
भोपाल/जितेन्द्र चौरसिया/बिच्छू डॉट कॉम। कहते हैं कि होनी विधि का विधान होती है, लेकिन जब किसी सेवा-कार्य में बेईमानी, अमानवीयता और बेहयाई शामिल हो जाए, तो मन में असंतोष बना रहता है। पिछले दिनों मेरी मम्मी की मौत में सिर्फ दो कारण रहे। पहला, मेरी मम्मी को जेके अस्पताल में भर्ती कराना और दूसरा जेके अस्पताल के कामकाज का तरीका, जिसे दुष्चक्र ही कहा जा सकता है। ये एक गंभीर विषय है, क्योंकि सिर्फ मेरी मां ही नहीं, ऐसे अनेक मरीज हो सकते हैं, जिनके परिजनों को इस दुष्चक्र ने सदा के लिए छीन लिया होगा। जिस दिन मेरी मां की मौत हुई, उसी दिन अस्पताल में पांच मौतें हुई थीं। हो सकता है कि कोई लापरवाही हो, जैसी मेरी मां के साथ हुई। खास बात यह कि मेरी लिए कलेक्टर सहित कई लोगों ने फोन लगाये और पूरे मन से मदद की, लेकिन अस्पताल प्रबंधन मुझसे, उनसे और अन्य अफसरों से झूठ बोलता रहा। ऐसे में आम आदमी की क्या दुर्दशा होगी, सोचने वाली बात है।
- घबराकर में एडमिट कराने की गलती की : वह 10 अप्रैल का दिन था, जब मैं और मम्मी जेके अस्पताल में सीटी स्कैन कराने पहुंचे। हम दोनों ही 7 अप्रैल को पॉजिटिव हुए थे। जेके अस्पताल के एक चिकित्सक से बात हुई थी। किसी अधिकारी के कहने पर उन्होंने मुझे सीटी स्कैन के लिए अस्पताल बुला लिया। सोचा था कि सीटी स्कैन की रिपोर्ट पर तय करेंगे कि आगे क्या करना है। रिपोर्ट में जरूरत होने पर एडमिट हो जाएंगे। इसलिए शाम 6 बजे बताए टाइम पर पहुंचा, तो उक्त चिकित्सक का मोबाइल बंद था। फिर करीब डेढ़ घंटे परेशान होने के बाद सीटी स्कैन कराने के पैसे जमा कराए और पर्ची बनवाई। मम्मी ने बीपी की गोली नहीं खाई थी, इसलिए सीटी स्कैन कराने जाते समय कॉरिडोर में चक्कर आने पर डॉक्टर ने कहा, बीपी हाई है, आॅक्सीजन सेचुरेशन भी कम है। इन्हें तुरंत एडमिट करना चाहिए। मैंने घबराहट में उन्हें एडमिट कर दिया। इस प्रक्रिया में रात के साढ़े 12 बज गए। इसके बाद भी मैं भांप नहीं पाया कि अस्पताल कितना ज्यादा अव्यवस्थित और सिस्टम बेरहम है। यही मुझे बाद में भारी पड़ा।
- बिना ऑक्सीजन का मास्क लगाकर मम्मी को कर दिया क्रिटिकल : 12 अप्रैल तक मम्मी बिल्कुल अच्छी रहीं। पहली शिकायत मम्मी ने की कि कोई पानी देने तक नहीं आता। इस बीच मम्मी से कई बार बात हुई। उनके द्वारा हर बार ये कहा गया कि मुझे कोई दिक्कत नहीं, लेकिन ये नर्स बार-बार ऑक्सीजन मास्क लगाती है, जिससे खूब घबराहट हो रही है और न लगाने पर ठीक महसूस कर रही हूं। तब मैंने कहा कि नर्स कह रही है, तो लगा लें और घबराहट हो तो हटा देना। मैं उस समय समझ नहीं सका कि शायद, उस मास्क में ऑक्सीजन ही नहीं आ रही थी या फ्लो बेहद कम था। नतीजा ये कि रात को एक घंटे तक अच्छी तरह बात करने वाली मम्मी सुबह तक क्रिटिकल हो गई। इस बीच में घर से निकला ही कि अस्पताल से किसी नर्स का फोन आया कि मम्मी क्रिटिकल कंडीशन में हैं और आईसीयू में शिफ्ट कर रहे हैं। बस, बिना ऑक्सीजन वाले मास्क ने मम्मी को क्रिटिकल कर दिया।
- मौत तक सीटी स्कैन की रिपोर्ट नदारद : जेके अस्पताल की घोर लापरवाही ऐसी रही कि एडमिट होने के 2 दिन होने पर भी सीटी स्कैन नहीं किया गया। जबकि, हम इसी सीटी स्कैन को कराने अस्पताल पहुंचे थे। अफसरों को फोन लगाए, अस्पताल प्रबंधन पर दबाव डाला, तब अस्पताल के सेकंड ओनर धर्मेंद्र गुप्ता ने फोन कर बताया कि सीटी स्कैन करा रहा हूं। 12 अप्रैल को तीसरे दिन सीटी स्कैन कराया, लेकिन रिपोर्ट मम्मी की 16 अप्रैल को मौत तक नहीं आई। लगातार पूछने पर भी वह रिपोर्ट नहीं दी गई। एक और अहम बात कि जब 16 अप्रैल को मम्मी की मौत हुई, तब तक फाइल में सीटी स्कैन की रिपोर्ट नहीं थी।
- रेमडेसिवीर इंजेक्शन की कालाबाजारी : रेमडेसिवीर इंजेक्शन की जद्दोजहद ने एहसास कराया कि अस्पताल में कितनी कालाबाजारी है। मम्मी क्रिटिकल होकर आईसीयू में पहुंची, तो हाईफ्लो मशीन की ऑक्सीजन पर थी। मेरे अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टर बोले कि 6 रेमडेसिवीर इंजेक्शन लाओ। तब 2 इंजेक्शन लाकर लगवाए। फिर शासन-प्रशासन के अफसरों को फोन किया तो मां के इंजेक्शन अस्पताल पहुंच गए। इस बीच धर्मेंद्र गुप्ता और डॉक्टर चौधरी का फोन आया कि चिंता मत करो। मां के इंजेक्शन हैं, उन्हें लगवा रहे हैं। अस्पताल पहुंचा तो आईसीयू में डॉक्टर से पूछा इंजेक्शन आ गए। डॉक्टर बोले कि इंजेक्शन है ही नहीं और हमें कोई सूचना नहीं। मैं इंजेक्शन के इंतजाम के लिए दौड़ा। अगले दोनों दिन दोपहर बाद दौड़ भाग की इंजेक्शन का मैने इंतजाम किया। इस दौरान डॉ. गुप्ता और डॉ. चौधरी झूठ बोलते रहे। मैंने ब्लैक मार्केट से इंजेक्शन लाकर लगवाए, तो अस्पताल ने अफसरों को गलत जानकारी देते हुए बता दिया कि उन्होंने मेरी मम्मी को इंजेक्शन लगवा दिए हैं। वो ही मैसेज मुझे अफसरों ने किये, तो उन्हें सच बताया कि मैं लेकर आया हूं और अस्पताल प्रबंधन झूठ बोल रहा है। एक बात और कि जब आखरी के दो रेमडेसिविर इंजेक्शन डॉक्टर को लगाने दिए, तो वे काफी देर तक इधर-उधर करते रहे। मुझे पता नहीं मेरे लाये इंजेक्शन ही मम्मी को लगाए या बदल दिए गए। जब जेके अस्पताल में ही रेमडेसिविर के बदले पानी के इंजेक्शन लगाने वाली नर्स पकड़ाई , तब मुझे मेरे दिए इंजेक्शन लगाने में देरी पर संदेह हुआ। लेकिन, अब भी इस बारे में पता नहीं।
- एचओडी बोलते रहे झूठ : जिस तरह मां की मौत तक सीटी स्कैन रिपोर्ट का हुआ उसी तरह से वैसे ही अस्पताल के अंधे इलाज की पोल डॉ चौधरी की बातों से और खुली। डॉ. चौधरी ने फोन पर कहा कि मां के इंजेक्शन लग रहे हैं। ऑक्सीजन लेवल 96-97 है और 8 लीटर ऑक्सीजन पर हैं। उन्होंने इसका मैसेज भी किया। मुझसे फोन पर डॉ. चौधरी बोले कि दो प्लाज्मा की व्यवस्था कर लो तुरंत। इसके बाद मैं आईसीयू में पहुंचा, तो डॉक्टर्स से पूछा कि प्लाज्मा की जरूरत है, तो जवाब मिला कि नहीं, किसने कह दिया? अभी जरूरत नहीं। यही हाल ऑक्सीजन का रहा, तो बताया गया कि 15 लीटर पर है। इसके बाद मैंने खुद ऑक्सीजन लेवल देखा, तो पाया कि सेचुरेशन 88-90 चल रहा है। डॉ. चौधरी की तीनों बातें गलत पाई। अस्पताल के इस झूठ और अमानवीयता को मैं इसलिए जान पा रहा था कि कोविड पॉजिटिव होने के कारण मां की हालत देखने मैं स्वयं हर दिन खुद आईसीयू में सुबह-शाम जा रहा था । सोचिए , उन परिजनों के बारे में जिनके कोरोना मरीज अंदर है और वे अंदर नहीं जा सकते। यानी वो तो जान ही नहीं सकते कि उनके मरीज के साथ अंदर क्या अनर्थ हो रहा है?
- ऑक्सीजन का पानी खत्म, डॉक्टर-नर्स लापरवाह : जिस दिन मम्मी क्रिटिकल हुई, उसी दिन 13 अप्रैल की बात है। दोपहर मैं मम्मी के पास आईसीयू में था। करीब एक घंटे बाद मम्मी अचानक हाथ मारने लगी, इशारे से घबराहट का संकेत दिया, तो मैंने नर्स-डॉक्टर को आवाज लगाई। दोनों ने हां करके फिर अनसुना कर दिया। मैंने देखा तो मम्मी के टाइट ऑक्सीजन मास्क में बबल आने लगे थे। बार-बार बुलाने पर भी नर्स-डॉक्टर नहीं आए। इस पर मेरे द्वारा नाराजगी जाहिर करने पर उलटे ही नाराज होने लगे। नर्स द्वारा चैक करने पर पता चला कि ऑक्सीजन पाइप के एक हिस्से का पानी समाप्त हो चुका है। मेरे द्वारा नाराजगी जाहिर करने पर डॉक्टर मुझ पर ही नाराज हो गए। जहां तक मुझे याद है, वे डॉक्टर नियाज थे। वे मुझ पर बरस पड़े, बोले कि आप यहां कैसे हो? किसने आपको आईसीयू में आने की परमिशन दी? इस बीच मैंने विवाद टालने के लिए बाहर आना उचित समझा। लेकिन, काश उस समय इन नर्स और डॉक्टरों की लापरवाही को भांप कर गंभीरता से लेता, तो मम्मी ना जाती।
- ऐसी अमानवीयता कि यकीन नहीं हो : जेके अस्पताल में ऐसी अमानवीयता भी हुई कि कभी-कभी यकीन नहीं होता। हम घर पर पौष्टिक भोजन खाकर भी कमजोरी महसूस कर रहे हैं, लेकिन वहां मम्मी को शायद तीन दिन भूखा रखकर मार दिया गया। यह आशंका इसलिए कि अस्पताल की कालाबाजारी ने लिक्विड डाइट में भी पैसा देखा। बात 14 अप्रैल की है। दोपहर में जब मम्मी के पास था, तो डॉक्टर से मम्मी की हालत को लेकर बात कर रहा था। फाइल देखते-देखते डॉक्टर के मुंह से निकला कि अरे इनकी लिक्विड डाइट लिखी है, लेकिन आई नहीं। फिर डॉक्टर को लगा कि मेरे सामने यह नहीं बोलना चाहिए था, इसलिए तुरंत फाइल बंद की और मुझसे कहा कि आप लिक्विड डाइट अरेंज करो। इस पर एक डॉक्टर ब्रजमोहन शर्मा ने कहा कि यहीं तुरंत अरेंज करा दें क्या? मैंने सहमति दी तो डॉक्टर ने फोन कर लिक्विड डाइट का पैकेट बुलवा दिया। इसके एवज में मुझसे 3500 रुपए लिए गए। डॉक्टर को वह डाइट मम्मी को लगाने के लिए कहा, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। करीब 1 घंटे तक परेशान करते रहे। उस समय यह समझ नहीं पड़ी कि इस लिक्विड डाइट को भी बिना लगाए वापस भेजा जा सकता है, लेकिन अब आशंका है कि शायद वह लिक्विड डाइट भी मम्मी को नहीं दी गई हो। इसी तरह से दूसरी बार भी किया गया। दूसरे दिन 15 अप्रैल को भी मैं उसे चार हजार रुपए में खरीदकर लाया था। करीब सवा घंटे बाद मैं आईसीयू से निकलकर आ गया। तब भी मैं नहीं समझ पाया कि शायद अस्पताल में मेरी लाई लिक्विड डाइट मम्मी को नहीं दी गई। ऐसे में 3 दिन की भूखी मम्मी क्या कोरोना से लडेंÞगी। मुझे पूरी आशंका है कि अस्पताल में मेरी लाई लिक्विड डाइट भी बेच दी गई। अस्पताल की ओर से पहले से फाइल में लिखी गई लिक्विड डाइट तो बेंची ही जा चुकी थी। इस तरह एक ही मरीज की दो लिक्विड डाइट उन लोगों ने चंद पैसों के लिए बेच दी। मुझे अभी भी याद है, मां बोल नहीं पा रही थी। कुछ बेसुध सी थी, लेकिन मुझे देखते ही हाथ के इशारे से पूछा था कि क्या मैंने खाना खा लिया। मम्मी का वो इशारे से पूछना अब मैं जिंदगीभर भूल नहीं सकता। मैंने मम्मी को कहा था कि मैंने खा लिया है और तेरे लिए ये लिक्विड डाइट लाया हूं। अभी डॉक्टर लगा देंगे, लेकिन मुझे शायद पता नहीं था कि मेरी मां भोजन की जितनी भूखी थी, शायद उससे कहीं ज्यादा अस्पताल का अमला पैसों का भूखा था।
- शिफ्ट न कर सका चिरायु में : 14 अप्रैल तक अहसास हो गया था कि जेके अस्पताल ठीक नहीं है। 14 व 15 अप्रैल को चिरायु अस्पताल के डॉ. अजय गोयनका के पास दो दिन प्रयास करने के बाद वे मम्मी को शिफ्ट करने के लिए राजी हुए। इसके बाद उन्हें शिफ्ट कराने के लिए अस्पताल में प्रबंधन ने डिस्चार्ज फाइल बनाने में कई घंटे लगा दिए, जिसकी वजह से रात के नौ बज गए। कोरोना पॉजिटिव होने के कारण तब तक मैं काफी थक गया था। थकने के कारण सोचा कि अब कल शिफ्ट करूंगा, क्योंकि चिरायु में एडमिट होने में भी एक घंटे की प्रक्रिया और एक घंटे का रास्ता होने का अनुमान था। इस कारण शिफ्ट करना अगले दिन पर टाला। मैं वहीं आईसीयू में रात करीब पौने ग्यारह तक मम्मी के पास रहा। फिर लौट आया, लेकिन अगले दिन सुबह मां बहुत दूर जा चुकी थीं।
- मौत पर भी झूठ : 16 अप्रैल वह मनहूस दिन! सुबह करीब 10:45 बजे घर से रवाना हुआ। मैं रास्ते में था, तभी डॉक्टर का फोन आया। शायद डॉक्टर नियाज थे। उन्होंने कहा कि मम्मी बहुत क्रिटिकल हैं। हम उन्हें वेंटिलेटर पर शिफ्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें उनकी मौत भी हो सकती है। इस बीच करीब 15 मिनट में मैं अस्पताल पहुंच गया। वहां पहुंचने पर पता चला कि मम्मी नहीं रही। डॉक्टर से पूछा ये कैसे हुआ, तो जवाब मिला कि हृदय की गति और ऑक्सीजन लेवल कम होता गया। फिर देखा तो पाया कि आईसीयू में मरीजों को दौड़-दौड़ कर आॅक्सीजन सिलेंडर लगाए जा रहे हैं। मैंने पूछा कि क्या आॅक्सीजन खत्म हो गई, डॉक्टर बोले नहीं ऐसा नहीं है। जबकि, मेरी आँखें देख रही थीं कि बाहर से सिलेंडर लाकर मरीजों को लगाए जा रहे हैं। मैंने महसूस किया कि शायद ऑक्सीजन खत्म होने से मम्मी पहले ही चली गई थीं ।
- मुझसे ही बोले कि इंजेक्शन के बिल लाओ : रेमडेसिवीर इंजेक्शन की कालाबाजारी और ऐसे अपराधियों को प्रबंधन के प्रश्रय का नजारा भी दिखा। 15 अप्रैल को जब मैंने ब्लैक मार्केट से इंजेक्शन लाकर लगवा दिया, तो पता चला कि इंजेक्शन की एक खेप अस्पताल भी आई है। इस पर मैं इंजेक्शन देने वाले अस्पताल प्रबंधन के संजय गुप्ता के पास पहुंचा। उस समय उनके तेवर-बेहयाई भरे थे। वहां एक पर्ची बना कर दी गई। इस पर्ची को मेडिकल शॉप पर देकर एक इंजेक्शन लेने के लिए कहा गया। इसके 5000 भी ले लिए गए। इसके बाद मुझे इंजेक्शन के लिए परेशान किया जाता रहा। फिर करीब ढाई घंटे बाद कहा गया कि इंजेक्शन खत्म, अब कल मिलेंगे। अगले दिन 16 अप्रैल की सुबह 11.30 बजे मम्मी चली गर्इं। जमा किए पैसे मांगने पर कहा गया कि इंजेक्शन तो मेरी मम्मी के पास भेजकर लगवा दिया है। इस बीच संजय गुप्ता ने कहा कि मेडिकल से नर्स के जरिये मम्मी के पास इंजेक्शन भेजा है। मैंने कहा कि पर्ची मेरे पास है और इंजेक्शन तो मैंने ब्लैक मार्केट से लाकर लगवाया है। इस पर गुप्ता द्वारा बिल मांगा जाने लगा। विरोध करने पर गुप्ता ने कहा कि प्रबंधन के कहने पर इंजेक्शन दिए, अब प्रबंधन कहेगा, तो पैसे वापस दे देंगे। मैं इस बीच मां की पार्थिव देह मिलने का इंतजार कर रहा था, तभी संजय गुप्ता ने खीजते हुए इंजेक्शन के 5000 रुपए लौटा दिए।
- ऑक्सीजन उपलब्धता का खेल : सरकार के रिकॉर्ड में अब तक भोपाल में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। जेके अस्पताल की बात की जाए, तो कई दिनों तक आईसीयू में आने-जाने और कई लोगों से बात करने के कारण पता चला कि जेके अस्पताल में एक ऑक्सीजन टैंक है। इस ऑक्सीजन टैंक से पाइप लाइन के जरिए पूरे अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई होती है। सबसे पहले ग्राउंड फ्लोर पर आईसीयू में पहुंचती है, फिर फर्स्ट फ्लोर, फिर सेकंड फ्लोर, थर्ड फ्लोर और अंत में फोर्थ फ्लोर तक जाती है। मेरी मम्मी शुरुआत में फोर्थ फ्लोर पर भर्ती थी। ऑक्सीजन की कमी और फ्लो कम होने के कारण फोर्थ फ्लोर तक ऑक्सीजन नहीं पहुंची या कम पहुंची, इसी कारण मम्मी क्रिटिकल हुर्इं। उस समय डिमांड के हिसाब से जितनी बार टैंक पर आपूर्ति होनी चाहिए, उससे आधी हो रही थी। इसलिए जैसे ही टैंक में 50 फीसदी ऑक्सीजन रहती, वैसे ही रात के समय ऑक्सीजन प्रबंधन का स्टाफ ऑक्सीजन के फ्लो को कम कर देता। जिस दिन मेरी मम्मी की मौत हुई, उसी दिन जेके अस्पताल में 5 मौतें और हुई थीं। मालूम नहीं, अस्पताल ने उनके मरने की वजह अपने रिकॉर्ड में क्या दर्ज की!
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