- ओम द्विवेदी
(1) व्यवस्था

धन के आगे नंगी होकर नाचती है
या सत्ता के समक्ष पड़ी रहती है निर्वसन
इसे या तो खरीदा जा सकता है
या फिर कुचला।
यह जो दिखती है
किसी वेश्या या दासी की तरह
दरअसल ‘व्यवस्था’ है इस देश की।
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(2) प्रार्थना

हे प्रभु!…… मैं तुम्हें अपने दुख दिखाने-गिनाने नहीं आया हूँ
अपनी दीनता, विवशता के विष तुम्हें नहीं चढ़ाना चाहता
तुमसे केवल
इतनी अनुमति चाहता हूँ
कि पलकों पर आँसुओं के जो सात सागर हैं
उनसे तुम्हारे चरण धुल सकूँ।
यह भी नहीं चाहता कि
मुझ पर विपत्तियों का पहाड़ टूटा है
और तुम कृष्ण बनकर
उसे अपनी कनिष्ठा पर धारण कर लो।
बस इतनी अभिलाषा है
कि इतना मत तोड़ देना
कि तुम्हारे ऊपर से ही भरोसा टूट जाए।
तुमसे सुखों का साम्राज्य नहीं चाहिए
नहीं चाहिए ऊँचे आसन, सिंहासन
बस एक अनुशासन चाहिए तन, मन और नयन का
जिससे पाप में आकंठ डूबी तुम्हारी इस दुनिया का पाप दिखाई न दे।
वैसे तो हम जनम-जनम के भिखारी
मांगेंगे तो माँगते ही चले जाएंगे
देते-देते तुम्हारा भी भंडार कभी खाली नहीं होगा
लेकिन तुम न देना राई-रत्ती भी कुछ
वरना खंडित हो जाएगा हमारा भिक्षुक धर्म
हम कुछ पाकर, कुछ होने के मद में चूर हो जाएँगे।
तुम्हें दुख देना भाता है तो इसी तरह देते रहो प्रसन्नता से
हाँ! पात्र को इतना सामर्थ्य देना कि वह तुम्हारा दिया हुआ संभाल सके।
हम तुम्हारे समक्ष शीश झुकाते रहें
इसके लिए आवश्यक है
कि तुम इस शीश की रक्षा करते रहो।