मैं अंधेरे में खुलने वाली खिडक़ी बनूंगी

शिफाली

शिफाली

मैं अंधेरे में खुलने वाली खिडक़ी बनूंगी
बनूंगी उम्मीद का वो तिनका
कि जिसको थामें सैलाब पार किए जाते हैं
मैं बनूंगी,
बंजर धरती की दरार में उगी कंटीली पौध
जिसकी पत्तियां भूरी धरती पर हरा छींटा हैं
और कांटे करते हैं हिफाज़त
कि ज़ख्मी होने की शर्त
पर उखाड़ा जाएगा उसे
मैं बनूंगी
आसमान की आग बनने में बाकी बचा
वो उल्कापिंड
जो अपनी पीठ पर लादे होता है
बंद आंखों से निकली हज़ारों अधूरी ख्वाहिशें…
मैं बनूंगी
वो आखिरी हिचकी
जिसमें रुखसती के पहले
दोहराए जा रहे होंगे पूरी दुनिया के वो आधे नाम
जिनके भरोसे किसी ने पूरी उम्र काटी है …

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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