
- पार्टी की कार्यशैली की वजह से नहीं बढ़ पा रहा कांग्रेस का ट्रायबल मूवमेंट…
भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। जिस पार्टी की सरकार में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग लगातार उठती रही हो, उसी कांग्रेस पार्टी के संगठन में मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य मप्र के महाकौशल अंचल में पार्टी के संगठन तक पर आदिवासी छोड़कर दूसरे वर्ग के नेताओं का पूरी तरह से कब्जा बना हुआ है। इसे पार्टी की विडंबना कहें या फिर कांग्रेस की। हालत यह है कि इस अंचल के तहत आने वाले आठ जिलों में से पांच पर सवर्ण नेताओं के हाथों में जिले की कमान है।
प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिलों में यह हालत तब है जबकि संगठन द्वारा मिशन 2023 के मद्देनजर घर-घर चलो अभियान के माध्यम से अपने खोए दलित और आदिवासी वोट बैंक को वापस लाने की कवायद की जा रही है। यही नहीं यह वो अंचल है जहां से बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कुछ हद तक बीते चुनावों की तुलना में अच्छी मदद मिली थी और कांग्रेस की डेढ़ दशक बाद सत्ता में वापसी हो सकी थी। सवाल यह है कि कांग्रेस अपने को सबसे बड़ा आदिवासी हितैषी बताने में लगी हुई है, लेकिन आठ मे से पांच जिलों की कमान जिस तरह से अन्य वर्ग के नेताओं के हाथों में है उससे उसके दावों की पोल खुद ही खुल जाती है। शायद यही वजह है कि आदिवासी बाहुल्य महाकोशल अंचल में सालों से गैर आदिवासियों को जिलाध्यक्ष रहने की वजह से पार्टी के संगठन को मजबूती नहीं मिल पा रही है। इसी तरह से इस अंचल के सबसे बड़े महानगर जबलपुर ग्रामीण जिलाध्यक्ष के लिए ग्रामीण के बजाय शहरी पृष्ठभूमि वाले ही दौड़ में बने हुए हैं। कांगे्रस द्वारा इस क्षेत्र में आदिवासियों को मैका नहीं देने की वजह से ही उनमें नेतृत्व डेवलप नहीं हो पा रहा है। आलम है कि सिर्फ चुनाव के दौरान आदिवासियों के बीच टिकट को लेकर लामबंदी के अलावा ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस कोई बड़ा ट्राइबल मूवमेंट खड़ा नहीं कर पा रही है। हाल ही में जबलपुर शहर जिलाध्यक्ष जगत बहादुर सिंह अन्नू को बनाया गया है, लेकिन वहीं ग्रामीण जिलाध्यक्ष का पद खाली पड़ा हुआ है। दावेदारों में नीलेश अवस्थी हैं, जो दो बार पार्षद व जिला कोआॅपरेटिव बैंक के चेयरमैन रह चुके हैं। विक्रम सिंह लोधी पूर्व में पाटन विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। दुर्गेश पटेल पूर्व प्रदेश सचिव रहे हैं। राजेश तिवारी दो बार पार्षद रह चुके हैं। पूर्व ग्रामीण जिलाध्यक्ष राधेश्याम चौबे थे, जोकि 9 साल बाद हटे हैं। गौरतलब है कि मप्र में आदिवासी मतदाताओं की संख्या करीब 21 फीसदी है। इनके लिए प्रदेश में विधानसभा कमी 47 और लोकसभा की 3 सीटों आरक्षित हैं। इस वर्ग की ताकत का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि वह प्रदेश की करीब 90 सीटों पर हार जीत तय करने की ताकत रखता है।
अंचल का राजनैतिक हिसाब किताब
इस अंचल के तहत एक संभाग आता है, जिसके तहत 8 जिले हैं। इन जिलों में कुल 38 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इनमें जबलपुर जिले के तहत विस की आठ सीटें आती हैं। इनमें पाटन, बरगी, जबलपुर पूर्व, जबलपुर उत्तर, जबलपुर कैंट, जबलपुर पश्चिम, पनागर, सीहोरा शामिल हैं। छिंदवाड़ा जिले के तहत सात सीटें आती हैं। इनमें जुन्नारदेव, अमरवाड़ा, चौरई, सौंसर, छिंदवाड़ा, परासिया, पांढुर्णा, जबकि बालाघाट जिले के तहत छह सीटें आती हैं। इनमें बैहर, बालाघाट, परसवाड़ा, लांजी, बारासिवनी, कटंगी शामिल हैं। इसी तरह से कटनी जिले के तहत चार सीटें आती हैं इनमें बड़वारा, विजयराघवगढ़, मुड़वारा, बहोरीबंद, नरसिंहपुर जिले के तहत आने वाली चार सीटों में गोटेगांव, नरसिंहपुर, तेंदूखेड़ा, गाडरवाड़ा, सिवनी जिले की चार सीटों में बरघाट, सिवनी, केवलारी, लखनादौन, मंडला जिले की तीन सीटों में बिछिया, निवास, मंडला और डिंडौरी जिले के दो सीटों में डिंडौरी और शाहपुरा की सीटें शामिल हैं।
किस जिले में कौन और कब से जिलाध्यक्ष
इस अंचल के तहत आने वाले जिलों की बात करें तो छिंदवाड़ा जिले में संगठन की कमान बीते दो दशक से गंगा तिवारी के पास बनी हुई है। इसी तरह से नरसिंहपुर जिले की कमान आठ सालों से एमएस तिवारी के पास है, जबकि डिंडौरी की कमान सात सालों से वीरेंद्र शुक्ला के पास बनी हुई है। अन्य जिलों में देखें तो मंडला में राकेश तिवारी और सिवनी में राजकुमार खुराना के पास बीते चार सालों से जिले की कमान है। हालांकि इस संबंध में कांग्रेस नेताओं का कहना है कि आदिवासी जिलों में भी ब्राह्मण जिलाध्यक्ष का फैसला नेतृत्व ने विचार के बाद ही किया होगा। संगठन में योग्यता सर्वोपरि होती है, तो उसी को देखा जाता है। वैसे सारे चुनाव में तो ट्राइबल को ही मौका मिलता है।