
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश की आर्थिक राजधानी के नाम से पहचाने जाने वाले इंदौर शहर से लेकर इस लोकसभा सीट के ग्रामीण इलाकों तक में इस बार हारजीत की जगह रिकॉर्ड बनाने को लेकर ही चर्चा हो रही है। इसकी वजह है, इस सीट के कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय बम द्वारा नाम वापस कर भाजपा का दामन थाम लेना। माना जा रहा है कि इस बार भाजपा प्रत्याशी एक बार फिर से प्रदेश में सर्वाधिक मतों से जीत का रिकॉर्ड बनाएंगे। पिछले चुनाव में भी लालवनी ने प्रदेश की सभी सीटों में सर्वाधिक मतों से जीत का रिकार्ड बनाया था। वैसे भी यह ऐसी सीट है, जो भाजपा का बेहद मजबूत गढ़ है। इस सीट पर तीन दशक से अधिक समय से भाजपा का ही परचम फहर रहा है। भाजपा ने पिछले चार दशकों में लगातार नौ चुनाव जीते हैं। इस सीट से लगातार पूर्व लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन जीतती रही हैं। मध्य प्रदेश में सबसे अधिक मतदाता इसी सीट पर हैं, जो ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। इंदौर जिले में नौ विधानसभा क्षेत्र हैं, 2023 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को सभी सीटों पर जीत मिली है। वहीं, इनमें से आठ सीटें इंदौर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा हैं, जबकि डॉ अंबेडकर नगर (महू) पड़ोसी धार लोकसभा सीट के अंतर्गत आता है। इस सीट पर अब भाजपा प्रत्याशी का मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशियों से है, लेकिन ऐसा कोई निर्दलीय नही है जो लालवानी के लिए किसी भी तरह की चुनौती खड़ी कर सके। इसकी वजह है इस सीट पर मतों का विभाजन सामान्यत: दो दलों के बीच ही होता रहा है। तीसरी ताकत के रूप में दो बार जरूर यहां से प्रत्याशी लोकसभा पहुंचे, लेकिन इसके अलावा कभी कोई प्रत्याशी उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर सका है। इंदौर में निर्दलीय प्रत्याशियों को मिलने वाले मतों का प्रतिशत सामान्यत: कुल मतदान का दो से तीन प्रतिशत के बीच ही रहा है। ऐसी स्थिति में इस बार के चुनाव में भी बहुत ज्यादा बदलाव की स्थिति नजर नहीं आ रही। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि कांग्रेस पहले कह चुकी है कि पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के नामांकन वापस लेने के बाद वह किसी अन्य निर्दलीय प्रत्याशी को अपना समर्थन नहीं देगी।
हारते ही समाप्त हो जाती है राजनीति
इंदौर लोकसभा सीट के बारे में कहा जाता है कि जो नेता यहां से लोकसभा चुनाव हारा, समझो उसकी राजनीति खत्म। पुराने आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बात सही भी दिखाई देती है। वर्ष 1952 से लेकर वर्ष 2019 तक कुल 18 बार लोकसभा चुनाव हुए। इनमें से इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें ,तो ज्यादातर में चुनाव के बाद हारे हुए प्रत्याशी का कोई अता-पता ही नहीं चला। यानी वे राजनीति के पटल से गायब हो गए। भाजपा, कांग्रेस ही नहीं अन्य राजनीतिक दलों की भी यही स्थिति है। हारे हुए प्रत्याशियों को संगठन में भले ही जगह मिल गई, लेकिन राजनीति की मुख्यधारा से वे बाहर ही रहे। ऐसे ही नेताओं में कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रकाशचंद्र सेठी का भी नाम है। वे चार बार इंदौर सीट से सांसद रहे हैं। वे देश के गृहमंत्री भी रहे। उन्होंने वर्ष 1967, 1971, 1980 और 1984 में संसद में इंदौर का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1989 में वे पहली बार इंदौर लोकसभा क्षेत्र से लोकसभा चुनाव हारे और इसके बाद उनकी राजनीति खत्म हो गई। इस हार के बाद वे किसी बड़ी भूमिका में नजर नहीं आए।
पटेल और संघवी रहे अपवाद: इंदौर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने वर्ष 1952 से वर्ष 2019 तक हुए 18 चुनाव में 11 अलग-अलग प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। इनमें से सिर्फ चार ही जीत का परचम लहरा पाए। ये चार कांग्रेसी हैं नंदलाल जोशी, कन्हैयालाल खादीवाला, प्रकाशचंद्र सेठी और रामसिंह वर्मा। इसके अलावा कांग्रेस के झंडे तले मैदान में उतरे नंदकिशोर भट्ट, ललित जैन, मधुकर वर्मा, पंकज संघवी, रामेश्वर पटेल, महेश जोशी, सत्यनारायण पटेल चुनाव में जीत दर्ज नहीं कर सके।
कांग्रेस कर रही है लगातार प्रयोग
कांग्रेस क्षत्रपों की पैंतरेबाजी, स्थानीय दिग्गजों की आपसी लड़ाई और संगठन पर वर्चस्व की होड़ के चलते इंदौर बीते 35 साल में कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रयोग का बड़ा केंद्र बन गया है। 1989 में यहां कांग्रेस का दबदबा खत्म होने की शुरुआत हुई और अब यहां पार्टी को सबसे बुरा समय देखना पड़ रहा है। प्रयोग का यह सिलसिला कांग्रेस ने ललित जैन के साथ शुरू किया था। फिर यह मधुकर वर्मा, पंकज संघवी, महेश जोशी, रामेश्वर पटेल से होते हुए सत्यनारायण पटेल तक पहुंचा था। हर चुनाव में यहां पार्टी का नजरिया अलग रहा। कभी भी यह कोशिश नहीं हुई कि पिछली हार से सबक लेकर पार्टी जीत के लिए एकजुट हो।
कांग्रेस नेताओं के कारण ही जीते थे दाजी
1962 में जब कॉमरेड होमी दाजी ने इंदौर में कांग्रेस का रास्ता रोका था। तब भी उसका कारण कांग्रेस नेता ही थे। तब यहां लड़ाई कांग्रेस बनाम जनसंघ नहीं, बल्कि इंटक बनाम कांग्रेस हुई थी। रामसिंह भाई वर्मा से खौफ खाने वाले उस जमाने के तमाम कांग्रेसी दिग्गज चुनाव में परदे के पीछे दाजी के पैरोकार बने थे। वर्मा तब मात्र 6,293 वोट से चुनाव हारे थे। 1977 में जनता पार्टी की लहर थी। प्रकाशचंद सेठी मुकाबले में नहीं थे और तब भी यहां इंटक के दबदबे को देखते हुए कांग्रेस ने सेठी के विकल्प के तौर पर इंटक के दिग्गज नेता शाजापुर निवासी नंदकिशोर भट्ट को मैदान में उतारा था। तब कल्याण जैन जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। लहर के साथ ही इस चुनाव ने स्थानीय बनाम बाहरी का रूप भी लिया और नतीजा जैन के पक्ष में रहा। जैन 1972 में सेठी के मुख्यमंत्री बनने के कारण हुए उपचुनाव में रामसिंह भाई वर्मा से मात्र 15611 मतों से हारे थे। इंदौर लोकसभा सीट पर सबसे कम मतों से जीत का रिकॉर्ड पूर्व सांसद होमी दाजी के नाम है। उन्होंने वर्ष 1962 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस के रामसिंह भाई वर्मा को सिर्फ छह हजार मतों से हराया था। इसी तरह सबसे बड़ी जीत का रिकार्ड भाजपा के शंकर लालवानी के नाम है।