कवितायन

  • डॉ विजय सक्सेना  
कवितायन

01
कुछ अजीब सा रिवाज है तेरी रियासत में,
लोग खुद पर नहीं रिवायत पर यकीन करते हैं।
परेशानियों का सबब जिंदगी का उसूल है,
हल ढूंढते नहीं शिकायत पर यकीन करते हैं।।

मुल्क में भी कमा खाने को है बहुत फिर भी ,
जाने क्यों लोग विलायत पर यकीन करते हैं।
जज्बात छुपा दिल की अलमारी में रख रखे हैं,
इस दौर के लोग रिश्तों में किफायत पर यकीन करते हैं।।

खबर सबको है कि लहू का रंग एक है  फिर भी,
 तू और मैं क्यों सियासत पर यकीन करते हैं।
कितना भी समाजों में बांट दो इंसानियत को,
हम तो इंसानी लियाकत पर यकीन करते हैं।।
02
सब्ज नहीं जिंदगी जो यूँ ही काट दी जाए,
नब्ज है जिंदगी तेरे दिल से निकलती हुई।
किस बात से तू इतनी डरी है इतनी सहमी है,
जिंदगी किसी और से चलती तेरी गलतफहमी है।।

तू शान से जी जिंदगी अपने खुद के उसूलों से,
सीखना ही जिंदगी है अपनी खुद की भूलों से।
पाक तेरी रूह खुदा ने फरमाई है अता,
कोई और क्या देगा तुझे तेरे घर का पता।।

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