‘स्नोफ्लेक मॉडल’ से रखी जाएगी कैंसर मरीजों पर नजर

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम
शहर में बने एम्स में हर साल करीब 36 हजार कैंसर मरीज इलाज के लिए आते हैं, जिनमें से करीब 62 फीसदी मरीज प्रदेश के दूसरे जिलों से आते हैं। इससे यह तय है कि स्थानीय स्तर पर इलाज की सुविधा नहीं मिलने की वजह से लोगों को भोपाल तक आना पड़ता है। विशेषज्ञों का मानना है कि लगातार इलाज और फॉलोअप के लिए बार-बार भोपाल आना मरीजों के लिए मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। यही वजह है कि कई मरीज इलाज बीच में छोड़ देते हैं या समय पर फॉलोअप नहीं करा पाते, जिससे बीमारी गंभीर हो जाती है। यह इलाज में देरी कैंसर से होने वाली मौतों की एक बड़ी वजह बनती है। इस समस्या के समाधान के लिए अब देश के 5 बड़े संस्थानों द्वारा ‘स्नोफ्लेक मॉडल’ विकसित किया गया है। यह मॉडल गांवों और जिलों के अस्पतालों को प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल से जोड़ेगा। जिसे अपेक्स सेंटर कहा जाएगा। मध्यप्रदेश में यह भूमिका एम्स भोपाल निभाएगा। यह मॉडल चार लेवल में तैयार किया गया है। सबकी अलग-अलग भूमिका तय की गईं है।
कम परिश्रम में बेहतर इलाज देना लक्ष्य
इस मॉडल के जरिए, कैंसर की जल्द पहचान और रोगी को कम परिश्रम किए बेहतर इलाज मुहैया कराने का लक्ष्य निर्धारित किया है। शुरुआत गांव और कस्बों में शुरुआती स्क्रीनिंग और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर फॉलोअप की सुविधा उपलब्ध कराने से होगी। एम्स भोपाल, एम्स जोधपुर, पूर्वोत्तर इंदिरा गांधी क्षेत्रीय स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विज्ञान संस्थान (शिलॉन्ग), बीएलके मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल (नई दिल्ली) और टोमो रिबा इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड मेडिकल साइंसेज (नाहरलागुन) ने संयुक्त रूप से यह रिसर्च कार्य किया।  एम्स भोपाल के ऑन्कोलॉजी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अंकित जैन और यूरोलॉजी विभाग के डॉ. केतन मेहरा की मॉडल को तैयार करने में अहम भूमिका रही है। स्नोफ्लेक मॉडल कैंसर इलाज के लिए एक संगठित ढांचा प्रस्तुत करता है। जिसमें इलाज की सुविधा केंद्रीय स्तर से लेकर गांव तक पहुंचाने की योजना है। इस मॉडल के केंद्र में एक एपेक्स सेंटर होता है, जो आमतौर पर राज्य का कोई प्रमुख कैंसर अस्पताल या चिकित्सा संस्थान होता है। यह संस्थान नीति निर्माण और उच्चतम स्तर की देखरेख करता है। इसके बाद टियर 2 शहरों को हब के रूप में चुना जाता है। जहां बेहतर स्वास्थ्य ढांचा होने से ये इलाकाई इलाज के केंद्र बनते हैं। इन हब के अंतर्गत आने वाले जिलों में नोडल सेंटर स्थापित किए जाते हैं और उनके नीचे प्राइमरी सेंटर होते हैं, जो गांवों या छोटे शहरों में बनाए जाते हैं। यह मॉडल मरीजों को दो दिशाओं में सुविधा देता है। जिसमें जांच और इलाज के लिए ऊपर के दो सेंटर को जिम्मेदारी दी जाती है। वहीं, फॉलोअप तथा पल्लियेटिव केयर के लिए नीचे के दो सेंटर को काम करना होता है। टेलीमेडिसिन और डिजिटल रिकॉर्ड की मदद से राज्यभर के मरीजों को एक प्लेटफार्म से जोड़ा जा सकता है।
 टियर 2 और टियर 3 शहरों में यह चुनौतियां
टियर 2 और 3 शहरों में संगठित कैंसर केयर सिस्टम की कमी, जागरूकता और स्क्रीनिंग के अभाव, और प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी के कारण मरीजों में बीमारी देर से पकड़ में आती है। शुरुआती इलाज में लापरवाही, टेस्ट रिपोर्ट में देरी, और महंगे शहरी इलाज के चलते 80 प्रतिशत मरीज एडवांस स्टेज में पहुंच जाते हैं। यही नहीं, महानगरों में बार बार इलाज के लिए जाना आर्थिक बोझ बढ़ाता है। जो इलाज अधूरा छोड़ने का प्रमुख कारण बनता है। इसी वजह से कैंसर के रोगियों का का सर्वाइवल रेट बेहद कम है।
किस जिले में कितने मरीज
भोपाल में सर्वाधिक 12222 कैंसर के मरीज है, जबकि आगर मालवा (3664), रायसेन (1776), विदिशा (1536), नर्मदापुरम (1216), सागर (1072), रीवा (944) जैसे जिले टॉप पर हैं। हालांकि, इसका बड़ा कारण भौगोलिक नजदीकी है। लेकिन, यह भी सवाल उठाता है कि इन जिलों के जिला अस्पताल या मेडिकल कॉलेज में कैंसर इलाज की व्यवस्था क्यों नहीं की जा रही है। 

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