राजनीति में भगदड़ का नया युग

  • राकेश अचल
राजनीति

भारतीय राजनीति में दल-बदल कोई नयी और अस्पृश्य घटना नहीं है अब राजनीति सुविधा की हो रही है, विचारधारा की नहीं। पूरा या आधा जीवन किसी एक दल के साथ बिताने वाले नेता और कार्यकर्ता जरूरत पड़ने पर पलक झपकते ही दल-बदल करने में संकोच नहीं करते। हाल ही में वामपंथी कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने के बाद भगदड़ के नए युग का सूत्रपात हुआ है,क्योंकि अमूमन वामपंथी दल-बदल नहीं करते। कन्हैया कुमार एक विवादास्पद लेकिन मुखर छात्र नेता के रूप में चार -पांच साल पहले ही चर्चा में आये थे। उनकी विचारधारा वामपंथी थी।  वे 2019 में भाकपा के टिकिट पर बेगूसराय से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके थे।  34 साल के इस नौजवान की जरूरत जितनी भाकपा को थी उतनी ही दूसरे दलों को भी रही । वे यदि कांग्रेस की बजाय भाजपा में भी शामिल होते तो भाजपा भी उनके लिए पलक पांवड़े बिछाती,लेकिन संयोग से ऐसा नहीं हुआ। किसी वामपंथी के लिए भाजपा के मुकाबले कांग्रेस शायद ज्यादा मुफीद राजनितिक दल है। दोनों दल अतीत में राजनीतिक सहयोगी भी रह चुके हैं।
जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय के इस प्रतिभाशाली छात्रनेता के दल-बदल करने से भाजपा समेत सभी दलों के पेट में मरोड़ हुई है। कुमार ने भाकपा छोड़ी है इसलिए पार्टी के महासचिव डी राजा को तकलीफ हुई। डी राजा ने कहा कि -‘कुमार ने खुद को पार्टी से निष्काषित कर लिया है। कुमार के पार्टी में आने से कांग्रेस के नेताओं को भी कम तकलीफ नहीं हुई। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी तो अपनी तकलीफ छिपा भी नहीं पाए। भाजपा की प्रतिक्रिया तो और भी स्वाभाविक है क्योंकि कुमार ने सबसे ज्यादा भाजपा पर ही वार किये थे।
राजनीति के इस भगदड़ काल में कौन,कब किस दल से निकल कर दूसरे दल में चला जाएगा ,कहना कठिन हो गया है। अब पावन और अपावन का भेद नहीं रह गया है।  हर राजनीतिक दल एक सराय है,जहां कोई भी गर्दन झुककर आये और ठहर जाये। हर राजनीतिक दल को जिताऊ नेता चाहिए,विचारधारा अब पहले की तरह महत्वपूर्ण नहीं रही। हर राजनीतिक दल बिभीषणों को शरण देने के लिए पालक-पांवड़े बिछाकर बैठा हुआ है। ये कोई नई बात नहीं है। लेकिन अब दल-बदल ने बेशर्मी का रूप धारण कर लिया है । अब व्यक्तिगत दल-बदल के साथ ही सामूहिक दल-बदल का नया दौर भी शुरू हो चुका है। हाल के समय में दल-बदल करने वालों की सूची बहुत लम्बी हो चुकी है। सभी दल-बदलुओं का नाम लेना भी अब उचित नहीं है क्योंकि वे अपनी-अपनी गंगा में स्नान कर पावन हो चुके हैं। दल-बदलुओं को नए दलों में पर्याप्त सम्मान भी मिल रहा है। हर दल में इस दल बदल से दुखी मनीष तिवारियों की लंबी फौज है किन्तु पार्टियों के है कमान दल-बदल का विरोध करने वाले अपने ही कार्यकर्ताओं की परवाह नहीं कर रहे।  पुराने कार्यकर्ता भीतर ही भीतर घुट रहे हैं , तो घुटते रहे, पार्टी हैकमैनों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
राजनीति में दल-बदल भले ही सबसे अधम कृत्य माना जाता हो किन्तु अब इसे सहज स्वीकार कर लिया गया है । इसलिए कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने पर कोई उंगली उठाता है तो हंसी आती है। जब भारतीय राजनीति ‘शरण वत्सल’ हो ही चुकी है तो कोई दल-बदल पर उंगली कैसे उठा सकता है? शरणागत को आश्रय देना भारत की पांच हजार साल पुरानी परम्परा है।  जब बिभीषन जैसे असुर को शरण दी जा सकती है तब कन्हैया कुमार तो असुर भी नहीं है फिर उसके कांग्रेस में शरण लेने को गलत कैसे ठहराया जा सकता है?
आज के दौर में कांग्रेस एक डूबता जहाज दिखाई देता है, इसलिए उसमें कन्हैया कुमार का सवार होना जरूर लोगों को चौंका सकता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितेन प्रसाद जैसे होनहार नेता तक इस कथित डूबते जहाज की सवारी करने से घबड़ाकर भाजपा के जहाज में सवार हो गए थे।  कांग्रेसियों और समाजवादियों के लिए भाजपा शायद ज्यादा सहज लगती है । इसी तरह वामपंथियों को भाजपा के मुकाबले कांग्रेस ज्यादा सहज लगती है. ये बात और है कि कांग्रेस में शामिल होने वाले वामपंथियों की सूची बहुत लम्बी नहीं है। कन्हैया कांग्रेस के डूबते जहाज में सवार होकर डूबे या उतराये इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इससे पड़ता है कि कन्हैया कुमार के पार्टी में शामिल होने से कांग्रेस की फायर पावर बढ़ती है या नहीं ?
कांग्रेस में शामिल होना इस समय जिगर वालों का ही काम कहा जा सकता है ,क्योंकि इस समय कांग्रेस में ही सबसे ज्यादा भगदड़ मची हुई है। कांग्रेस के नेता रस्सियां तोड़कर भाग रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा जहां कांग्रेस के नेताओं ने पार्टी छोड़कर भाजपा की शरण न ली हो। पंजाब में भी ये सिलसिला किसी भी समय शुरू हो सकता है। कन्हैया कुमार के बाद कांग्रेस में शामिल होने के लिए गुजरात के युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी तैयार खड़े हैं। वे तकनीकी कारणों से फिलहल कांग्रेस के सदस्य नहीं बने हैं किन्तु वे अगला विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकिट पर लड़ने की घोषणा कर चुके हैं।
दल-बदल के इस नए युग में ध्यान देने की बात ये है कि भाजपा के सरपट भागते घोड़े को रोकने की कोशिश कांग्रेस के नेताओं के बजाय इन युवा दलित नेताओं ने ही की है , इसीलिए भाजपा इन नेताओं से घबड़ाती भी है। नए दलित नेताओं के पास और कुछ हो या न हो लेकिन तार्किकता के साथ भाजपा पर प्रहार करने की क्षमता तो है ही । राजनीतिक दल अपने छद्म के अनावृत होने से ही सबसे ज्यादा घबड़ाते हैं। सिंधिया या जीतें प्रसाद के भाजपा में जाने से कांग्रेस उतनी नहीं घबड़ायी थी जितना कि भाजपा कन्हैया कुमार के कांग्रेस में जाने से घबड़ाती दिखाई दे रही है,जबकि ये नेता तो अकेले ही कांग्रेस में आये हैं। दल-बदल के खिलाफ लगातार लिखते हुए भी मै इस बात से मुतमईन हूँ कि अब राजनीति की मुख्यधारा में पढ़े-लिखे नौजवान शामिल हो रहे हैं। भले ही वे किसी भी दल के साथ हों.कम से कम इस तरह की नयी फसल के आने के बाद देश को गुजरात सरकार में शामिल किये गए कुपढ़ मंत्रियों से तो निजात मिलेगी । मुमकिन है कि दल-बदल की ये बीमारी आने वाले दो सालों में और तेजी से विकराल रूप ले ले, लेकिन इसका नाश तभी होगा जब इसे सभी राजनीतिक दल नासूर मान लेंगे। फिलहाल दल-बदल एक पुण्य कार्य है।
– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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