
भोपाल/प्रणव बजाज/बिच्छू डॉट कॉम। लोकायुक्त के सख्त रुख की वजह से प्रदेश की अफसरशाही को भ्रष्टाचार और आर्थिक अनियमितताओं के मामलों में बड़ा झटका लगा है। यह झटका लगा है सरकार द्वारा सात माह पुराने अपने उस आदेश को पलटने से, जिसमें कहा गया है कि अब दोनों ही जांच एजेंसियों को किसी भी शासकीय कर्मचारी और अधिकारी से पूछताछ के लिए न तो सरकार से अनुमति लेनी होगी और न ही विभाग से।
इस संबंध में सामान्य प्रशासन विभाग ने आदेश जारी कर दिया है। दरअसल अपने भ्रष्ट साथियों को जांच के दायरे से बाहर रखने के लिए ही सरकार पर इस मामले में दबाव बनाया गया था, जिसके बाद सरकार ने भी इस मामले में अनुमति प्रदान कर दी थी। इसके बाद राज्य शासन ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 में संशोधन कर दिसंबर 2020 और जनवरी 2021 में अलग-अलग दो आदेश जारी किए थे। इन आदेशों में कहा गया था कि शासकीय अधिकारियों व कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच से पूर्व सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य है। इन आदेशों के बाद न केवल सरकार की जमकर किरकिरी हुई थी, बल्कि सरकार के भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टॉलरेंस की नीति पर भी जमकर सवाल खड़े होने लगे थे। दरअसल अफसरों ने खुद और अधीनस्थ कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के मामलों में बचाने के लिए राज्य सरकार से बगैर अधिकार के ही इस कानून में संशोधन करवा दिया था जबकि भ्रष्टाचार निवारण के मामले में इस तरह के संशोधन का अधिकार कैबिनेट के अनुमोदन पर संसद में ही किया जा सकता है। इसके बाद ही इसका गजट नोटिफिकेशन भी केन्द्र सरकार द्वारा ही किया जा सकता है। खास बात यह है कि इस मामले में लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू के प्रमुखों तक से सलाह लेना तो ठीक उन्हें जानकारी देना तक मुनासिब नहीं समझा गया था। इसके बाद से ही इस मामले में लोकायुक्त नाराज चल रहे थे। इस मामले में लोकायुक्त ने सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) के प्रमुख सचिव को नोटिस देकर जबाव तलब तक कर लिया था। इस मामले में जीएडी द्वारा जब लोकायुक्त को संतुष्ट नहीं किया जा सका तो शासन ने नया आदेश जारी करना ही मुनासिब समझा। यही वजह है कि शासन व सरकार की जमकर किरकिरी कराने के बाद अब एक बार फिर सामान्य प्रशासन विभाग को नया आदेश जारी करना पड़ा है। इस नए आदेश में दिसंबर व जनवरी के जारी आदेशों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि राज्य शासन ने पुलिस अधिकारी व जांच एजेंसी को अधिनियम की धारा 17 ए के अंतर्गत जांच के लिए अनिवार्य पूर्व अनुमति प्राप्त करने के कोई निर्देश नहीं दिए गए हैं। इसके साथ ही इसी आदेश मेंं जीएडी द्वारा 26 दिसंबर 2020 और 6 जनवरी 2021 को जारी आदेश को शिथिल करने का उल्लेख भी किया गया है। गौरतलब है कि राज्य शासन की ओर से दिसंबर में जारी आदेश में कहा गया था कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में धारा 17 ए जोड़ी गई है, जिसकी वजह से अब पुलिसिया जांच एजेंसी को सरकारी अधिकारी और कर्मचारी के विरुद्ध जांच या पूछताछ अन्वेषण शुरू करने के लिए राज्य शासन की अनुमति लेना अनिवार्य किया गया है। उस समय जीएडी द्वारा राज्य के सभी विभागाध्यक्षों, संभागायुक्तों और कलेक्टर को जारी आदेश में कहा गया था कि भ्रष्टाचार में लिप्त अफसर द्वारा शासकीय कार्य में भ्रष्टाचार पाया जाता है तो उसकी जांच, अन्वेषण या पूछताछ करने के लिए जांच एजेंसियों को इस भ्रष्टाचार से जुड़े सभी दस्तावेज संबंधित सरकारी विभाग को भेजना होगा। विभाग उसका परीक्षण कर उस पर अपना स्पष्ट अभिमत समन्वय में देगा। इसके बाद जांच एजेंसी को इस मामले में जांच और पूछताछ के लिए पूर्व अनुमति दी जा सकेगी। यदि विभाग पूछताछ की अनुमति नहीं देता है तो जांच एजेंसियां संबंधित अधिकारी से पूछताछ भी नहीं कर सकेंगे। इस आदेश के बाद सरकार की नीति और नियत पर गंभीर सवाल खड़े हुए थे।
अफसरशाही का अब भी है एक अड़ंगा
इस आदेश को वापस लेने के बाद अभी भी इस तरह के मामलों में दोनों जांच एजेंसियों के हाथ एक अड़ंगे से बंधे हुए हैं। यह है चालान पेश करने की अनुमति लिया जाना। दरअसल अभी भी पूर्व की ही तरह इन एजेंसियों को जांच पूरी करने के बाद न्यायालय में चालान पेश करने से पहले संबंधित विभाग या फिर सरकार से अनुमति अनिवार्य रुप से लेनी होती है। प्राय: विभागों द्वारा इस तरह के मामलों में पहले तो अनुमति दी ही नहीं जाती है। अगर अनुमति देनी भी पड़ती है तो उसे पहले तो सालों तक लटकाए ही रखा जाता है। यही वजह है कि इन एजेंसियों के सैकड़ों मामले अब भी जांच पूरी होने के बाद न्यायालय तक नहीं पहुंच पा रहे हैं , जिस वजह से प्रदेश के भ्रष्ट अफसरों का बाल भी बांका नहीं हो पाता है।
अब नहीं रहेगा कोई बंधन
अब किसी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की कोई शिकायत लोकायुक्त या फिर ईओडब्ल्यू को मिलती है तो यह दोनों ही एजेंसियां संबंधित को पूछताछ के लिए न केवल तलब कर सकती हैं, बल्कि जरुरत के हिसाब से उनके खिलाफ मामला भी दर्ज कर सकती हैं। पूर्व में भी यही व्यवस्था लागू थी।