
भोपाल/अपूर्व चतुर्वेदी/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश की जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी होने की वजह से हालात बद से बदतर हो रहे हैं। यही नहीं सैकड़ों कैदियों ने तो सलाखों के पीछे ही दम तोड़ दिया है। न्यायिक हिरासत में हो रही इन मौतों के मामलों को लेकर मानव अधिकार आयोग नाराज है। दरअसल आयोग ने हिरासत में हो रही मौतों को मानव अधिकार का उल्लंघन माना है। मौत के ऐसे 23 मामलों में सरकार से आर्थिक मदद की सिफारिश भी आयोग ने की है। वहीं पुलिस हिरासत में मौत के आठ मामलों में 21 लाख की मदद की सिफारिश की है। यही नहीं आयोग ने न्यायिक हिरासत में मौत के 15 मामलों में 37 लाख की सहायता और एक मामले में अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश भी की है। मानव अधिकार आयोग के निर्देश के अनुसार हिरासत में मौत की जानकारी 24 घंटे के भीतर दी जानी चाहिए। जबकि दो महीने के भीतर मौत की मजिस्ट्रियल जांच भी जरूरी होती है लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता है। सूत्रों की मानें तो प्रदेश में हिरासत से मौतों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। हिरासत में मौत के मामलों मध्य प्रदेश देश में दूसरे नंबर पर है। इससे आगे उत्तर प्रदेश है।
रिपोर्ट में हुआ खुलासा: मानवाधिकार आयोग से मिली जानकारी के आधार पर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि प्रदेश में पिछले चार वर्ष में लगभग पौने छह सौ से अधिक कैदियों ने हिरासत में ही दम तोड़ दिया। पुलिस हिरासत से ज्यादा मौत न्यायिक हिरासत में हो रही है। प्रदेश में हर महीने अनुमानित 12 कैदी मौत के मुंह में जा रहे हैं।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ: विभाग के एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी के मुताबिक न्यायिक हिरासत में सभी मौतें यातना और मारपीट की वजह से नहीं होती है। इसका बड़ा कारण बीमारी के इलाज में देरी या फिर लापरवाही भी हो सकता है।
क्योंकि वर्तमान स्थिति में जेल में क्षमता से अधिक लोगों को रखने के कारण भी बद्तर हालात बनते हैं। सूत्रों की मानें तो प्रदेश की 131 जिलों में 29 हजार कैदियों को रखने की क्षमता है, जबकि इन जेलों में करीब पचास हजार से अधिक कैदी है। वहीं दूसरी ओर गरीबी भी इसका एक कारण है। चूंकि कम सामाजिक हैसियत वाले या गरीब तबके के लोग ज्यादा शिकार होते हैं। हिरासत में मौत के मामलों में अधिकांश अनुसूचित जाति जनजाति और छोटे तबके के लोग होते हैं।