- वीरेंद्र नानावटी

लोकतंत्र:सवाल-दर-सवाल/भाग 3
आजादी के पहले सुभाषचन्द्र बोस देश की नब्ज अच्छे से जानते थे कि हजारों सालों की गुलामी की गर्त और राजे-रजवाड़ों की रिवायतों को झेलता हिन्दुस्तान अभी लोकतंत्र के लायक नहीं बना है! इसीलिए उन्होंने “गाइडेड डेमोक्रेसी” की वकालत की थी! यानी विशेषज्ञों,मर्मज्ञों, सिद्धहस्त व्यक्तियों का समूह देश का नेतृत्व और संचालन करे, जिनका चुनाव (चयन)केवल योग्यता, कौशल और हुनर के आधार पर हो! एक समूची नस्ल को लोकतंत्र के लिए पहले तैयार किया जाए! क्योंकि लोकतंत्र एक कवायद है-शासन चलाने की पद्धति का अभ्यास है- जिसे देश की रगों और धड़कनों में शुमार होना चाहिए! लोकतंत्र कोई झुनझुना नहीं है,जिसे हर कोई बजा सके! लेकिन हिन्दुस्तान के मूल चरित्र और इतिहास को अनदेखा कर ठेठ खुली विलायती /बौद्धिक गुलाबी आदर्शवाद की रंग-रोशनी में डूबे नेहरू और मित्र मंडली को लोकतंत्र ज्यादा प्रासंगिक लगा, जिसके लिए देश आज तक मुकम्मल तैयार नहीं हुआ! नेहरू विलायती चश्मे से देश की नब्ज को देखते रहे! सही मायने में नेहरू स्वाधीनता के स्वरों के मुखर समर्थक थे और तत्कालीन अंग्रेजी साहित्य के बड़े हस्ताक्षर शेक्सपियर,शेली,किट्स, रस्किन और शॉ का उन पर गहरा असर था, जो व्यक्ति के हकों के ही ज्यादा हिमायती रहे! लोकतंत्र के चलते बहुत सारी घटनाएं देश में हुई! आजादी से आज तक… जिसमें हमेशा देश उलझा रहा! खैरात और बंदरबांट!! संस्कृति,धर्म,जाति, वर्ग, भाषा, बोलियों की इतनी विविधताओं ने जहां हमें इतराने का अवसर दिया, वहीं ये लोकतंत्र की लाचारी और लज्जा का सबब भी बनीं! पहले तो देश को उसकी कोई जुबान (राष्ट्रभाषा) नहीं मिली! दूसरा देश एक गणतंत्र जरूर बना, लेकिन क्षेत्रीय विभाजन और सूबों की मानसिकता में हमेशा जकड़ा रहा! तीसरा तुष्टिकरण की तिकड़मों ने असंख्य जख़्म देश को दिये! जिसमें संविधान की मूल भावना में छेद करके मजहब के आधार पर कायदों के पेबंद(थेगड़े)लगाये गए? ये संविधान संशोधन वोटों को कबाड़ने और कथित सत्ता संतुलन के बायस बने! जिन तरक्कियों, बुनियादी संसाधनों, कारखानों, रेलों का जिक्र किया जाता है… उसकी रफ़्तार अंग्रेजों के जमाने से भी बदतर रही है! जबकि भारत की आजादी के बाद दुनिया भर में कारखानों और कृषि के क्षेत्र में क्रांतिचेता परिवर्तन हुए! लेकिन हमारी लचर लोकतांत्रिक व्यवस्था का चरम भ्रष्टाचार, विकास के सौपानों को फाइलों और कागजों पर खा गया! या तो नेता डकार गए या नौकरशाही जीम गई! बाकी जो बचा वो दलाल और बिचौलिए हजम कर गए! जनता को थोड़ी बहुत भीख मिली (भीख जैसा ही अहसान जताकर दिया गया, वोटों के बदले) या बाबाजी का ठेंगा? एक कौम का जो चरित्र निर्माण होना था,वो इस लाचार,लूले लोकतंत्र के चलते नहीं हुआ! अभिव्यक्ति की आजादी और संवैधानिक सामर्थ्य देने का दावा इस लोकतंत्र का पहला कवच है! लेकिन किसे मिला? बेईमान और सिद्धांत- हीन राजनीति को, भ्रष्ट और चाटुकार नौकरशाही को, बाहुबलियों और गुंडों को, विलंबित न्याय व्यवस्था को, जेएनयू की सोच और मजहबी जेहादियों को, जिन्ना के नये अवतार वाले जिन्नों को, बौद्धिक योग्यता और प्रतिभाओं के क्रूर कत्लेआम करने की साजिशों को, जय-जुगाड़-जरिया के जादू को! दरअसल धारदार लोकतंत्र हमारे डीएनए में ही नहीं है! उसके लिए सिर्फ़ कौम का कद्दावर होना ही काफी नहीं है! वैचारिक कवायद, राजनैतिक प्रशिक्षण के साथ लड़ने-भिड़ने और जूझने का पराक्रम भी लोकतांत्रिक हौसलों के लिए उतना ही जरूरी है! लेकिन जिसके औसत नेता ही नौकरशाही के सामने घिघियाते हो/सत्ता के सामने सजदा करते हो/निजाम के सामने नतमस्तक रहने के आदी हों… ऐसा लोकतंत्र या तो नींद में गाफिल रहेगा या फिर छुटभैय्यों के होर्डिंग्स में टंगा रहेगा… जयकारों के साथ! बहुत सारे सवाल हैं क्या ऐसा लोकतंत्र हमारी प्राणग्रंथियों के लिए अभिशप्त नहीं है।