- वीरेंद्र नानावटी

गुजरात के किशन भरवाड़ की निर्मम हत्या ने बता दिया कि निदा तुम सिर्फ शायर नहीं, सचमुच इन्सानियत के बेखौफ फरिश्ते रहे हो, सच के इक जलते चराग!
उर्दू अदब का एक ऐसा फनकार जिसको अपने मुल्क और उसकी सांस्कृतिक विरासत से बेइंतहा महब्बत थी! मजहब जिसका कभी मुल्क के आड़े नहीं आया! जो धर्मांध आड़े आए, उनकी हमेशा खबर ली!
मेहबूबाओं और मनव्वरों के बीच में असल दानिशमंद!
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए!
निदा फाजली…
बेहतरीन नज्मों और शायरी को मुल्क की फजाओं और धड़कनों में महकाने वाला अजीम शख्सियत का मकबूल शायर !
मेरी पसंद का कवि, शायर और फनकार !
निदा फाजली का मतलब ही है कि अपने मुल्क और अपनी तहजीब से बेइंतेहा प्यार!
इस सदी का वो शायर जो सिर्फ़ इंसानियत का पैरोकार रहा! मजहबी सोच जिसे छू नहीं सकी!
उसने गजल लिखी तो गालिब,नज्म लिखी तो फैज और दोहा लिखा तो कबीर याद आ गए !
निदाफाजली…सिर्फ शायरी के सरताज नहीं… इंसानियत के जलते चिराग भी रहे…! उनकी शख़्सियत में कबीर की दो टूक बेबाकी और मजहबी कट्टरता पर चोट का अलाव था…तो निराला का फक्कड़पन और साफगोई का खूबसूरत अन्दाज! लेकिन वे असल तो महब़्बत और इन्सानी रिश्तों के पैरोकार रहे…!! उनकी शायरी में हमेशा कोई फरिश्ता ठेठ भीतर तक रहता था… निदा फाजली तुम शायरी की धड़कनों में हमेशा महकते रहोगे…
गुजरात के किशनभरवाड़ की नृशंस हत्या के बाद ऐसे मुल्ला-मौलवियों पर तुम्हारी लिखी नज्म
मर्सिया पढ़ती इन्सानियत का दर्द बयां कर रही है!
आज निदा फाजली जी के ये दो शेर याद आ रहे हैं –
….हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..!
हर काम में कोई काम रह गया..!!
नमाजी उठ उठ कर चले गये मस्जिदों से..!
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!!
खून किसी का भी गिरे यहां
नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर
बच्चे सरहद पार के ही सही
किसी की छाती का सुकून है आखिर
खून के नापाक ये धब्बे, खुदा से कैसे छिपाओगे ?
मासूमों के कब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ?
कागज पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल .
दिलेरी का हरगिज हरगिज ये काम नहीं है
दहशत किसी मजहब का पैगाम नहीं है ….!
तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो..
हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है….!!
(लेखक स्तंभकार एवं विचारक हैं)