- मामला संस्कृति विभाग का: अदालत को गुमराह किया, तथ्यों को छिपाकर लिया गया लाभ

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम
संस्कृति विभाग में जो हो जाए सो कम है। यहां कभी भी कुछ भी हो सकता है। ताजे मामले में विभाग आला अधिकारियों ने हाईकोर्ट एक आदेश का हवाला देते हुए ऐसे दो सहायक कार्यक्रम अधिकारियों को सहायक निदेशक पद पर पदोन्नति दे दी जो इसके पात्र ही नहीं थे। मजे की बात यह है कि हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि दोनों अधिकारियों को पदोन्नति दे दी जाए। पदोन्नति के इस मामले न केवल नियम कायदों की अनदेखी की गई है, बल्कि बड़े स्तर पर गुलगपाड़ा किया गया है। जिन दो सहायक कार्यक्रम अधिकारियों का जिक्र किया जा रहा है उनमें एक हैं दीपक कुमार गुप्ता और दूसरे हैं अशोक मिश्रा। 12 मार्च 2025 को विभाग की स्वीकृति से उपसंचालक डॉ. पूजा शुक्ला के नाम से जारी आदेश में मुभा व मिश्रा को सहायक निदेशक के पद पर पदोन्नत किया गया है। सूत्रों ने के बताया है कि संस्कृति विभाग अधिकारियों ने बड़ी ही चालाकी से इस काम को अंजाम दिया। दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में भर्ती हुए इन दोनों कर्मचारियों की सहायक निदेशक के पद तक पदोन्नत होने की कहानी न केवल चौंकाने वाली है, बल्कि यह भी बताती है कि कदम कदम पर नियम कायदों की धज्जियां कैसे उड़ाई जाती हैं। दीपक कुमार गुप्ता की बात करते हैं। उनकी नियुक्ति 1 अगस्त 87 को तत्कालीन संस्कृत अकादमी में दैनिक वेतन भोगी निम्न श्रेणी लिपिक के रूप में हुई थी।
31 जुलाई 1988 को उन्हें निम्न श्रेणी लिपिक के पद पर नियमित कर दिया गया। इतना ही नहीं अधिकारियों को वे इतने अच्छे लगे कि सारे नियम कायदों को ताक पर रखकर उन्हें लेखापाल भी बना दिया गया, जबकि यह सेवा भर्ती नियमों के विरुद्ध है। नियमानुसार निम्न श्रेणी लिपिक के पद पर कार्यरत कर्मचारी को पहले यूडीसी/सहायक ग्रेड 2. इसके बाद सहायक ग्रेड वन तत्पश्चात लेखापाल के पद पर पदोन्नति दी जा सकती है। आश्चर्य की बात यह है कि 29 जून 1993 जारी एक आदेश के अनुसार श्री गुप्ता को लेखा प्रशिक्षण में जाने से पूर्व ही अप्रशिक्षित लेखापाल के पद पर पदोन्नति देते हुए प्रशिक्षण अवधि में 1200-2040 का वेतनमान देव सभी भत्तों सहित स्वीकृत कर दिया गया। ऊंची तो तब हुई जब इसी आदेश के एक पैरा में प्रशिक्षण प्राप्त होने की तिथि से उन्हें 1400- 2340 का वेतनमान तथा अन्य देय सभी भत्तों को स्वीकार योग्य मान लिया गया। एक अन्य आदेश के अनुसार लेखा परीक्षा में 60 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त होने के फलस्वरूप 40 रुपए की अतिरिक्त वेतन वृद्धि स्वीकृत कर दी गई। इतना ही नहीं लेखा प्रशिक्षण प्राप्त करने की पूर्व अवधि 1 जुलाई 93 से प्रकल्पित वेतन 1440 प्रतिमाह मानकर स्वीकृति प्रदान की गई जो पूर्णत: नियमों के विरुद्ध तथा व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने की श्रेणी में आता है। पात्रता न होते हुए भी गुमा ने तीन समयमान वेतनमान का लाभ भी प्राप्त कर लिया।
युक्तियुक्तकरण में लेखा बिंग से कार्यक्रम बिंग में आए गुप्ता
वर्ष 2003 में मध्यप्रदेश शानान संस्कृति विभाग के अधीन प्रदेश में कार्यरत तमाम परिषद अकादमियों को विघटित कर मध्य प्रदेश संस्कृत परिषद का गठन किया। विघटन के चलते कर्मचारियों की वरिष्ठता को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ। ऐसे में वर्ष 2007 में युक्तियुक्तकरण की नीति बनाई गई, ताकि कर्मचारियों की वरिष्ठता निर्धारित की जा सके (इस दौरान दीपक कुमार गुप्ता संस्कृति परिषद की स्थापना शाखा में कार्यरत थे। उन्होंने उच्चाधिकारियों को भ्रमित कर स्वयं को लेखापाल से सहायक कार्यक्रम अधिकारी के पद पर पदोन्नति प्राप्त कर ली। उनसे सीनियर कई अधिकारी मुंह ताकते रह गए। वैसे भी यह पदोन्नति इसलिए गलत थी कि लेखा विंग का कोई कर्मचारी कार्यक्रम बिंग में आज ही नहीं सकता। लेकिन गुना पर अधिकारी जमकर मेहरबान थे। गुप्ता यहीं नहीं थमे. उन्होंने हाई कोर्ट में दावा पेश कर पून. वर्ष 2007 से ही सहायक निदेशक के पद पर पदोन्नति की मांग कर डाली। जबकि वर्ष 2007 में वे लेखापाल के पद से सहायक कार्यक्रम अधिकारी के पद पर पदोन्नति प्राप्त कर चुके थे। दायर याचिका में तमाम महत्वपूर्ण तथ्यों जिसमें यह भी शामिल है कि परिषद के स्वीकृत सेटअप में वर्ष 2007 की स्थिति में सहायक निदेशक के पद रिक्त ही नहीं थे, को छिपाया गया। सरकार की तरफ से मामले में नियुक्त ओआईसी ने भी वास्तविकता को छिपाकर गुप्ता के समर्थन में शपथ पत्र दे दिया। हाइकोर्ट ने इसी आधार पर प्रस्तुतियों की समीक्षा करने तथा 60 दिन के भीतर निर्णय लेने अथवा पात्रता न होने संबंधी तथ्य से गुप्ता को अवगत कराने का आदेश जारी कर दिया। लेकिन अफसोस कि संस्कृति विभाग के अधिकारियों ने मामले की समीक्षा नहीं की। हाईकोर्ट के आदेश का अपनी तईं अर्थ लगाते हुए गुप्ता को सहायक निदेशक के पद पर पदोन्नति दे दी।
अशोक मिश्रा को भी सहायक निदेशक बना दिया
अब बात करते हैं अशोक मिश्रा की जो इसी आदेश के तहत सहायक निदेशक बनाए गए हैं। वे भी इसी तरह दैनिक वेतनभोगी निम्न श्रेणी लिपिक कर्मवारी के रूप में नियुक्त हुए थे।। सितंबर 1993 को उनों भी सहायक सर्वेक्षण अधिकारी के रूप में नियमित किया गया। उनकी पदोन्नति को लेकर बबाल खड़ा हुआ। कई सीनियर कर्मचारियों ने इस आदेश के विरुद्ध हड़?ताल तक कर दी। आपत्तियां भी लगाई गई। ऐसे में उन्हें रिवर्टकर सहायक ग्रेड वन बना दिया गया। लेकिन इसके बाद वे फिर गुपचुप तरीके से सहायक सर्वेक्षण अधिकारी बना दिए गए। और हाल में दीपक कुमार गुमा की याचिका में शामिल होकर सहायक निदेशक बन बैठे, जबकि वे इस पदोन्नति की पात्रता ही नहीं रखते। उन्हें गोपनीय रूप से जनजातीय संग्रहालय में संग्रहाध्यक्ष भी बना दिया गया। खबर है कि आला अधिकारी उन पर खासे मेहरबान है। अवैध तरीके से, कोर्ट को गुमराह कर एवं तथ्यों को छुपाकर हुई इन पदोन्नतियों की संस्कृति विभाग में खासी चर्चा है। इस बीच कतिपय कर्मचारी इन मामलों को लेकर कोर्ट जाने की तैयारी में है। देखा जाए तो उक्त दोनों ही अधिकारियों की सभी पदोन्नतियां संदेह के घेरे में हैं। यहां बताना मुनासिब होगा कि एक निर्णय में उच्च न्यायालय ने साफ किया है कि यदि किसी कर्मचारी को सेवा लाभ या पदोन्नति संदिग्ध परिस्थितियों में प्राप्त हुई हो तो उसकी सेवा पुस्तिका एवं प्रक्रिया की स्वतंत्र जांच कराना प्रशासन का दायित्व है। लेकिन विभाग के आला अधिकारियों में संचालक से लेकर प्रमुख सचिव तक किसी ने ये जहमत नहीं उठाई। सब के सब आंख बंद किए हुए हैं।
