- मयंक विश्नोई

गुरु पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से माफी मांगते हुए कृषि कानूनों को वापस ले लिया था। इसकी वजह थी कि किसान आंदोलन से आंदोलनरत किसानों और आम आदमी को होने वाली परेशानी। प्रधानमंत्री ने सहृदयता दिखाई और किसानों से अपने घर-परिवार-खेत के पास लौटने के साथ एक नई शुरुआत करने की अपील की थी। किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने पीएम नरेंद्र मोदी के इस फैसले का स्वागत किया है। लेकिन, इसे एकतरफा घोषणा बताते हुए 6 मांगों के साथ किसान आंदोलन को जारी रखने का फैसला किया है। यह न तो देशहित में और न ही आम आदमी के हित में है। अन्नदाता को आम आदमी के दुख का भी अहसास करना चाहिए। वैसे तो कृषि कानूनों के खत्म होने के साथ ही किसान आंदोलन खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है इस संयुक्त किसान मोर्चा में जुड़े किसान संगठनों की अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं। यही कारण है कि अब किसान मोर्चा एमएसपी के गारंटी कानून पर अड़ गया है, जिसे आजादी के बाद से आजतक कोई सरकार लाने के बारे में सोच भी नहीं सकी है। किसानों के आगे एक बार झुक चुकी मोदी सरकार को एमएसपी गारंटी कानून के जरिये अब पूरी तरह से अपने सियासी जाल में फंसाने की कवायद शुरू कर दी गई है। दरअसल, एमएसपी पर गारंटी कानून बनाने पर केंद्र सरकार को अपने कुल बजट का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा एमएसपी पर खर्च करना होगा। और, ये पूरा पैसा पंजाब और हरियाणा के 6 फीसदी किसानों की ही जेब में जाएगा। क्योंकि, शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, एमएसपी का लाभ देश के 94 फीसदी किसानों को कभी मिला ही नहीं है। इस स्थिति में एमएसपी कानून आना नहीं है और किसान आंदोलन खत्म होना नहीं है। किसान भली भांति जानते हैं कि लोकतंत्र में हठधर्मिता के लिए कोई स्थान नहीं होता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। जड़ता एवं टकराव लोकतंत्र की प्रकृति-प्रवृत्ति नहीं। संवाद से सहमति और सहमति से समाधान की दिशा में सतत सक्रिय एवं सचेष्ट रहना ही लोकतंत्र की मूल भावना है। गुरु पर्व के पवित्र अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए इसका अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उदारता दिखाते हुए उन्होंने देशवासियों से इसके लिए क्षमा भी मांगी कि सरकार नए कृषि कानूनों की उपयोगिता को समझाने में विफल रही। साथ ही किसानों और खेती के हित में निरंतर कल्याणकारी निर्णय करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता भी जताई। सरकार और प्रधानमंत्री की यह पहल स्वागतयोग्य है कि उन्होंने कृषि कानूनों को अहम का मुद्दा नहीं बनाया। इस फैसले को किसी पक्ष की हार-जीत के रूप में देखा जाना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं परंपराओं के विरुद्ध होगा। जनता के हितों एवं सरोकारों के प्रति सजग, सतर्क एवं संवेदनशील सरकार किसी भी वर्ग की भावनाओं को लेकर लंबे समय तक उदासीन नहीं रह सकती। भले ही ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित ही क्यों न हो। बड़े हितों को साधने के लिए कभी-कभी दो कदम पीछे हटना भी व्यावहारिक नीति मानी जाती है। वह बड़ा हित राष्ट्रीय एकता-अखंडता और सामाजिक सौहार्द को हर हाल में बनाए रखना है। कृषि कानूनों की आड़ में जिस प्रकार देश विरोधी ताकतें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को चोट पहुंचाने की फिराक में थीं, उसे देखते हुए सरकार द्वारा इन कानूनों को वापस लेना समझ में आता है। केवल खुफिया सूत्र ही नहीं, अपितु टूलकिट प्रकरण, खालिस्तानियों की नए सिरे से सक्रियता और बिगड़ैल पड़ोसी मुल्कों चीन-पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों के नेताओं एवं तमाम नामचीन हस्तियों की प्रतिक्रियाएं किसी बड़ी साजिश का ही संकेत कर रही थीं। सरकार ने अपने इस फैसले से ऐसी सभी देश-विरोधी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। वैसे भी ये कानून सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन थे। सरकार ने भी उन्हें कुछ वर्षों के लिए स्थगित कर रखा था। यानी ये कानून वैधानिक रूप से भी प्रभावी नहीं थे।
अन्नदाता को यह समझने की जरूरत है कि राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन समय-समय पर अपना रूप बदलेगा। इसके मंचों से सीएए, एनआरसी, धारा 370 जैसे मुद्दों की मांग भी होने लगेगी। दरअसल, पीएम मोदी के इस फैसले से उन प्रवृत्तिओं को बल मिला है, जो मानती हैं कि अगर दिल्ली की सडक़ों को लंबे समय तक जाम रखा जाए, तो कृषि कानूनों की तरह ही अन्य कानूनों की भी वापसी संभव हो सकती है। संयुक्त किसान मोर्चा नेक्व किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाने वालों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेने की शर्त रखी है। अगर मोदी सरकार इन लोगों के खिलाफ मामले वापस लेती है, तो अपने आप ही सीएए और धारा 370 के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों की ओर से उन पर लगाए गए मुकदमों के वापसी की मांग को लेकर फिर से प्रदर्शन की संभावना बढ़ जाएगी। जहां तक खेती-किसानी के हितों का प्रश्न है तो केंद्र सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में निरंतर वृद्धि की है। दलहन और तिलहन उत्पादों पर तो लगभग दोगुनी मूल्य वृद्धि की गई है। लाभकारी मूल्यों पर किसानों से उत्पादों की खरीद बढ़ाई है। सरकार ने अपने नीति-निर्णय-नीयत में पहले भी किसानों के हितों एवं सरोकारों को प्राथमिकता दी है और आगे भी सर्वोच्च प्राथमिकता देने का आश्वासन दिया है। सरकार के ऐसे रुख-रवैये को देखते हुए आंदोलनरत किसानों को भी समझदारी एवं उदारता का परिचय देकर अपना धरना-प्रदर्शन समाप्त करना चाहिए। जब सरकार ने उनकी प्रमुख मांग मान ली है तो लगातार नई-नई और अव्यावहारिक मांगों को सामने रखना लोकतंत्र को कमजोर करने का ही काम करेगा। इससे सरकार की सरोकारधर्मिता क्षीण होगी। पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होगी। इसलिए दिल्ली के सीमांत इलाकों में महीनों से डेरा डाले किसानों को अविलंब अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए। यही देशहित होगा। वर्ना किसान आंदोलन की आड़ में विघटनकारी अपनी गतिविधियों से अन्नदाता की छवि को खराब करेंगे।
(लेखक पीपुल्स ग्रुप के डायरेक्टर हैं)