
बिच्छू डॉट कॉम। अगर आपको साधना में गहरे उतरना है, तो वैराग्य चाहिए, राग-द्वेष नहीं चाहिए। राग-द्वेष को हटाना पड़ेगा, मन को निर्मल करना पड़ेगा, फिर सुमिरन का चमत्कार तुम देखोगे। मन में सुमिरन का अमृतरस बरसेगा और मन उसमें सराबोर हो जाएगा। सुमिरन का अर्थ मंत्र बोलना नहीं है। जहां मन मंत्ररूप हो जाए, जहां मन में मंत्र का स्थूल शब्द भी शांत हो जाए, ऐसी सूक्ष्म अवस्था को ‘सुमिरन’ कहते हैं। इस सुमिरन की अवस्था में पहुंचना तब तक सम्भव नहीं है, जब तक मन में वैराग्य नहीं। जब तक साधना में बैठने की रुचि न हो, मन निर्मल न हो जाए, मन विचार रहित न हो जाए, तब तक जप होगा ही नहीं। अगर जप नहीं होगा, तो सुमिरन कहां से हो पाएगा? जिस मन में प्रभु का सुमिरन घटित होता है, उस मन को फिर दोबारा गर्भ में वास नहीं करना होगा, मतलब उसका आगे जन्म नहीं होगा। जन्म उसी का होता है, जिसके मन में वासनाएं हैं कि मैं संसार को भोगूं, मैं राजा बन जाऊं। जिसके मन में ऐसी इच्छाएं भरी हुई हैं, वह ऐसे इच्छा से भरे मन के साथ फिर जन्म लेगा। हर मृत्यु के बाद उसका जन्म होता रहेगा। इसलिए तो मनुष्य के करोड़ों जन्म होते रहते हैं, क्योंकि उसने करोड़ों इच्छाएं मन में पाल रखी हैं। नामसुख रूपी मणि भक्तों को ही मिलती है। यह मंत्ररूपी नाम की मणि भक्तों को ही मिलती है और भक्त वही है, जिसका मन निर्मल है। भक्त वही है, जिसका मन विचाररहित है। ऐसे भक्त के मन में सिवाय परमात्मा के और किसी की याद नहीं होती है। जो भक्त नहीं, उसके मन को विश्राम नहीं आता। मन को विश्राम तब आएगा, जब मन में सुमिरन होगा। सुमिरन तब होगा, जब तुम मंत्रजप से शुरू करोगे। जप में सफलता तब मिलती है, जब मन में वैराग्य होता है। सुमिरन करने से काल भी पीछे हट जाता है। कहते हैं कि जिसके अंदर सुमिरन घटित हो जाए, उसकी चैतन्यता कभी लुप्त नहीं होती, सुप्त नहीं होती।
बहुत लोग कहते हैं कि इस पूरी धरती पर ही कोई साधु नहीं है। हम अपने आप ही पाठ कर लेंगे, अपने आप जप कर लेंगे। हम किसी साधु की संगत में क्यों जाएं? सच तो यह है कि तुम्हारा अहंकार मानना ही नहीं चाहता है कि कोई साधु है। तुम्हारा अहंकार किसी को अपने से बड़ा और श्रेष्ठ स्वीकार करना ही नहीं चाहता। साधु की निंदा करना बहुत बड़ा अपराध है। इसलिए भूल से भी नहीं कहना चाहिए कि कोई साधु नहीं है। इतना कहो कि कोई साधु मिला नहीं। हालांकि कुछ साधुता तुममें भी तो होनी चाहिए। कुछ वैराग्य, कुछ सेवा, कुछ नम्रता, ये गुण अगर तुममें हों, तो ही जीवन में तुम्हें कोई साधु मिलेगा। साधु के संग में ही सुमिरन घटित हो सकता है। जिसको सत्संग ही नहीं मिला, साधु संग ही नहीं मिला, उसका मन निर्मल हो जाना असम्भव है। साधु का संग करने से सुमिरन घटित हो सकता है। जिसके अंदर सुमिरन घटित हो जाए, उसे सब खजाने मिल सकते हैं। परमात्मा के दर पर वही लोग स्वीकृत होते हैं, जिन्होंने इस अमृत को पीया है। जो इस सुमिरन रूपी अमृत को पी लेगा, वही परमात्मा के द्वार तक पहुंचेगा और उस प्यारे का दर्शन भी करेगा। सच तो यह है कि जिसने सुमिरन का अमृतरस पी लिया, वह मुक्ति की भी चाह नहीं करता और किसी वैकुण्ठ की भी इच्छा नहीं करता। जिसे परम आनन्द मिल रहा हो, उसे न मुक्ति चाहिए, न ही वैकुण्ठ चाहिए।
एक साधक को मुक्ति की बहुत इच्छा होती है कि मुक्ति कैसे हो? सबसे बड़ी मुक्ति तब होती है, जब मुक्ति की चाह भी खत्म हो जाए। ऐसे को न राजपाट चाहिए, न मुक्ति चाहिए। उसका मन प्रभु चरणों के साथ जुड़ गया है, उसके मन का कमल खिल गया है। उसके मन के सरोवर में अब कोई लहर नहीं उठती। मन विचारों से शून्य हो गया और अंदर कमल खिल गया है। इस प्रकार मन की मौत का नाम ही साधना है। जिसने मन को मारना सीख लिया, वही साधक है। गुरु गोरखनाथ का यह वचन है- ‘हे जोगी! मरना तो है ही, तो जाकर गुरु के द्वार पर मरो। गुरु से जो मन को मारना सीख जाएगा, उसको फिर मरना नहीं पड़ेगा। साक्षात् परमात्मा गुरु बनकर तुम्हारे ही अंदर बैठा है, तो मरने के लिए कहीं और जाने की क्या जरूरत है?