
भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश में भले ही भाजपा की सरकार बीते कई चुनावों से बनती आ रही है, लेकिन ग्वालियर जिले की डबरा विस सीट ऐसी है , जहां पर कांग्रेस उम्मीदवार ही जीतता रहा है। इसकी वजह है वह परिसीमन, जिसकी वजह से भाजपा को इस सीट पर नुकसान हुआ है। ग्वालियर -चंबल अंचल की यह ऐसी सीट है, जो यहां से निर्वाचित हुए दो विधायकों की वजह से चर्चित सीटों में शुमार हो चुकी है। अगर अभी की बात की जाए तो इस सीट पर कांग्रेस के सुरेश राजे विधायक हैं। उन्होंने उपचुनाव में तत्कालीन मंत्री इमरती देवी को पराजित किया था। इस उपचुनाव की खासियत यह रही की इमरती देवी और सुरेश राजे दलबदल कर एक -दूसरे के दल के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे थे। इमरती देवी के पहले यहां से भाजपा केे टिकट पर मौजूदा गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा जीतते रहे हैं, जिसकी वजह से यह सीट चर्चा में बनी रहती थी, लेकिन परिसीमन के बाद यह सीट आरक्षित हो गई, जिसकी वजह से कांग्रेस प्रत्याशी के रुप में इमरती देवी यहां से जीतने लगी, लेकिन उनकी जीत में उपचुनाव के समय ब्रेक लग गया। इस सीट पर सबसे बड़ा असर परिसीमन ने डाला है, जिसकी वजह से भाजपा के प्रभाव वाला कुछ इलाका भितरवार में शामिल हो गया, जिसका नुकसान भाजपा को हुआ है। इस इलाके के इसके बाद जातीय समीकरण बदलने से कांग्रेस को फायदा हुआ है। उप्र की सीमा के पास होने से यहां पर बसपा का प्रभाव भी है। 2008 के बाद से जो चुनावी परिणाम आ रहे हैं, वे सभी कांग्रेस के पक्ष में रहे हैं। जबकि शहरी इलाके में यहां बसपा अपना प्रभाव दिखाती रहती है। यही वजह है कि डबरा नगर पालिका अध्यक्ष पद पर बसपा प्रत्याशी के रुप में सत्यप्रकाशी परसेडिया दो बार चुनी जा चुकी हैं। ग्वालियर जिले की यह सीट 2008 से अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित है। इसके बाद से इस सीट पर भाजपा को जीत नहीं मिल सकी है। इस सीट पर इस बार भी भाजपा की तरफ से इमरती देवी का प्रत्याशी बनना तय माना जा रहा है, तो कांग्रेस की तरफ से मौजूदा विधायक सुरेश राजे को ही टिकट मिलना तय है।
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पहले भी भाजपा के लिए आसान नहीं रही
इस सीट पर भले ही लगातार तीन बार नरोत्तम मिश्रा ने जीत दर्ज की थी , लेकिन तब भी यह सीट भाजपा के लिए आसान नहीं रही। इसकी वजह है हार जीत का मार्जिन। मिश्रा इस सीट पर बहुत ही मामूली अंतर से अपने मैनेजमेंट के सहारे जीत पाते थे। यही नहीं उन्हें एक बार बसपा प्रत्याशी से हार का भी सामना करना पड़ा है। इस सीट पर अब भी मिश्रा का प्रभाव है, लेकिन वह प्रभाव ऐसा नही है कि जिससे भाजपा की जीत तय हो सके। यह सीट भाजपा विरोधी वोटर्स वाली भी है, क्योंकि चुनावी समीकरण हर बार कुछ इस तरह के बन जाते हैं कि भाजपा का कोर वोटर भी यहां कुछ भी नही कर पाता है।
कांग्रेस से जुड़ा मतदाता
इस क्षेत्र में जाटव, मुस्लिम, बघेल कुशवाहा, गुर्जर मतदाता करीब दो दशक तक बसपा के साथ खड़ा रहा , लेकिन बाद में वह मतदाता इमरती देवी से जुडक़र कांग्रेस के नजदीक अधिक चला गया , जो बीते चुनाव में भी कांग्रेस के साथ खड़ा नजर आया, जिसकी वजह से भाजपा के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरी इमरती देवी को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। यही नहीं इमरती देवी के सामने सबसे बड़ी समस्या भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं के अलावा नरोत्तम मिश्रा कैम्प से पटरी नहीं बिठा पाना भी है।
इस तरह का रहता है ट्रेंड
अब तक इस इलाके का जाटव वोटर कांग्रेस या बसपा को ही प्राथमिकता देता है। जबकि ब्राह्मण वोटरों के बारे में कहा जाता है कि यह वर्ग प्रत्याशी के अनुरूप मतदान करता रहा है। इसी तरह से कुशवाहा समाज में बसपा और भाजपा दोनों के लिए प्राथमिकताऐं बदलती रहती हैं। जबकि यहां के सम्मिलित वैश्य एवं व्यापारी वर्ग के बारे में माना जाता है कि यह प्रत्याशी पर ध्यान देकर वोट करता है।
कांग्रेस की उपचुनाव में जीत की वजह
कांग्रेस के टिकट पर 2020 में हुए उपचुनाव में सुरेश राजे जाटव ने जीत दर्ज की थी। वे पहले भाजपा में थे और 2013 में भाजपा टिकट पर चुनाव भी लड़ा था। उनका अपना खास प्रभाव नहीं माना जाता है, लेकिन कांग्रेस के कोर वोटर का साथ और दलबदल से नाराज मतदाताओं ने उनका साथ दिया जिसकी वजह से उनकी जीत तय हुई।
यह हैं जातीय समीकरण
अगर डबरा विधानसभा क्षेत्र के जातीय समीकरण देखें, तो यहां पर सर्वाधिक 25 हजार जाटव मतदाता हैं। इसी तरह से ब्राह्मण 15000, बघेल 16000, कुशवाहा 16000, परिहार 9000, साहू 8000, वैश्य 8000, रावत 7000, गुर्जर 8000, मुस्लिम 7000, सिंधी 7000, बाथम 8000, सिख 5000 और कुम्हार समाज के 5000 मतदाता हैं।
पिछले चुनाव के समीकरण
2018 के आम चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर इमरती देवी 58 हजार वोट से जीती थीं, वह 2008 व 2013 में भी वे बड़े अंतर से जीतती रहीं,बीते आम चुनाव में भाजपा किसी भी बूथ पर नहंी जीत सकी थी, लेकिन उपचुनाव 2020 में इमरती देवी को बतौर बीजेपी प्रत्याशी सात हजार मतों से हारना पड़ा था। इसकी वजह रही जाटव, गुर्जर, बघेल, सिख और कुशवाहा वोटरों द्वारा उनका साथ नही दिया जाना। यह बात अलग है कि डबरा के शहरी इलाके में उन्हें बढ़त मिली थी।