जी जनाब!.. अब आप श्रीमंत को शक्ति नहीं, सहमति केंद्र कहिए…

भाजपा

भोपाल/प्रणव बजाज/बिच्छू डॉट कॉम। कांग्रेस को अलविदा कहकर भाजपा का दामन थामने के बाद श्रीमंत ने अपनी छवि कुछ इस तरह से बदली है कि अब उनके बारे में लोगों की धारणाएं पूरी तरह से बदल चुकी है। यही वजह है कि अब उन्हें शक्ति केन्द्र की जगह सहमति केन्द्र के रुप में देखा जा रहा है। उनकी इस छवि का फायदा केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्रिमंडल पुनर्गठन में उन्हें कैबिनेट मंत्री के दर्जा मिलने के रुप में मिला है।
यह बात अलग है कि उन्हें इसके लिए करीब 15 माह का लंबा इंतजार करना पड़ा है। हालांकि उनके मंत्री बनने के कयास तो लंबे समय से ही लगाए जा रहे थे , लेकिन इंतजार लगातार बढ़ने की वजह से उस पर कुआसे के बादल छाते दिख रहे थे, लेकिन इस समय का उनके द्वारा अपनी छवि में बदलाव करने के लिए फायदा उठाया गया।
इसकी वजह से न केवल उनकी छवि बदली है बल्कि उनकी पकड़ भी कांग्रेस की ही तरह भाजपा में भी मजबूत हुई है। दरअसल भाजपा में आने के पहले उनकी छवि एक महाराजा के अलावा सॉफेस्टीकेटेड राजनेता के रुप में थी।
 खास बात यह रही की भाजपा में आने के बाद उनके द्वारा कोई भी किसी तरह का विवादित बयान नहीं दिया गया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रकल्पों और अनुषांगिक संगठनों से नजदीकियां बनाई गई इसके अलावा हिन्दू धर्मग्रंथों का अध्ययन कर सर्वस्पर्शी और समावेशी छवि का निर्माण किया गया। इसकी शुरुआत उनके द्वारा भाजपा में आने के बाद लगातार मुख्यमंत्री से मिलने से की गई। इसका असर यह हुआ कि उनकी मुख्यमंत्री आवास में सपरिवार आवभगत की गई , जिसके फोटो भी सामने आए थे। इसके बाद से ही श्रीमंत ने अपने आप को भाजपा व संघ की रीति व नीति में ढालने के लगातार प्रयास जारी रखे।  यही वजह है कि वे कभी नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में तो कभी मप्र की राजधानी के कार्यालय समिधा में नजर आने लगे। खास बात तो यह है कि वे मौका मिलने पर संघ के जिला पदाधिकारियों से मिलने जाने में भी भाजपा के पुराने नेताओं की तुलना में पीछे छोड़ चुके हैं। इसका उदाहरण हाल ही में उनका मंदसौर दौरा है। इस दौरे में वे संघ के दफ्तर तो गए ही साथ ही वहां काफी देर तक संघ के स्थानीय पदाधिकारियों के साथ बंद कमरे में चर्चा भी करते रहे। गुना शिवपुरी का इलाका हो या फिर कोई अन्य इलाका जहां भी वे दौरे पर गए वहां बड़े नेताओं के साथ ही कार्यकर्ताओं के घर भी सुख-दुख बांटने में पीछे नहीं रहे। यही नहीं पुरानी राजनैतिक अदावत को भूल कर वे अपने धुर विरोधी रहे कैलाश विजयवर्गीय के घर जाने से भी पीछे नहीं रहे। उनके इस तरह के प्रयास लगातार जारी रहे। इसमें वे भाजपा के हर उस नेता से मिलने खुद उनके घर गए जो पार्टी में अलग-अलग गुटों के प्रभावशाली माने जाते हैं फिर चाहे नरोत्तम मिश्रा हों या फिर उनके बेहद करीबी मंत्री के घोर विरोधी गोपाल भार्गव। बात यहीं समाप्त नहीं होती है वे अपने दौरे के दौरान पार्टी के उन कार्यकर्ताओं के घर जाने से भी नहीं चूके जिनके द्वारा किसी कारणवश अपने परिवार के किसी सदस्य को हाल ही में खोया है। इसकी वजह से उनकी छवि में भी आमूल-चूल परिवर्तन की झलक पूरी तरह से दिखने लगी है। वे लगातार प्रदेश में दौरे कर रहे हैं। इन दौरों के जरिए वे प्रदेश में अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों में लगे हैं। ग्वालियर – चंबल अंचल में तो उनका महल की वजह से पहले ही प्रभाव था, लेकिन इसी महल की वजह से मालवा अंचल में भी वे पहले से मौजूद प्रभाव को और बढ़ाने के प्रयासों में लगे हुए हैं।
कांग्रेस में भी रहे हैं प्रभावी
जब श्रीमंत कांग्रेस में रहकर राजनीति करते थे तब भी ग्वालियर- चंबल संभाग में अन्य कोई नेता उनके बराबर प्रभावी नहीं रह सका। यह बात अलग है कि उनके भाजपा में शामिल होने के बाद से माना जा रहा था कि इस इलाके के भाजपा नेताओं और उनके बीच अदावत बनी रहेगी, लेकिन अब यह अनुमान गलत साबित होता दिख रहा है।
भले ही मोदी कैबिनेट में शामिल होना रहा हो, अपने समर्थकों के लिए शिवराज कैबिनेट में जगह बनाना । हाल ही में जिस तरह से प्रभारी मंत्रियों की सूची में अपने समर्थक मंत्रियों को ग्वालियर-चंबल संभाग के जिलों का प्रभार उनके द्वारा दिलवाया गया है यह सब दिखाता है कि उनके प्रभाव वाले अंचल में दूसरे बीजेपी नेताओं से फिलहाल श्रीमंत आगे हैं। हालांकि सिंधिया इससे बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखते।
मिलने लगा है बीजेपी नेताओं का समर्थन
हाल ही में मालवा में चार दिनों के दौरे पर गए श्रीमंत ने नीमच, मंदसौर, रतलाम, धार और उज्जैन में बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के घर-घर जाकर उनसे मुलाकात की। इस दौरान जिस तरह से बीजेपी नेताओं ने उनसे गर्मजोशी से मुलाकात कर उनका अभिवादन किया, इससे संकेत तो यही मिल रहे हैं कि अब हर कोई खुद को उनसे जोड़ कर रखना चाहता है। इसकी वजह है उनमें अब भविष्य की संभावनाएं साफ दिखना शुरू हो गई हैं। दरअसल भाजपा कार्यकर्ता जानते हैं कि श्रीमंत की पैठ सीधे बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से है। ऐसे में उन्हें प्रदेश की राजनीति में लंबी रेस के घोड़े के रुप में देखा जाने लगा है। हैं। जब वे बीजेपी में आए थे, तब सबसे बड़ा सवाल था कि क्या महल की राजनीति करने वाले श्रीमंत को भाजपा पूरी तरह से स्वीकार पाएगी , लेकिन उनकी स्वीकार्यता अब पूरी तरह से नजर आने लगी है।
विजयवर्गीय को लगा झटका
फिलहाल केन्द्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में जिस तरह से श्रीमंत और वीरेन्द्र खटीक को जगह दी गई है, उससे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को झटका लगा है। माना जा रहा था कि बंगाल से फ्री होने के बाद उन्हें भी कैबिनेट में शामिल किए जाने की पूरी संभावना बनी हुई थी। इसको लेकर लंबे समय से कयास भी लगाए जा रहे थे। यही वजह है कि अब तो वे खंडवा सीट से लोकसभा चुनाव तक लड़ने से इंकार करने लगे हैं।  यह बात अलग है कि वे बीते कुछ दिनों से बदले बदले नजर आ रहे थे। उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र में उन्हें जल्द ही कोई नई भूमिका कैबिनेट मंत्री के रूप में दी जाएगी। केंद्रीय मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार को लेकर वे अपनी चिर परिचित बयान बाजी से बचते नजर आ रहे थे। इस दौरान प्रदेश में भी चेहरा बदलने को लेकर तमाम अफवाहें सामने आई , लेकिन आक्रामक बयानबाजी करने वाले कैलाश नेतृत्व के प्रति विश्वास जताते नजर आए। इसके पीछे की बड़ी वजह थी उन्हें मोदी कैबिनेट में शामिल किए जाने की उम्मीद। हालांकि मोदी मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के बाद उन्होंने बातचीत के दौरान  कहा कि मंत्री बनाया जाना या नहीं बनाया जाना यह पार्टी का फैसला है। किसे शामिल करना किसे नहीं करना यह पार्टी तय करती है।
मंदसौर में सक्रियता के मायने
श्रीमंत के मंदसौर में सक्रियता के मायने तलाशे जाने शुरू हो गए हैं। दरअसल इसके पहले श्रीमंत के पिता स्व माधवराव सिंधिया भी ग्वालियर- चंबल अंचल के अलावा प्रदेश में इंदौर -उज्जैन के अलावा सिर्फ मंदसौर का ही प्रवास करते थे। इसकी वजह है मंदसौर में उनकी कई गढ़ियां और क्षत्रप आज भी मौजूद हैं। यह इलाका उनकी रियासत का पुराना हिस्सा रहा है। यहीं से ही उनके पुराने रियासतदार महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा आते थे। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि उनकी इस इलाके में चार दिनों तक की सक्रियता कहीं भविष्य में इस इलाके से लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी तो नहीं है। दरअसल श्रीमंत अपने ही गुना संसदीय क्षेत्र के गढ़ में बीता चुनाव अपने ही कारिंदे से हार चुके हैं।

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