ऑफ द रिकॉर्ड/कोरोना पर चुनाव-प्रचार को प्राथमिकता देना भारी पड़ गया

– नगीन बारकिया

भाजपा

कोरोना पर चुनाव-प्रचार को प्राथमिकता देना भारी पड़ गया
विधानसभा चुनावों में बंगाल के जो परिणाम सामने आए हैं उस पर भाजपा को ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक विश्लेषकों को भी आश्चर्य हो रहा होगा और निश्चित रूप से अपने आंकलन पर फिर से विचार कर रहे होंगे कि आखिर उनकी गणना में गलती कहां हो गई। भाजपा नेता चाहे कितना ही इन परिणामों को अपनी बढ़त वाला बताएं लेकिन वास्तविकता ऐसी है नहीं। पार्टी ने बड़े विश्वास के साथ आक्रामक अंदाज में यह चुनाव लड़ा और 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था, लेकिन वह अति आत्मविश्वास में तब्दील हो गया। लगभग डेढ़ महीने लंबे और आठ चरणों में फैले इस थका देने वाले चुनाव प्रचार अभियान के चलते उसके नेता यह भूल ही गए कि वे केंद्र में शासन कर रही पार्टी के नेता हैं और उनके पास मात्र चुनाव प्रचार ही एकमात्र काम नहीं है बल्कि देश की जरूरतों का भी ख्याल रखना है। किसान आंदोलन हो या कोरोना का फैक्टर सरकार ने सब कार्य ठंडे बस्ते में डाल दिए। इधर कोरोना की दूसरी लहर ने जो आतंक मचाना शुरू किया उसे भी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भी कोरोना को कम और चुनाव प्रचार को अधिक तरजीह देते नजर आए। जो मोदीजी कोरोना के पहले दौर में घंटी बजाते और थाली पीटते एक संरक्षक और पालक के रूप में नजर आए थे और देश के नाम संबोधन में गुरु की तरह कोरोना से बचाव की समझाइश देते नजर आए थे वह मोदीजी दूसरे दौर में एकदम विलुप्त से हो गए। कोरोना के इस दूसरे दौर में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की अनुपस्थिति सबको खली। लग रहा था कि मोदी चुनावी रैली और प्रचार से अपने को और अमित शाह को हटा लेंगे तथा कोरोना पर ध्यान देगे। लेकिन मोदी यह निर्णय लेने में चूक गए। खास बात तो यह कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अप्रत्याशित रूप से अंतिम समय में चुनावों से दूर रहने का बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला लेकर वाहवाही लूट ली। यह अलग बात है कि राहुल के फैसले से उनकी पार्टी को कोई लाभ नहीं होने वाला था, लेकिन यही फैसला मोदी ने लिया होता तो शायद बिना प्रचार किए ही वे हजारों वोट का फायदा अपनी पार्टी का करा सकते थे। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में मोदी के प्रति इतना भक्तिभाव है कि वे बैठे बैठे बाजी पलट सकते हैं। वास्तव में हार के कुछ कारणों में कोरोना की ओर ध्यान न दे पाना सबसे प्रमुख कारण माना जा सकता है और लगता है कि यह कारण परिणामों पर काफी भारी पड़ा।

कोरोना वायरस के कदम थमने  के आसार
अप्रैल में बेतहाशा तेजी दिखाने वाले कोरोना वायरस ने अब कुछ राहत के संकेत दिए हैं और लगता है कि इसकी तेजी अब थमने लगी है। दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उप्र तथा मप्र समेत करीब 13 राज्यों में रोजाना होने वाले नए संक्रमितों की संख्या में या तो कमी आई है या उसमें स्थिरता आई है। यह इस बात से भी पता चलता है कि सोमवार को कोरोना के 3 लाख 55 हजार नए मामले सामने आए हैं जो एक मई के 4 लाख 2 हजार की तुलना में काफी कम हैं। हालाकि इसके साथ ही देश ने संक्रमितों की संख्या दो करोड़ के पार पहुंचाने का एक अनचाहा रिकॉर्ड बना लिया। संक्रमण की रफ्तार इतनी तेज रही कि महज 137 दिन में मामले एक करोड़ से 2 करोड़ के पार पहुंच गए। यह संख्या एक लाख से एक करोड़ तक पहुंचने में 360 दिन लगे थे। मतलब चार माह में कोरोना के मामले दो गुने हो गए। इसके अलावा पिछले 24 घंटों में 3438 और मरीजों की मौत हो गई।

क्या शेषन होते तो वह ऐसी दलील देते..।
मद्रास उच्च न्यायालय की हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के संबंध में आईं कड़ी टिप्पणियों से व्यथित निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से सोमवार को कहा कि कोविड-19 प्रबंधन उसका विशेषाधिकार नहीं है और राज्य का शासन उसके हाथों में नहीं है। उसने यह भी कहा कि रैलियां रोकना आयोग का नहीं आपदा प्रबंधन का काम है। उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट ने आयोग को हत्यारा तक कह डाला था। इस पर सुप्रीम कोर्ट में आयोग की ओर से उक्त दलील पेश की गई। इसमें उन्होंने कहा कि राज्य का शासन निर्वाचन आयोग के हाथों में नहीं है। हम केवल दिशा-निर्देश जारी करते हैं। रैली में शामिल लोगों को रोकने के लिए हमारे पास सीआरपीएफ या कोई अन्य बल नहीं है। लोगों की संख्या सीमित करने के लिए राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को आदेश जारी करना होता है। ऐसी अवधारणा है कि निर्वाचन आयोग के पास इस सबकी जिम्मेदारी है। कोविड प्रबंधन से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। आयोग की इस दलील को यदि आयोग की ताकत का अहसास करा देने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसे बेचारगी वाली दलील से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। यह कहा जा सकता है कि शेषन के रहते यह नौबत ही नहीं आती क्योंकि या तो रैलियां ही नहीं होती या प्रबंधन की जिम्मेदारी किसी ओर पर नहीं थोपी जाती।

असम में जीत के बाद सीएम के नाम पर प्रश्नचिन्ह
असम में भाजपा गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत के साथ जीत हासिल कर अपनी सरकार तो बरकरार रखी है, लेकिन अब उसके सामने मुख्यमंत्री चुनने की बड़ी चुनौती है। भाजपा नेता सर्बानंद सोनोवाल निवर्तमान मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पार्टी ने चुनाव में उनका चेहरा आगे नहीं किया था। इसकी वजह प्रदेश के मंत्री और वरिष्ठ नेता हिमंत बिस्वा सरमा की दावेदारी रही थी और पार्टी चुनाव में कोई गुटबाजी नहीं चाहती थी। चुनाव नतीजे आने के बाद भाजपा में जश्न का माहौल तो है, लेकिन उसके सामने अब मुख्यमंत्री चुनना एक बड़ी चुनौती है। भाजपा संगठन के पुराने नेता सोनोवाल को उनकी स्वच्छ छवि और पांच साल के कार्यकाल के आधार पर आगे रखना चाहते हैं, लेकिन हिमंत बिस्वा सरमा की रणनीतिक सफलता और पूरे पूर्वोत्तर में उनकी भूमिका को देखते हुए पार्टी के लिए उनको नजरअंदाज करना भी मुश्किल होगा।

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