
- गुजरात के चुनाव परिणाम से दिखी आशा की किरण
भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। गुजरात में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत में आदिवासी वोटरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गुजरात में भाजपा को मिले थोकबंद आदिवासी वोट से मप्र भाजपा को आशा की किरण दिखी है। पार्टी को उम्मीद है की आगामी विधानसभा चुनाव में प्रदेश के आदिवासी गुजरात की ही तरह भाजपा को वोट देंगे, जिससे पार्टी 51 फीसदी वोट का टारगेट प्राप्त कर 200 विधानसभा सीटों का जीत सकती है।
गौरतलब है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोट बैंक ने करवट ली तो एसटी वर्ग के लिए आरक्षित 90 प्रतिशत सीटें भाजपा की झोली में आ गईं। आमतौर पर आदिवासी वोट बैंक का रुझान एक जैसा ही रहता है इसलिए भाजपा को अगले वर्ष होने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक के चुनाव से भी ऐसी ही उम्मीद है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में 2018 में भाजपा की हार की बड़ी वजह आदिवासी सीटों पर मिली पराजय भी मानी जाती है। ऐसे में गुजरात ने उम्मीदों को मजबूत किया है। वर्ष 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में जब आदिवासी वोट कांग्रेस के साथ गया था तो वहां, की 27 एसटी आरक्षित सीटों में से कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं और भाजपा को नौ। वहीं मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। गुजरात में एसटी की सीटें कम होने पर भाजपा सत्ता बचाने में सफल रही थी जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी थी।
84 सीटों पर आदिवासी वोटर का दबदबा
प्रदेश की लगभग 84 सीटों पर आदिवासी वोटर ही तय करते हैं कि कौन सी पार्टी जीतेगी। मप्र के 20 जिलों के 89 ब्लॉक आदिवासी बहुल हैं। इनमें सबसे ज्यादा इंदौर संभाग के 40 विकासखंड आदिवासी बहुल हैं। इसी वजह से लगातार हो रहे इन राजनीतिक कार्यक्रमों का केंद्र इंदौर ही है। दूसरे नंबर पर जबलपुर संभाग के 27 ब्लॉक जनजातीय बहुल हैं। मप्र विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं इनमें से 47 आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। प्रदेश में 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित इन 47 सीटों में से भाजपा ने 31 सीटें जीती थीं। कांग्रेस के खाते में सिर्फ 15 सीटें आई थीं, लेकिन 2018 के चुनाव में भाजपा को इसी ट्राइबल बेल्ट से करारी हार मिली और वो सिर्फ 16 पर ही जीत दर्ज कर सकी। कांग्रेस ने 30 सीटें जीती थीं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं आदिवासी वोटों के कारण ही 15 साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के नजरिए से देखें तो भाजपा लगातार आदिवासियों के बीच सक्रिय रही है। केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 50 प्रतिशत या इससे ज्यादा जनजातीय आबादी वाले कुल 36,428 गांव हैं। आधी से ज्यादा आदिवासी आबादी वाले गांवों में मप्र देश में पहले नंबर पर है। एमपी के 7307 गांवों में आदिवासियों की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है। दूसरे नंबर पर राजस्थान में 4302 गांवों में 50 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। इसके बाद छत्तीसगढ़ में 4029, झारखंड में 3891, गुजरात में 3764, महाराष्ट्र में 3605 गांवों में आधे से ज्यादा आदिवासी रहते हैं।
गुजरात का असर दिखेगा मप्र में
यह तो तय माना जा रहा है कि जिस तरह आदिवासी वोटर ने गुजरात में भाजपा को थोकबंद वोट दिया है, उसका असर मप्र में भी दिखगा। गुजरात में विधानसभा चुनाव के परिणामों में आदिवासी वोटों ने करवट ली तो परिणाम पलट गए। इस बार भाजपा को 23, कांग्रेस को मात्र तीन सीटें मिलीं, जबकि आम आदमी पार्टी को एक। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि यही रुझान अब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकते हैं। साथ ही इससे झारखंड सहित लोकसभा चुनाव में भाजपा को बढ़त मिलेगी। इन राज्यों में भी आदिवासी वोट भाजपा को जा सकता है। गौरतलब है कि मप्र में 21.10 प्रतिशत, गुजरात में 15 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 30.62 प्रतिशत और राजस्थान में 13.48 प्रतिशत आदिवासी जनसंख्या है। लोकसभा में भी आदिवासियों के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। दरअसल, भाजपा प्रदेश में अपना वोट शेयर 50 प्रतिशत पार ले जाने के लिए आदिवासी समुदायों को जोड़ने में लगी हुई है।
प्रदेश में आदिवासी लगभग 23 प्रतिशत हैं। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 42.5 प्रतिशत, वर्ष 2008 में 37.6 प्रतिशत, वर्ष 2013 में 45.7 प्रतिशत एवं वर्ष 2018 में घटकर 41.5 प्रतिशत हो गया था। अब भाजपा का लक्ष्य आदिवासी वोट को भी दस प्रतिशत बढ़ाने का है। माना जा रहा है कि इन कोशिशों में पेसा कानून महत्वपूर्ण काम करेगा। इधर, जय युवा आदिवासी शक्ति संगठन को लेकर भी भाजपा सतर्कता के साथ आगे बढ़ रही है। जयस ने कांग्रेस से हाथ मिलाने के बजाय अकेले ही करीब 100 सीटों पर चुनाव में उतरने के लिए ऐलान कर दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि जयस के अकेले मैदान में उतरने से भाजपा से अधिक नुकसान कांग्रेस का हो सकता है। गैर भाजपा वोट के बंटने का सीधा लाभ भाजपा को ही मिलेगा। यही स्थिति छत्तीसगढ़ में भी बन सकती है। छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज ने भानुप्रतापपुर में आदिवासी वोट के ध्रुवीकरण की कोशिश की है। ऐसे में भाजपा को फायदा मिल सकता है।
भाजपा का पूरा फोकस आदिवासी वर्ग पर
मप्र की सियासत में इन दिनों समाज का सबसे पिछड़ा तबका यानी आदिवासी राजनीतिक दलों की जुबान पर है। प्रदेश की करीब 2 करोड़ से ज्यादा आदिवासी आबादी को लुभाने के लिए सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस के नेता जोर लगा रहे हैं। पिछले चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस को बढ़त मिली, तो 15 साल बाद भाजपा को सत्ता से दूर होना पड़ा। पिछले चुनाव में हुई चूक को भाजपा दोहराना नहीं चाहती। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आदिवासी वर्ग को पार्टी से जोड़ने के लिए पेसा कानून लागू किया है। आदिवासियों से जुड़ी तमाम योजनाओं, जनजातीय जननायकों की प्रतिमाएं लगवाने और स्मारकों का विकास कराने जैसे काम तेजी से शुरू किए हैं। 15 नवंबर से मप्र में पेसा कानून प्रभावी होने के बाद सीएम खुद आदिवासी क्षेत्रों में जाकर पेसा जागरूकता शिविर लगाकर आदिवासियों से सीधे जुड़ रहे हैं।