भग्नावशेष में बदला सुर मंदिर

  • रत्नाकर त्रिपाठी
 लता मंगेशकर

यह निश्चित ही अजीब कल्पना है। किंतु मैं पूरी श्रद्धा तथा विश्वास के साथ इसे सच मान रहा हूं। मुझे पूरा यकीन है कि स्वर्ग में आज स्वयं माँ सरस्वती ने काल को धन्यवाद कहा होगा। देवी के इस भाव की अभिव्यक्ति उस उपहार के लिए रही होगी, जो उन्हें अपनी जयंती के एक दिन बाद काल के द्वारा मिला। वह उपहार जिसे लता मंगेशकर कहते हैं। वह उपहार जो एक स्वर्णिम सुरीले जीवन के कचोटने वाले उपसंहार के बाद स्वरों की देवी को मिल पाया।  
मैं इसे अमरता के वरदान के दुहराव का मामला मानता हूँ। शब्द अमर हैं। उनका अस्तित्व नहीं मिटता है।  वे इसी दुनिया में कहीं तैरते रहते हैं। जो गायन लता  जी के कंठ से निकला, वह भी अमर हो गया। तो क्या ऐसा नहीं हुआ होगा कि बाकी तैरते हुए अमर शब्दों के महासागर में एक वह द्वीप भी बसता होगा, जिस पर लता जी के गायन वाले शब्दों का ही एकाधिकार होना चाहिए। क्योंकि ये उन सौभाग्यशाली शब्दों का मामला है, जिनके अमरत्व को लता जी की आवाज का अमृत भी मिला है। तो फिर बात शब्दों के उस अपने  स्वाभाविक ब्रह्मांड के निर्माण की हो जाती है, जो सात दशक से अधिक के अद्वितीय सुरीले सफर का कल अंतिम पड़ाव बन गया।
यूं देखा जाए तो गायकी क्या है? चंद पंक्तियाँ। साथ में संगीत। एक या अधिक आवाजें। स्वर का उतार-चढ़ाव या ऐसा ही कुछ और। यही सब तो लता जी द्वारा गाये गए गीत, भजन, गजल आदि सब में भी शामिल रहा। तो फिर लता जी के लिए अलग क्या? वह यह कि लता जी ने पंक्तियों को अंगीकार किया, अपनी आवाज से हरेक बोल को जीवंत किया। उन्हें आरोह-अवरोह का मखमली आंचल दिया। बात यहां ही नहीं थमती। लता जी ने उस शब्द से लेकर मौसिकी और उसके स्वभाव की प्राण-प्रतिष्ठा की। यदि मेरे इस लिखे में लता दी के गीत तलाशे जाएं, तो यह  सूरज की रश्मियों को अलग-अलग कर उनमें से प्रत्येक की व्याख्या करने जैसा बचकाना प्रयास होगा। क्योंकि लता जी गीतों में नहीं, बल्कि गीत लता जी में समाहित  हैं। इतना बड़ा संगीतमयी आंचल, जो पांच दशक पहले से लेकर कुछ समय पहले तक के सुरमई साम्राज्य को ममता का स्पर्श देता रहा। जिसके साये में बहुत कद बढ़े, पद बढ़े, लेकिन कोई भी लता मंगेशकर नहीं हो सका। क्योंकि वो पेटेंट तो माँ सरस्वती और उनकी दुलारी बिटिया का ही था। है। रहेगा भी। दीदी! मैं मां सरस्वती का उपासक हूं। उन्हें नहीं देख सका। एक इच्छा अब कभी पूरी नहीं होगी। वह यह कि उन माँ की साक्षात प्रतिमूर्ति के रूप में कभी आपको साष्टांग प्रणाम कर पाता। मुझे आपका साक्षात दर्शन तक नसीब नहीं हो सका।  फिर भी आप जब भी सुरों पर सवार होकर मुझ तक आईं, तो मुझे लगा कि मैंने हंस वाहिनी देवी के साक्षात दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर लिया हो। आप इसी तरह मेरे रोम-रोम के कोण-कोण को सदैव अपने गायन से आलोकित करती रहेंगी। मुझे ईर्ष्या है माँ सरस्वती से, जिन्होंने अब आपको पा लिया और हम सभी ने बहुत- कुछ खो दिया।
याददाश्त की खूंटी पर एक पंक्ति किसी यज्ञोपवीत की तरह पवित्र आभास दिलाती है। किसी ने लिखा था, “कृष्ण कहते कि गायिकाओं में मैं लता होता।” यह वाक्य उस काव्य का प्रतीक है, जो लता जी के रूप में सृष्टि के रचयिता ने विशिष्ट रूप से रचा। लेकिन विधि या ये विधान कौन रचता है कि लता जी के लिए ‘थीं’ सोचना भी पड़ जाए? आइए कि मिलकर संगीत का घर तलाशा जाए। संगीत से उसकी सबसे खूबसूरत संगति के सदा के लिए  बिछड़ जाने का मातम जो मनाना है। लता जी ने गाया था, ‘ये कैसा सुर मंदिर है, जिसमें संगीत नहीं…।’
अब लता जी की स्मृति शेष है और इसके चलते मैं इस सुर मंदिर को भग्नावशेष में बदल चुका पा रहा हूं। नमन।

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