अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में दिखेगा बुनकरों का हुनर

अंतरराष्ट्रीय बाजार
  • एक शताब्दी बाद बनुकरों को मिलने जा रही ख्याती

भोपाल/अपूर्व चतुर्वेदी//बिच्छू डॉट कॉम। चार पीढ़ी से सिल्क की साड़ी बना रहे बालाघाट के वारासिवनी, मेहंदीवाड़ा, हट्टा, बोनकट्टा, एरवाघाट और टेकाड़ी के बुनकरों का हुनर अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में दिखेगा। दरअसल, केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के इंडस्ट्री प्रमोशन एंड इंटरनल ट्रेड ने वारासिवनी की रेशम यानी सिल्क साड़ी को जीआइ टैग प्रदान किया है। वारासिवनी की सिल्क साड़ी को जीआई टैग मिलने से हाथकरघा व हस्तशिल्प विकास निगम के अधिकारियों के साथ उन बुनकरों के चेहरे पर भी खुशी झलक रही है, जिनका परिवार पीढिय़ों से सिल्क साडिय़ां  तैयार कर रहा है। जीआई टैग मिलने के बाद अब बालाघाट के वारासिवनी की सिल्क साडिय़ों की विश्व स्तर पर पहचान बनेगी। साथ ही सिल्क साड़ी के निर्माण, उत्पादन में इजाफे के साथ इसकी ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी। बुनकरों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी।
जानकारी के अनुसार बालाघाट के वारासिवनी, मेहंदीवाड़ा, हट्टा, बोनकट्टा, एरवाघाट और टेकाड़ी जैसे स्थानों में पिछले कई दशकों से रह रहे 150 परिवार यहां पर सिल्क साड़ियों को बनाने का काम कर रहे हैं। पूरे क्षेत्र में लगभग 400 बुनकर लकड़ी की पुरानी हैंडलूम मशीनों पर सिल्क की साडिय़ां  तैयार करते हैं। कुछ सालों में सिल्क साड़ी उद्योग की अनदेखी और मार्केटिंग न होने से यह उद्योग धीरे- धीरे सिमट रहा था, लेकिन हाल ही में वारासिवनी की सिल्क साडिय़ों को जीआई टैग मिलने से हथकरघा व हस्तशिल्प विकास निगम के अधिकारी और बुनकरों को विश्वास हो गया है कि उनकी मेहनत को विश्व स्तर पर पहचान मिलेगी। इससे साडिय़ों  की ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी और बुनकरों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी।
जिले में सौ साल पुराना है हैंडलूम उद्योग
बालाघाट में 100 साल से हैंडलूम मशीन से सूती ड्रेस बनाने का काम चल रहा है। लेकिन धीरे-धीरे रेशम की खासियतों के कारण बुनकर सिल्क साडिय़ों को बनाने लगे। वारासिवनी में 1990 से सिल्क की साडिय़ां बनाई जा रही है। बुनकरों की मानें तो अन्य जगहों की सिल्क साडिय़ां कट जाती है, लेकिन बालाघाट की साडिय़ां लंबे समय तक सुरक्षित रहती है। क्योंकि वारासिवनी के बुनकर साड़ी के धानों की धुलाई करते समय इनका गोंद निकाल देते हैं। इन साडिय़ों का कलर काम्बिनेशन, टेक्सचर, प्राकृतिक सिल्क इसकी खासियत है।
सिल्क साड़ी बनाने की ये है प्रक्रिया
जिले में संचालित रेशम केंद्रों से ककून यानी कच्चा माल एकत्र किया जाता है। ये केंद्र भटेरा, परसाटोला, डोंगरिया, नेवरगांव, बटरमा, किरकाटोला, रामेपुर में संचालित हैं। यहां से निकलने वाला कच्चा माल बालाघाट के शासकीय धागाकरण इकाई यानी रीलिंग फैक्ट्री भेजा जाता है, जहां ककून से धागा बनाया जाता है। धागे को वारासिवनी के हस्तशिल्प विकास निगम, हाथकरघा कार्यालय व उत्पादन शाखा भेजा जाता है, जहां इसकी रंगाई होती है। अंत में रंग-बिरंगे धागों को बुनकरों तक पहुंचाया जाता है। वर्तमान में यहां के लगभग सभी बुनकर जिला हाथकरघा कार्यालय, हस्तशिल्प विकास निगम और स्व-सहायता समूहों से जुडक़र साडिय़ां बना रहे हैं। एक बुनकर को एक साड़ी बनाने का एक हजार 1200 रुपए तक का भुगतान होता है। इन साडिय़ों की मांग चंदेरी, कोलकाता, चेन्नई में सबसे ज्यादा है। इसके अलावा दिल्ली, जयपुर, हैदराबाद, भोपाल, इंदौर में लगने वाली साड़ी प्रदर्शनियों में भी वारासिवनी की साडिय़ां  प्रदर्शित की जाती हैं।

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