तोमर-सिंधिया की साख दांव पर

तोमर-सिंधिया
  • ग्वालियर-चंबल में 2013 दोहराने की चुनौती

    हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में यह साल चुनावी साल है। भाजपा का पूरा फोकस इस बात पर है कि 2018 में जिन क्षेत्रों में पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा है, वहां अधिक जोर लगाया जाए। ऐसे क्षेत्रों में ग्वालियर -चंबल अंचल भी शामिल है। अंचल की 34 विधानसभा सीटों में से भाजपा मात्र 7 सीट ही जीत पाई थी। हालांकि भाजपा को धूल चटाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भाजपा में ही आ गए हैं। वहीं इसी अंचल से आने वाले केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बनाया गया है। अब अंचल में कमल खिलाने की जिम्मेदारी तोमर और सिंधिया पर है। ऐसे में दोनों नेताओं की साख दांव पर है। दोनों नेताओं पर कम से कम 2013 के परिणाम को दोहराने की चुनौती है।
    आगामी विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा घमासान ग्वालियर-चंबल अंचल में ही देखने को मिलेगा। इस साल का विधानसभा चुनाव ग्वालियर-चंबल अंचल के चार कद्दावर नेताओं का भविष्य भी तय करेगा। कांग्रेस छोड़ भाजपा में आए केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया पर महाराजा वाला ग्लैमर बरकरार रखने की चुनौती होगी, तो वहीं कद्दावर नेता नरेंद्र सिंह तोमर के लिए भी ग्वालियर-चंबल अंचल में अपना रुतबा बरकरार रखना बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जमीन को मजबूत करने की चुनौती है, तो वहीं नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह के सामने ग्वालियर-चंबल अंचल में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा साबित करने की चुनौती है।
    2013 में 20 सीटें जीती थी भाजपा
    सिंधिया जब से भाजपा में शामिल हुए हैं, पार्टी को ग्वालियर-चंबल अंचल में कम से कम 2013 वाला प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद है। इस उम्मीद को और बल मिला है, जब से भाजपा द्वारा नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बनाया है। ग्वालियर-चंबल में 2018 के चुनाव में टिकट के लिए मचे घमासान से भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ था, यहां भाजपा सात सीटों पर सिमट कर रह गई थी। जबकि, इसके पांच साल पहले 2013 में एंटी इनकंबेंसी होने के बावजूद भाजपा का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा था।
     ग्वालियर-चंबल अंचल की 34 में 20 सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। 2013 का विधानसभा चुनाव तोमर के ही नेतृत्व में लड़ा गया था। अब 2023 की सत्ता विरोधी लहर में फिर कमान तोमर के हाथ है, लेकिन केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ लेकर 2013 के प्रदर्शन को दोहराना बड़ी चुनौती है। वार्ड पार्षद से राजनीति की शुरुआत करने वाले नरेंद्र सिंह तोमर के पास जमीन से सत्ता के शिखर तक पहुंचने का लंबा अनुभव है। संगठन में युवा मोर्चा जिलाध्यक्ष से लेकर, प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय महामंत्री के साथ उत्तर प्रदेश सहित कई प्रदेशों का प्रभार संभाल कर पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में उन्होंने कई बार भूमिका निभाई है। 2017 में उप्र में तोमर की मेहनत से ही भाजपा को सत्ता का शिखर प्राप्त हुआ। मप्र तोमर का गृह प्रदेश है। यहां के राजनीतिक मिजाज से वे अच्छे से परिचित हैं। ऐसे में कार्यकर्ताओं की नाराजगी उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकेगा।
     तोमर के सामने कई चुनौतियां
    इस बार का चुनाव काफी कड़ा होने वाला है। ऐसे में 2013 और 2018 वाले फॉर्मूले पर चलते हुए पार्टी ने नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव समन्वय समिति का प्रमुख बनाया। केंद्रीय नेतृत्व के भरोसेमंद होने के साथ-साथ तोमर के रिश्ते शिवराज सिंह चौहान से भी अच्छे हैं। शिवराज भी उन्हें लेकर कंफर्ट महसूस करते हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वकांक्षाओं के बीच इसलिए तोमर का चुना जाना काफी मुफीद माना जा रहा है। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद कई परिस्थितियां बदली हैं।
    इसके पहले अंचल में नरेंद्र सिंह तोमर एकमात्र सर्वमान्य नेता माने जाते थे। अब दूसरे ध्रुव के रूप में सिंधिया उनके सामने हैं। नरेंद्र सिंह को उनको साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी है। भाजपा की विचारधारा के प्रति समर्पित कार्यकर्ता लगातार हो रही उपेक्षा से नाराज हैं। तोमर अपने लंबे अनुभव से कार्यकर्ताओं के साथ बैठकर उनकी नाराजगी दूर करने में कामयाब होंगे या नहीं, यह आने वाला समय बताएगा। नेतृत्व को विश्वास है कि कार्यकर्ता की नाराजगी दूर होगी। नरेंद्र सिंह तोमर के सामने एक बड़ी चुनौती हवा का रुख बदलना है। विधानसभा चुनाव से पहले ही सत्ता विरोधी लहर की आहट सुनाई दे रही है। हवा के रुख को कार्यकर्ताओं के बूते से बदला जा सकता है। उम्मीद है, ऐसा करने में वे सफल होंगे।
    क्या कमजोर पड़ेगा सिंधिया का गुट
    पार्टी की इस हालत के पीछे सूबे के क्षत्रपों की छटपटाहट भी अहम वजह है। 2022 में पार्टी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया भी जुड़ गए और एक नया क्षत्रप भी दल में खड़ा हो गया। सिंधिया और तोमर एक ही इलाके से आते हैं, ऐसे में एक दूसरे को दबाने का बुनियादी सवाल जेहन में आता है। लेकिन इस मामले में शायद ही ऐसा संभव हो। ज्योतिरादित्य सिंधिया के सवाल पर राजनीति के जानकारों का कहना है कि सिंधिया को लंबी राजनीति करनी है। वो 2023 के चुनावों में किसी भी पद की शर्त को लेकर या 4-5 उम्मीदवारों के टिकट को लेकर सीधे नेतृत्व की आंखों में खटकने का बचकाना कदम नहीं उठाएंगे। उनका ध्यान विधानसभा चुनावों के साथ-साथ आगामी लोकसभा चुनावों पर भी है। वहीं उनके समर्थक नेताओं की बात है तो उन्हें 2020 में पार्टी से जुड़ने के बाद सम्मानित पद दिए गए।
    जिसे सरकार में जगह नहीं मिली उसे संगठन में जगह दी गई। ऐसा आगे भी जारी रह सकता है। इसी के साथ उन्हें अभी भाजपा के संगठन को समझना होगा। कांग्रेस जैसा ट्रीटमेंट उन्हें भाजपा में नहीं मिल सकता। प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले सिंधिया को लेकर बातचीत के दौरान तर्क देते हैं कि एमपी की राजनीति को पंजाब या किसी अन्य राज्य की तरह नहीं देखा जा सकता। वहां के हालात और यहां के संगठन में काफी अंतर है। किसी भी अन्य राज्य की तुलना में मध्य प्रदेश भाजपा के संगठन को काफी मजबूत और अनुशासित माना जाता था, लेकिन फिर भी केंद्रीय नेतृत्व को आगामी चुनावों को लेकर कमान संभालनी पड़ गई।
    अप्रत्याशित जीत की संभावना
    चुनाव प्रबंधन समिति में अभी और नेताओं को भी कुछ बड़ी जिम्मेदारियां मिल सकती हैं। जिसमें केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी चर्चा में चल रहा है। जिस पर नरेंद्र सिंह तोमर ने बड़ा बयान दिया है। प्रदेश विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया की क्या भूमिका रहेगी। इस पर जब नरेंद्र सिंह तोमर से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि सिंधिया जी पार्टी के नेता हैं, उनकी पूरी भूमिका रहेगी। भाजपा में सबकी भूमिका केंद्रीय नेतृत्व तय करता है। लेकिन इस बार ग्वालियर-चंबल अंचल में अप्रत्याशित परिवर्तन होगा और भाजपा अधिकांश सीटों पर चुनाव जीतेगी। माना जा रहा है कि नरेंद्र सिंह तोमर के बाद भाजपा अब ज्योतिरादित्य सिंधिया को जल्द ही बड़ी जिम्मेदारी देने वाली है।
    पूरी तरह केंद्र के निर्देशन में होगा चुनाव
    हालांकि कई लोगों का मानना है कि, तोमर को तवज्जो मिलने से टिकट बंटवारे में उनकी मनमानी चलेगी और इसका नुकसान सबसे ज्यादा ज्योतिरादित्य सिंधिया को होगा, क्योंकि ये दोनों ही ग्वालियर -चंबल क्षेत्र से संबंध रखते हैं। इस पर जानकारों का कहना है कि ऐसा हरगिज नहीं है। इसके पीछे वो तर्क देते हैं कि, इस बार का विधानसभा चुनाव पूरी तरह केंद्र के निर्देशन में होगा। ऐसे में टिकट बंटवारे में न ही किसी की मनमानी चलेगी और न ही किसी की अनदेखी होगी। राज्य की राजनीति पर लगातार नजर रखने वालों का कहना है कि, हाल ही में जो सर्वे सूबे में हुए हैं, उनके नतीजे भाजपा के लिए इतने चिंताजनक हैं कि केंद्रीय नेतृत्व को तुरंत कमान अपने हाथ में लेनी पड़ गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुद इस पर नजर बनाए हुए हैं। वहीं एक सियासी समीक्षक कहते हैं कि क्षेत्र में कार्यकर्ताओं की नाराजगी इतनी है कि अगर केंद्रीय नेतृत्व सीधे उस कार्यकर्ता से बात कर ले तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी। उनका कहना है कि राज्य में सरकार बनाने के बाद भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी बढ़ी ही है, घटी नहीं है।
    ग्वालियर-चंबल दुर्ग मजबूत करने का टास्क
    सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर दोनों ही दिग्गज नेता ग्वालियर-चंबल इलाके से आते हैं, लेकिन पार्टी की हालत इस क्षेत्र में काफी खराब है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में 8 जिले हैं, जिनमें कुल 34 विधानसभा सीटें हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में 34 में से सबसे ज्यादा 26 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। भाजपा को सिर्फ 7 सीटों पर ही जीत हासिल हुई थी। सिर्फ चंबल की ही बात करें तो यहां की 13 में से 10 सीटों पर कांग्रेस पार्टी की जीत हुई थी। सिंधिया के पार्टी से जुडऩे के बाद भी भाजपा को कुछ खास फायदा इस इलाके में मिलते नहीं दिखा। बल्कि ग्वालियर निगम की सीट भी भाजपा के हाथ से फिसल गई। ऐसे में नरेंद्र सिंह तोमर पर अहम जिम्मेदारी मिलने के साथ ये जिम्मेदारी भी होगी कि वो अपने इस इलाके में पार्टी की स्थिति को सुधारें और इस कमजोर दुर्ग को मजबूत करें। आने वाले दिनों में सिंधिया को भी इस इलाके में सक्रिय होने के लिए कहा जा सकता है।

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