प्रीतम लोधी की उलझन सुलझाने में उलझी भाजपा

भाजपा
  • सागर जिले के बंडा में होने वाल  पिछड़ा वर्ग सम्मेलन पर लगी निगाहें
    भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। नगरीय निकाय चुनावों में अपने ही गढ़ों में हारने के बाद अब भाजपा के सामने प्रीतम लोधी की नई मुसीबत बनी हुई है। हालात यह हंै कि इस मामले को सुलझाने में भाजपा खुद उलझती नजर आने लगी है। दरअसल ग्वालियर -चंबल अंचल में भाजपा को लगातार चुनावी झटके लग रहे हैं। पहले आम विधानसभा चुनाव में और फिर नगरीय निकाय चुनाव में भी भाजपा को इस अंचल के  दोनों नगर निगमों में महापौर पद का चुनाव हारना पड़ा है।
    इस बीच प्रीतम लोधी को लेकर नया बखेड़ा खड़ा बना हुआ है। दरअसल लोधी द्वारा दिए गए बयान के बाद भाजपा ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है , जिससे नाराज प्रीतम ने अब भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। वे पिछड़े वर्ग को भाजपा के खिलाफ लामंबद करने में लगे हुए हैं। बीते विधानसभा 2018 के ठीक पहले भी इसी तरह की स्थिति बनी थी। उस समय भाजपा के एक तत्कालीन दलित मंत्री की सलाह पर मुख्यमंत्री द्वारा आरक्षण को लेकर माई के लाल बाला बयान दिया गया था, जिसके बाद स्वर्ण वर्ग में गहरी नाराजगी पैदा हो गई थी , फलस्वरुप भाजपा का लगभग ग्वालियर -चंबल अंचल से सूफड़ा ही साफ हो गया था। अब फिर इसी तरह की स्थिति बनती जा रही है। इस बार स्वर्ण की जगह पिछड़ा वर्ग प्रीतम की बर्खास्तगी की वजह से नाराज होता जा रहा है। यही वजह है की भाजपा इस मामले में भारी उलझन में बनी हुई है।
    भाजपा से निकाले जाने के बाद लोधी ने भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण से हाथ मिला लिया है। इसके अलावा लोधी खुद भी अपनी जाति को भी लामंबद करने में लगे हुए हैं। प्रदेश में जहां ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या दस फीसदी है तो वहीं लोधी समाज के मतदाताओं की संख्या 9 फीसदी है। अगर आंकड़ों के हिसाब से देख जाए तो भाजपा का यह दांव पहले फायदे वाला नजर आ रहा था , लेकिन अब उलझन भरा बनता जा रहा है। उधर लोधी अपने मामले को जातिगत के साथ ही ओबीसी से भी जोड़ने में लगे हुए हैं। अब इस मामले को लेकर ओबीसी महासभा राज्य सरकार के खिलाफ 4 सितंबर को सागर जिले के बंडा में महापंचायत करने जा रही है। दरअसल प्रदेश में ओबीसी आबादी की संख्या 52 फीसदी है। इसकी वजह से ही भाजपा की चिंता बढ़ रही है। भाजपा की प्रदेश में 2003 में सत्ता में वापसी ओबीसी वोटों के समर्थन से हुई थी। अगर लोधी समाज की बात की जाए तो प्रदेश में लोधी मतदाताओं का प्रभाव 40 सीटों पर माना जाता है। यह समाज भाजपा का प्रबल समर्थक भी माना जाता रहा है। बीते दो दशक से इस समाज के मत भाजपा को ही मिलते रहे हैं। इसकी वजह है उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे नेताओं का मप्र और उप्र में मुख्यमंत्री बनाया जाना। यह बात अलग है की प्रदेश में बीते दो दशक से भाजपा लगातार ओबीसी वर्ग से आने वाले नेताओं को मुख्यमंत्री बनाती आ रही है। इनमें उमा भारती , बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। प्रदेश में लगातार भाजपा को सत्त दिलाने में ओबीसी मतदाताओं ने अहम  भूमिका निभाई। प्रीतम  लोधी के इस तरह के कदमों को देखते हुए ही अब भाजपा ने अपने ग्वालियर -चंबल अंचल के बड़े पिछड़ा वर्ग के नेता पूर्व मंत्री नारायण सिंह कुशवाहा को आगे कर दिया है। कुशवाहा को पार्टी ने ओबीसी प्रकोष्ठ का प्रदेश अध्यक्ष घोषित कर दिया है।
    राज्य सरकार 27 प्रतिशत आरक्षण के मामले को अदालत के सामने रखने में विफल रही है। ओबीसी महासभा के लोकेंद्र गुर्जर का आरोप है की भाजपा अगड़ी जाति को खुश करने के लिए ओबीसी आरक्षण के मामले को जोरदार तरीके से पेश नहीं कर रही है। 2018 में बीजेपी ने ओबीसी वोटरों के सहारे कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी थी क्योंकि ऊंची जाति पार्टी से खफा थी। उधर, भाजपा के नवनियुक्त ओबीसी प्रकोष्ठ  के प्रदेश अध्यक्ष नारायण सिंह कुशवाहा का कहना है कि प्रीतम लोधी भाजपा को प्रभावित नहीं कर सकते। ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय जानता है कि भाजपा हमेशा उनके कल्याण के लिए काम करती है।
    कई अंचलो में बढ़ सकती हैं मुश्किलें
    भाजपा के सामने बीते चुनव के ठीक पहले की स्थिति एक बार फिर से बन रही है, जिसकी वजह से उसके सामने यह संकट बना हुआ है की अगर वह एक वर्ग का पक्ष लेती है तो दूसरा बड़ा वर्ग नाराज हो जाएगा। एक पक्ष की ताकत बीते चुनाव में भाजपा देख चुकी है। उससे सबक लेकर इस बार संगठन ने तेजी से कार्रवाई की तो अब दूसरा पक्ष अपनी ताकत दिखाने में जुट गया है। इस वजह से भाजपा को अब प्रदेश के पांच में से तीन अंचलों में नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसकी वजह है बुंदेलखंड और महाकौशल अंचल में भी लोधी समाज का अच्छा खासा प्रभाव होना। इस एपीसोड के पहले तक भाजपा का पूरा फोकस चंबल और विंध्य और उसके बाद महाकौशल पर था। 2018 के चुनाव में बीजेपी को विंध्य की 30 में से 24, बुंदेलखंड की 26 सीटों में से 18 पर जबकि चंबल की 34 में से महज 7 सीटों पर ही जीत मिल सकी थी।

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