
- टेंडर में भाग लेने एक कंपनी को पात्रता देने के लिए टेंडर में तय नेट वर्थ को कम करने की कवायद में तय समय सीमा ही निकल गई
भोपाल/राजीव चतुर्वेदी/बिच्छू डॉट कॉम। संरक्षित वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए वन महकमे द्वारा खरीदे जाने वाले वायरलेस सेट मप्र का वन महकमा उसके संचालन की अवधि निकालने के बाद भी खरीदी नहीं कर सका है। इसकी वजह है अफसरों द्वारा अपने चहेते एक सप्लायर को उपकृत करने के मामले में पूर्व में तय की शर्तों का आड़े आना।
इस वजह से अफसरों ने इनकी खरीदी को ऐसा उलझाया कि एक साल में भी वायरलेस खरीदी का रास्ता साफ नहीं हो सका है। अब विभाग फिर से वायरलेस संचालन के लिए दूरसंचार विभाग से लाइसेंस नवीनीकरण की तैयारी में लगा हुआ है। दरअसल प्रदेश में मौजूद बाघों की सुरक्षा के लिए 14 सौ वायरलेस वन विभाग द्वारा खरीदे जाने थे, जिसके लिए टेंडर भी बुलाए जा चुके थे। इस बीच इंदौर का एक चहेता व्यापारी उसमें दी गई शर्तों पर खरा नहीं उतर पा रहा था, जिसके चलते टेंडर की प्रक्रिया रोककर उसकी शर्तों में बदलाव की कवायद शुरू कर दी गई थी, लेकिन इसके पहले ही तीन कंपनियों द्वारा टेंडर जमा करा दिए गए थे, जिसकी वजह से शर्तें बदलना मुश्किल हो गया। इसके चलते अफसरों ने इस प्रक्रिया को ऐसा उलझाया कि उनकी खरीदी ही न हीं हो पायी है। ज्ञात रहे कि इनकी खरीदी के लिए दी गई राशि भी लैप्स हो गई। यह राशि करीब पांच करोड़ रुपए थी।
दरअसल इन वायरलेस सेटों का उपयोग प्रदेश के संरक्षित क्षेत्रों में शामिल टाईगर रिजर्व, नेशनल पार्क और अभ्यारणों में तैनात वन सुरक्षाकर्मियों द्वारा किया जाना था। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में कुल 35 संरक्षित इलाके हैं। इनमें बाघों की अस्सी फीसदी आबादी पायी जाती है। यह वे इलाके हैं जहां पर वनों की वजह से सिर्फ वायरलेस सेट ही काम करते हैं। इन क्षेत्रों में सूचना के आदान प्रदान का काम महज एक सैकड़ा सेटों से ही काम चलाना पड़ रहा है। दरअसल टेंडर में भाग लेने के लिए एक कंपनी को पात्रता देने के लिए टेंडर में तय नेटबर्थ को कम करने की कवायद में तय समय सीमा ही निकल गई।
एक दशक से किए जा रहे प्रयास
दरअसल प्रदेश में वायरलेस सेट खरीदने के प्रयास बीते एक दशक से किए जा रहे हैं, लेकिन उसमें कोई न कोई ऐसी बाधा आ जाती है जिससे उनकी खरीदी ही नहीं हो पाती है। वर्ष 2013 में विभाग द्वारा इनकी खरीदी के लिए न केवल सौदा कर लिया गया था , बल्कि उनकी सप्लायर कंपनी को ढाई करोड़ रुपए बतौर अग्रिम भुगतान भी कर दिया गया था , लेकिन विभाग के पास उनके उपयोग का लाइसेंस न होने की वजह से कंपनी से वायरलेस देने से हाथ खड़े कर दिए थे। इसके बाद अफसरों की लापरवही के चलते सरकार को लायसेंस के लिए तमाम प्रयास करने पड़े तब कहीं जाकर बीते साल लायसेंस मिल सका था, लेकिन अफसरों की वजह से उसका भी उपयोग नहीं किया जा सका है। खास बात यह है कि इस लायसेंस के साथ दूरसंचार विभाग ने इस माह तक की समय सीमा में सेटों की सूची देने के लिए तय की थी, लेकिन विभाग यह काम भी नहीं कर सका है।
फीस भुगतान का भी विवाद
दरअसल एक दशक पहले दूर संचार विभाग से लिए गए लायसेंस की फीस का वन विभाग द्वारा सालों तक भुगतान ही नहीं किया गया, जिसकी वजह से बकाया राशि पर दूरसंचार विभाग द्वारा ब्याज पर ब्याज लगाया जाना शुरू कर दिया गया, इससे वह फीस बढ़कर 70 करोड़ रुपए तक पहुंच गई। इस राशि का भुगतान न किए जाने से वायरलेस सेट चलाने का लायसेंस रिन्यू करने से दूरसंचार विभाग ने इंकार कर दिया था। इस विवाद को सुलझाने के लिए प्रदेश सरकार को केन्द्र सरकार के सामने तमाम प्रयास करने पड़े , तब कहीं जाकर बीते साल मामला सुलझ सका था। इस दौरान यह तय किया गया कि विभाग यह बकाया राशि किस्तों में भुगतान करेगा।