- बिच्छू डॉट कॉम के विशेष संवाददाता संजीव श्रीवास्तव से स्पीकर गिरीश गौतम की चर्चा

विशेष साक्षात्कार
भोपाल/संजीव श्रीवास्तव/बिच्छू डॉट कॉम। माननीय विधायकों को विधानसभा सचिवालय के अफसरों और स्टॉफ द्वारा (परिचय दिये बिना) नहीं पहचान पाना पीड़ा पहुंचाता है। मध्यप्रदेश विधानसभा में एक दौर था, जब बहुतेरे विधायकों के प्रवेश मात्र से सचिवालय में हलचल मच जाती थी। यह मुमकिन होता था विधायक की अपनी जागरूकता-वाकक्षमता और सदन में तार्किक रूप से मुद्दे उठाकर स्वयं को साबित करने की अति विशिष्ट शैली से। सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों को उनकी आवाज मात्र से पहचान लिया जाता था। आज गिने-चुने सदस्य ही हटकर अपनी पहचान बना पा रहे हैं। मैं चाहता हूं, पुराना दौर फिर लौटे। हर विधायक अपनी धारदार शैली के लिये, सदन और सदन के बाहर जाना एवं पहचाना जाये। यह कहना है, मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष गिरीश गौतम का। कनाडा के हैलीफेक्स में आयोजित 65वीं कामनवेल्थ पार्लियामेंट्री कांफ्रेस में हिस्सा लेकर लौटे श्री गौतम से ‘बिच्छू डॉट कॉम’ ने खास बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश:-
बिच्छू डॉट कॉम: कनाडा यात्रा में क्या कुछ खास रहा?
स्पीकर: सबसे पहले बताना चाहूंगा, कनाडा में बसे भारतवासियों ने मन मोह लिया। आजादी के अमृत महोत्सव का जश्न भारतीय वहां भी मनाते नजर आये। भारतीयों में जोश और खरोश देखकर बेहद खुशी हुई। एशिया मूल के वासियों की बचत की आदत ने सुखद अनुभूति प्रदान की। कनाडावासी पांच दिन जमकर कमाते हैं और वीकएंड पर कमाई से 20-25 फीसदी ज्यादा व्यय कर कर्जदार हो जाते हैं। जबकि एशिया मूल के लोग फिजूलखर्ची, ताम-झाम और चकाचौंध भरी जिंदगी से दूर रहकर बचत करते हैं।
बिच्छू डॉट कॉम: संसदीय मान से यात्रा कितनी सार्थक रही?
स्पीकर: यात्रा से बहुत कुछ सीखने को मिला। भारतीय लोकतंत्र बेजोड़ है। कनाडा में पाया, वहां का नागरिक देश के विकास में ज्यादा योगदान करता है। टैक्स व्यवस्था उत्तम लगी। कनाडा में स्वयं का प्रतिनिधि एवं सरकार चुनने को लेकर सिविक अवेयरनेस और शत-प्रतिशत वोट से जुड़ी व्यवस्था ने भी बहुत प्रभावित किया। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का नाम विदेशियों की जुबां पर बने होने ने सीना गर्व से चौड़ा कर दिया।
बिच्छू डॉट कॉम: भारतीय और कनाडा के लोकतंत्र से जुड़ा बड़ा अंतर क्या पाया?
स्पीकर: वे (कनाडावासी) कर्तव्य के प्रति ज्यादा जागरूक लगे। हम (भारतीय) अपने अधिकारों तक ही सीमित बने रहते हैं। कर्त्तव्य शब्द को जहन में नहीं रखते। मौलिक अधिकार की दुहाई देकर अधिकारों को मजबूती प्रदान कर समय व्यर्थ करते हैं। हमारे प्रजेंटेशन का विषय रोल आॅफ द पार्लियामेंट आॅन द सस्टेनेबल डव्हलपमेंट था। हमने प्रजेंटेशन में बताया भारत लगातार विकास कर रहा है। विकास के मोर्चे पर पूरी शिद्धत से काम करने के बाद भी दुनिया में भारत के थोड़ा पीछे दिखने की वजह हमारी जनसंख्या है।
बिच्छू डॉट कॉम: वापसी करते हैं, मध्यप्रदेश…स्पीकर सर – सदन की बैठकें कम दर कम क्यों?
स्पीकर: स्पीकर बनते ही शिमला में हुए पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में इस मसले को मैंने पुरोजर तरीके से न केवल उठाया था, बल्कि बैठकों के दिन बढ़ाने की कार्ययोजना पेश की थी। सुझाव दिया था, संविधान में संशोधन करवाने की अनुशंसा करते हुए लोकसभा न्यूनतम 100-110 दिन, बड़ी विधानसभाएं 75-90 दिन, छोटी 60 दिन और बहुत छोटी हैं तो भी साल में 35-40 दिन अवश्य चलें। मेरे सुझाव को प्रस्ताव बनाकर आगे बढ़ाया गया। उस प्रस्ताव पर फैसला आना बाकी है।
बिच्छू डॉट कॉम: संविधान में संशोधन न होने तक क्या रास्ता आप देखते हैं?
स्पीकर: सदन चले, इसके लिये सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रतिपक्ष की मानता हूं। क्योंकि विधानसभा से सबसे ज्यादा फायदा किसी को होता है तो प्रतिपक्ष को होता है। विधानसभा चलने या ना चलने से सत्तापक्ष को बहुत फर्क नहीं पड़ता। एक संस्था उनकी अलग चल रही है। सत्तापक्ष के लोगों के लिये सरकार है। सरकार भी तो लोकहित का काम कर रही है। लगातार उनके काम हो रहे हैं। जिसको (प्रतिपक्ष की ओर इशारा) ज्यादा फायदा होता हो सदन चलाने की ज्यादा जिम्मेदारी तो उसी की है ना!
बिच्छू डॉट कॉम: बजट का गिलोटिन होना आम बात हो गया है, बिना चर्चा इसका पारित होना पीड़ा नहीं पहुंचाता?
स्पीकर: अनेक लोग गिलोटिन नहीं जानते। बजट पास करवाना जरूरी है। बेहद महत्वपूर्ण प्रश्नकाल हंगामे की भेंट चढ़ता है। शून्यकाल नहीं होता। आसंदी चाहती है, सभी को अवसर मिले। प्रत्येक विषय पर सारगर्भित और सार्थक चर्चा हो। शांति और नियम-कायदों में रहकर हरेक अपनी बात रखे। मैं चाहता हूं सदन ज्यादा से ज्यादा समय तक चले। सदस्यों के सहयोग के बिना विधानसभा नहीं चल सकती। सत्र छोटा हो तो भी हरेक पक्ष को मिलने वाले समय का भरपूर लाभ लेना चाहिये। जनहित के विषयों को तार्किक तरीके से उठाने और अपने सवालों का जवाब सरकार से लेने के लिये पूरी तरह से मुस्तैद रहने पर ही बात बन पायेगी। हंगामा तो सत्ता पक्ष की मदद करता है।
बिच्छू डॉट कॉम: हेड आॅफ द इंस्टीट्यूशन होने के नाते सदस्यों का क्या सलाह देना चाहेंगे?
स्पीकर: जमकर अध्ययन कीजिये। नियम-कायदों के अंतर्गत अपनी बात को रखिये। बहुत ज्यादा दु:ख होता है जब देखते हैं कि माननीय विधायक को सचिवालय के अफसरगण और कर्मचारी बिना परिचय दिये नहीं पहचानते। एक दौर था जब अपने संसदीय कौशल, नियम-कायदों के ज्ञान और तार्किक ढंग से सदन में अपनी बात रखने के लिये विधायक को पहचाना जाता था। जब ऐसे सदस्य विधानसभा में प्रवेश करते थे तो, हलचल होती थी। उनके मूवमेंट पर नजर रखने के उपक्रम भी होते थे। आज ऐसे चेहरे गिने-चुने हैं जो संसदीय ज्ञान और तार्किक क्षमता की वजह से अपनी खास पहचान रखते हैं। मैं चाहता हूं , पुराना वक्त वापस आये। अधिकांश माननीय सदस्य धारदार वाकक्षमता, विषय विशेषज्ञता और संसदीय ज्ञान की वजह से विशिष्ट पहचान हासिल करें। लाइब्रेरी का भरपूर उपयोग करें।
बिच्छू डॉट कॉम: प्रबोधन कार्यक्रम क्यों बंद हो गये हैं?
स्पीकर: माननीय सदस्यों की रूचि कम होना प्रबोधन कार्यक्रमों में कमी होने.
की बड़ी वजह है। अब जो सदस्य चुनकर आ रहे हैं वे ऐसा मानते हैं उन्हें सब आता है। जबकि सच यह नहीं है।
बिच्छू डॉट कॉम: अंत में, क्या ऐसा माना जाये लोकतंत्र की नींव कमजोर हो रही है?
स्पीकर: कतई नहीं। लाख बुराइयां पैदा होने के बाद भी हमारा लोकतंत्र बेहद मजबूत है। वह कभी भी कमजोर नहीं पड़ सकता। अस्पताल में रोगी की मौत कई बार डॉक्टर की लापरवाही से होती है। लापरवाही साबित होने पर डॉक्टर को बदल दिया जाता है। हम या कोई और गड़बड़ नजर आता है, वोटर रूपी सरकार हम जैसे डॉक्टरों को भी मौका मिलते ही बदल देती है। यह बात सदस्य समझ लेंगे तो सदन से जुड़ी बहुतेरी तथा-कथित बुराइयां स्वमेव दूर हो जायेंगी। हम ह्यपुराने युग और दौरह्ण में वापसी कर जायेंगे।