आदिवासी गांव लुलका स्वायत्ता समूह की महिला किसानों ने दिखाई राह

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  • कोदो बनाएगा आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर …
    भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। कोदो (काले चावल) की खेती के प्रति आदिवासियों का रूझान दिनों दिन बढ़ रहा है। इसकी वजह यह है की कोदो की मांग देशभर से आ रही हैं। इसको देखते हुए गौहरगंज ब्लॉक की ग्राम पंचायत बोरपानी के आदिवासी गांव लुलका स्वायत्ता समूह की महिला किसानों ने विलुप्त हो रही कोदो की खेती को आजीविका का माध्यम बनाया है। इसकी खेती कर रिकार्ड उत्पादन करते हुए उन्होंने अच्छा मुनाफा कमाया है और संदेश दिया है कि  कोदो आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर बना सकता है। गौरतलब है कि पौष्टिकता से भरपूर कोदो की मांग पूरे देश में बढ़ रही है। यही कारण है कि विलुप्त प्राय होती इस कोदो की खेती की ओर आदिवासियों का रुझान बढ़ा है। मुख्यत: इस प्रजाति की खेती आदिवासी ही करते आए हैं और आदिवासियों ने ही एक बार फिर से इसकी खेती कर जीवित रखने का बीड़ा उठाया है।
    स्व सहायता समूह बनाकर कर रहे खेती
    गौहरगंज ब्लाक में कोदो की खेती सुनियोजित तरीके से हो रही है। विकासखंड में पहली बार लुलका ग्राम की जैविक किसान मित्रों के साथ 50 किसानों द्वारा कोदो बोया गया था। अफसरों ने पहले 50 किसानों का पंजीयन किया फिर स्व सहायता समूह बनाकर उन्हें जैविक खेती करने का प्रशिक्षण दिया। उसके बाद नाबार्ड की सहायता से बीज उपलब्ध कराकर 50 किसानों से अपनी देखरेख में खेती कराई। कटाई के बाद निकले कोदो को देखकर अधिकारी खुश है। महिला किसान भी गदगद नजर आ रही हैं। मालूम हो कि ब्लॉक के किसान खरीफ सीजन में केबल धान, सोयाबीन, मक्का और अरहर की ही खेती करते हैं, परंतु इस बार लुलका गांव के आदिवासी किसानों ने अपनी पारंपरिक खेती कोदो में दिलचस्पी दिखाई है। इस काम में कृषि विभाग की आत्मा परियोजना ने इन किसानों की बड़ी सहायता की है।
    कोदो पौष्टिक गुणों से भरपूर
    महिला कृषक आशा उईके एवं शीला धुर्वे ने बताया कि कोदो पौष्टिक गुणों से तो भरा है ही, इसके अलावा इसके भाव भी बाजार में अच्छे मिलते हैं। आशा बताती है कि शुगर जैसी बीमारी में भी यह काफी फायदेमंद होता है। इसीलिए हमने इस बार विलुप्त होती प्रजाति की इस फसल को उगाने का मन बनाया ताकि हमारे परिवार को तो पौष्टिक आहार मिल सके, साथ ही साथ अन्य लोगों को भी इसका लाभ मिल सके। कोदो मधुमेह के रोगियों के लिए बड़ा लाभकारी माना जाता है। यह काला चावल फायटोकेमिकल कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है। मोटापा कम करने में भी मददगार है।
    ऊंचे दामों पर बिकवाने की कवायद
    जानकारी के अनुसार लुलका ग्राम की जैविक किसान मित्रों के साथ 50 महिला किसानों द्वारा 70 से 75 एकड़ में जेके 137 वैरायटी का कोदो बोया गया था। इसका उत्पादन लगभग 400 क्विंटल हुआ। अब कृषि विभाग के अधिकारी इसकी मार्केटिंग कर ऊंचे दामों पर बिकवाने की कवायद में लगे हैं। इस खेती से आदिवासी आर्थिक रूप से संपन्न तो होंगे ही जरूरतमंदों को भी पौष्टिकता से भरा यह अनाज आसानी से उपलब्ध हो सकेगा। कृषि विकास के वरिष्ठ खंड विकास अधिकारी डीएस भदौरिया ने बताया कि कोदो का बीज आसपास के क्षेत्रों में ना मिलने से उसे समिति द्वारा डिंडोरी बीज निगम क्षेत्र से 3 क्विंटल प्रमाणित बीज खरीदा गया एवं उसको 50 किसानों में वितरित कर बुवाई करवाई गई। जेके 137 किस्म का यह बीज 4 किलोग्राम प्रति एकड़ के मान से बोया गया है। इस महिला स्व सहायता समूह के यहां पूर्व से कृषि विभाग द्वारा वर्मी कंपोस्ट बनाए गए हैं जहां समूह की महिलाओं द्वारा वर्मी कंपोस्ट एवं जैविक कीटनाशक दवाई भी तैयार की जा रही है। भदौरिया ने बताया कि कोदो की फसल में कीटनाशकों का उपयोग ना कर जैविक विधि से खेती की जाएगी। समूह की मेहनत एवं लगन को देखते हुए नाबार्ड द्वारा आर्थिक सहयोग प्रदान किया जा रहा है।
    धान से तीन गुना महंगा कोदो
    कोदो की उपयोगिता और विशेषता का आंकलन इसी से किया जा सकता है की वह धान से तीन गुना महंगा बिकता है। वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी डी एस भदौरिया बताते हैं कि धान और कोदो के भाव में भारी अंतर है। धान का भाव जहां 2800 से तीन हजार रुपये प्रति क्विंटल है, वहीं कोदो का रेट 10 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक है। उन्होंने बताया कि इसी तरह उत्पादन में भी बड़ा अंतर है। जहां धान की पैदावार 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक है। वहीं कोदो का उत्पादन 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। कोदो भारत का एक प्राचीन अन्न है, जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। कोदो-कुटकी मधुमेह नियंत्रण, गुर्दो और मूत्राशय के लिए लाभकारी है। यह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रभावों से भी मुक्त है।

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