आरक्षण के पेंच से रुके प्रमोशन का खुलेगा रास्ता!

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  • प्रमोशन में आरक्षण पर जारी है नियमित सुनवाई

    भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम।
    प्रदेश के उन हजारों अधिकारियों-कर्मचारियों में प्रमोशन की आस जगी है जिनका आरक्षण के पेंच के कारण प्रमोशन रुका हुआ है। दरअसल, सरकारी पदों पर प्रमोशन पर आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट में नियमित सुनवाई शुरू हो
    गई है।
    10 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट फैसला देगा। गौरतलब है कि पूर्व में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एल नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यीय बेंच ने कहा था कि कई वर्षों से यह मामला लंबित है। इसकी वजह से कर्मचारियों को प्रमोशन नहीं मिल पा रहा है। अब किसी भी स्थिति में आगे तारीख नहीं दी जाएगी। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि इस मामले के फैसले में इंदिरा साहनी और नागराज के केस को शामिल नहीं किया जाएगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इन मामलों में फैसला दे चुका है।
    बता दें कि हाईकोर्ट ने पदोन्नति नियम में आरक्षण, बैकलॉग के खाली पदों को कैरी फॉरवर्ड करने और रोस्टर संबंधी प्रावधान को संविधान के विरुद्ध मानते हुए इन पर रोक लगा दी थी। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, इस पर फैसला होना बाकी है।
    पांच साल से रुका है प्रमोशन
    प्रदेश में पदोन्नति नियम 2002 के तहत अधिकारियों-कर्मचारियों की पदोन्नति होती थी, लेकिन  2016 में उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी। दरअसल, अनारक्षित वर्ग की ओर से अनुसूचित जाति- जनजाति को दिए जा रहे आरक्षण की वजह से उनके अधिकार प्रभावित होने को लेकर हाईकोर्ट में 2011 में 24 याचिकाएं दायर की गई थीं। इनमें सरकार द्वारा बनाए मप्र पब्लिक सर्विसेज (प्रमोशन) रूल्स 2002 में एससी- एसटी को दिए गए आरक्षण को कठघरे में रखा गया था। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल 2016 को राज्य में एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण देने के नियम को असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया था। तत्कालीन चीफ जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस संजय यादव की बेंच ने कहा है कि यह नियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 व 335 के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र को दिए गए दिशा-निर्देश के खिलाफ है। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन कोर्ट ने यथास्थिति बरकरार रखने के निर्देश दिए। ऐसे में अब पदोन्नति तभी हो सकती है, जब कोर्ट इसकी अनुमति दे। सरकार ने इसको लेकर कोर्ट से अनुरोध भी किया था पर अनुमति नहीं मिली। इससे सबसे ज्यादा नुकसान उन कर्मचारियों व अधिकारियों को हुआ, जो पिछले 5 साल में रिटायर हो गए। जिसकी संख्या करीब 1 लाख बताई जाती है।
    बिना प्रमोशन रिटायर हो रहे कर्मचारी
    पदोन्नति में आरक्षण का मामला लंबित होने की वजह से अधिकारी-कर्मचारी पदोन्नत हुए बिना ही सेवानिवृत्त होते जा रहे थे। इसको लेकर सरकार के खिलाफ कर्मचारियों में नाराजगी भी थी। इसे देखते हुए शिवराज सरकार ने विधानसभा चुनाव से पहले बड़ा कदम उठाते हुए सेवानिवृत्ति की आयु 60 से बढ़ाकर 62 साल कर दी थी, जो अभी भी जारी है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट उत्तरप्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार के निर्णय को पलट चुका है। अदालत ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण नहीं हो सकता। माया सरकार ने 2008 में  यह निर्णय लिया था। इसे जनवरी 2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया था। हाईकोर्ट के फैसले को राज्य सरकार ने शीर्ष कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दलवीर भंडारी, दीपक मिश्रा और एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बहाल रखा। अदालत ने कहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार का निर्णय संविधान के प्रतिकूल है। केवल भर्ती के समय ही आरक्षण मिल सकता है।

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