करोड़ों खर्च… कुपोषण का नहीं मिटा दंश

कुपोषण

आदिवासी क्षेत्रों में कम नहीं हो रहा कुपोषण

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। मप्र में कुपोषण को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन हाल सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। खासकर आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण कम होने का नाम नहीं ले रहा है। आलम यह है कि कुपोषण को रोकने के जितने प्रयास हो रहे हैं, वह नाकाफी साबित हो रहे हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि कुपोषित बच्चों का आहार आखिर जमीन खा रही है या आसमान निगल रहा है। शासन द्वारा अनेक योजनाएं संचालित की जा रही हैं, लेकिन प्रदेश के कम वजनी व कुपोषित बच्चे योजनाओं के संचालन की हकीकत बयां कर रहे हैं। गांव-गांव में आंगनबाड़ी केंद्रों पर कुपोषण रोकने के लिए महिलाओं के गर्भवती रहने से लेकर बच्चों के पांच साल होने तक आहार दिया जाता है। साथ ही अनेक योजनाएं संचालित की जा रही हैं। फिर भी कुपोषण का दंश कम नहीं हो रहा है। सरकार के तमाम वादों और दावों के बावजूद प्रदेश के आदिवासी इलाके कुपोषण के दंश से बेहाल हैं। प्रदेश के 15 लाख में से करीब 70 हजार बच्चे कुपोषण के दायरे में हैं। शहडोल, अनूपपुर, उमरिया श्योपुर, शिवपुरी व खरगोन सहित कई इलाके कुपोषण की गिरफ्त में आ चुके हैं। बता दें कि गांवों में संचालित होने वाली अनेक आंगनवाडिय़ों के ताले तक नहीं खुलते, जिससे ग्रामीणों को योजना का लाभ नहीं मिल पाता। इसका नतीजा होने वाले बच्चे के शरीर पर पड़ता है। खास बात यह है कि योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च तो किए गए लेकिन कुपोषण की स्थिति जस की तस बनी हुई है।
पोषण आहार पर 1200 करोड़ से अधिक खर्च
प्रदेश में पोषण आहार पर हर साल 1200 करोड़ से अधिक खर्च होते हैं। महिला बाल विकास विभाग ने 2022-23 में पूरक पोषण आहार में 73,06,088 रुपए 22 लाख बच्चों पर खर्च किए। वहीं सीएम सुपोषण योजना में भी अलग से बजट के प्रावधान और करोड़ों खर्च के बाद भी हालात सुधरते नहीं दिख रहे हैं। पोषण आहार को लेकर कैग रिपोर्ट में घोटाला उठ चुका है। अंतरिम रिपोर्ट के मुताबिक भोपाल, छिंदवाड़ा, धार, झाबुआ, रीवा, सागर, सतना, शिवपुरी और श्योपुर जिलों में करीब 10 हजार टन पोषण आहार गायब होना पाया था। इन जिलों में कुल 97 हजार मीट्रिक टन पोषण आहार के स्टॉक की सूचना दी गई लेकिन उसमें से 87 हजार मीट्रिक टन पोषण आहार का ही वितरण हुआ।
ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति भयावह
कुपोषण को लेकर ग्रामीण इलाके की तस्वीर सबसे भयावह हैं। कई ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बाहरी क्षेत्र की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व सहायिका पदस्थ है, जिसके चलते आंगनबाड़ी न तो समय पर खुलती और न ही समय पर बंद होती है। ऐसे में जिम्मेदार अधिकारी भी निरीक्षण कर महज औपचारिकता पूरी करते हैं। गौरतलब है कि शासन के तमाम प्रयास के बावजूद कुपोषण का कलंक नहीं मिट पा रहा है। कुपोषण समाप्त करने के लिए शासन द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से हर साल करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। बावजूद इसके कुपोषण की स्थिति कम नहीं हो पा रही है। इसका मुख्य कारण आंगनवाड़ी पर मिलने वाली सुविधाएं बच्चों तक नहीं पहुंच पा रही है। जबकि शासन ने गर्भ अवस्था से ही बच्चों के देखरेख की जिम्मेदारी आंगनवाडिय़ों को सौंप रखी है। लेकिन जिले में कई आंगनवाडिय़ों के ताले तक नहीं खुलते, वहीं कई आंगनवाडिय़ां ऐसी हैं, जहां दर्ज बच्चों की संख्या में से नाम मात्र ही आंगनवाड़ी पहुंचते हैं। कार्यकर्ता व सहायिका उन्हें आंगनवाड़ी तक लाने में असफल रहती हैं।

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