्था के लिए अनर्थ वाली कुव्यवस्था और हराम राज्य का सबब बन गया है, जो और खराब भविष्य की तरफ संकेत कर रहा है।
हम ‘यूनानो-मिस्रो-रोमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी नामों-निशां हमारा’ की अफीम चाटकर हालात से बेखबर हो सकते हैं, किन्तु तनिक पलक को आँखों के ऊपर से हटाने की मेहनत तो कीजिये। ताकि आप ये नंगा सच देख सकें कि किस तरह राजनेताओं की हरामखोरी से पैदा हुई आम जनता की मुफ्तखोरी पड़ोसी देश श्रीलंका और पाकिस्तान को इंटरनेशनल फकीर की श्रेणी में ला चुकी हैं। इसलिए मेरा मानना है कि हमें इन परिस्थितियों में ‘न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दुस्तां वालों, तुम्हारी दास्तान तक न होगी दास्तानों में’ की एंटी-अफीम डोज का सहारा लेना चाहिए। क्योंकि हम खुद को धकेल रहे हैं, उस भयावह नरक की तरफ, जहां केवल और केवल राजनीतिज्ञों का स्वर्ग है। आपकी और हमारी भिखमंगों तथा अभाव से ग्रसित लोगों की नारकीय जाजम के ऊपर सियासतदानों के स्वर्ग का वह शामियाना तन चुका है। कभी सोचा है कि इन सबके चलते कौन पिसेगा, घिसेगा और तिल-तिलकर रोएगा? वह होगा इस देश का मध्यम वर्ग। सही मायनों में मध्यम वर्ग को उस माध्यम में बदल दिया गया है, जो मुफ्तखोरी वाली कुनीति में रचे-बसे राजनीतिज्ञों का सबसे बड़ा शिकार है। जिसका कसूर यह है कि वह आज उन फोकटबाजों के प्रपंच को देखने के लिए मजबूर है, जिनकी इस फोकटाई का उसे अपने टैक्स की रकम सहित भयावह तरीके से बढ़े हुए दामों के रूप में किसी मजदूर की तरह भुगतान करना होता है।
आप बेशक राजनीति करिये, लेकिन उस खाजनीति के संवाहक न बनिए, जिसकी खाज अब कोढ़ की तरह देश की संपूर्ण अव्यवस्था को असहनीय खुजली का शिकार बना चुकी है। किसी भी दल का नाम लेना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इस हमाम में सभी नंगे हैं। खास बात यह कि ये सभी नंगे निर्लज्जता की हदें पार करने में ही आत्मीय खुशी तथा गौरव का अनुभव करने लगे हैं। बात केवल यह नहीं है कि इस उथली राजनीति के चलते राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है, बात यह बड़ी है कि इसके राज्य-दोषी होने के बाद भी तमाम हुकूमतें खुद की पीठ थपथपाने में कोई शर्म महसूस नहीं कर रही हैं। वह खुश हैं कि उन्हें खैरात बांटने के बाद की फसल काटने का मौका मिल गया। वह संतृप्त हैं कि उन्हें खैरात की अफीम का और बड़ा डोज मिल गया, लेकिन उनका क्या, जिनकी इस सबके चलते अब खैर नहीं है। जिन्हें टैक्स के बोझ सहित महंगाई के रूप में सियासतदानों के इस बदबूदार नाबदानों में शासन के प्रति अपनी अपेक्षाओं और अधिकारों को बहता हुआ देखना पड़ रहा है? स्टेट बैंक की रपट उस रपटीले राह की तरफ इंगित कर रही है, जिसमें आखिरकार देश की माली हालत के नंगा हो जाने वाला दलदल ही छिपा हुआ है। ये दल राजनीतिक दलों की देन है और उसमें फंसकर दम तोड़ते हुए हम और आप अभिशप्त हैं, हरामखोरी तथा मुफ्तखोरी के इस मकड़जाल से अनभिज्ञ रहने के लिए।