
कितनी मिलेगी सत्ता व संगठन में भागीदारी
भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। बीते दो माह में कई नामी गिरामी से लेकर मैदानी स्तर तक के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने लगभग हर रोज रामनामी दुपट्टा ओढ़ा है। लोकसभा चुनाव था ,सो भाजपा ने भी उन्हें वोट साधने के लिए लगा दिया। नई पार्टी थी , सो जोश भी खूब दिखाया। अब मतदान हो चुका है , ऐसे में इन दलबदलुओं की नई भूमिका को लेकर कई तरह की चर्चाएं होने लगी है। दरअसल जिस तरह से चुनाव के समय प्रदेश कांग्रेस में भगदड़ मची रही , उससे कांग्रेस को बहुत अधिक चुनावी नुकसान उठाना पड़ा है। यही वजह है कि अब चुनाव हो जाने के बाद सवाल खड़ा होने लगा है कि इन नेताओं की कितनी तवज्जो मिलेगी और वे कितना सक्रिय रह पाएंगे। फिलहाल माना जा रहा है कि उन्हें पार्टी संगठन में अपनी नए सिरे से पहचान बनानी होगी, साथ ही पुराने नेताओं के साथ उन्हें समन्वय की चुनौती का भी सामना करना होगा।
जिन नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कहकर भाजपा का दामन थामा है, वे कांग्रेस में रहते इनते प्रभावशील थे कि उन पर कभी न कभी पार्टी की रणनीति बनाने और उम्मीदवार तय करने की जिम्मेदारी थी। लेकिन उनके पाला बदलने ने प्रदेश कांग्रेस को कमजोर करने में महत्ती भूमिका निभाई। चुनाव प्रचार के वक्त भाजपा को इन नेताओं का साथ मिलने से उसे जहां अपने वोट बढ़ाने में सफलता मिली, तो वहीं उसने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी मनोवैज्ञानिक ढंग से हताश कर दिया। कई जगह तो हालात ऐसे बन गए कि पोलिंग बूथ पर काम चलाऊ कार्यकर्ताओं से काम चलाना पड़ रहा था।
इन नेताओं पर खास नजर भूमिका
हालत यह रही कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुरेश पचौरी हों या फिर कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष एवं विधायक रामनिवास रावत जैसे नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने से कांग्रेस को बड़ा झटका लगा। इनके अलावा भोपाल के पूर्व महापौर सुनील सूद, भोपाल में कांग्रेस के वर्षों जिलाध्यक्ष रहे कैलाश मिश्रा, बीना विधायक निर्मला सप्रे, अमरवाड़ा विधायक कमलेश शाह, हरिवल्लभ शुक्ला और मुरैना महापौर ने भी भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है। राजनीति पर नजर रखने वालों को अब इनकी भविष्य में क्या भूमिका होगी, इस पर नजर बनी हुई है। उनका मनना है कि जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोडक़र कमलनाथ की सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई थी, तब उनके साथ तत्कालीन विधायकों से लेकर कई दिग्गज नेताओं ने भी पार्टी बदली थी। इनमें से अब अधिकांश नेता राजनीति की मूलधारा से दूर नजर आने लगे हैं। यही वजह है कि सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या भाजपा उन्हें संगठन व सत्ता में महत्व देगी या फिर दूसरे नेताओं जैसा ही उन्हें भी नेपथ्य में भेज दिया जाएगा।
कांग्रेस को करनी होगी नई कवायद
इधर चुनाव के बाद कांग्रेस को भी प्रदेश में अपना जनाधार बचाने के लिए लोकसभा चुनाव के बाद नए सिरे से कवायद करनी होगी। विशेषकर जो नेता कांग्रेस का साथ छोड़ गए है, तो उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में कैसे संगठन को मजबूत बनाया जाए, इस पर ज्यादा मशक्कत करनी होगी। हालांकि भाजपा के लिए भी यह कठिन होगा कि वह किस तरह से मैदान में पुराने और नए साथियों के बीच सामंजस्य बना पाएगी, क्योंकि भाजपा में शामिल होने वाले कांग्रेसी नेताओं का भी अपने क्षेत्रों में प्रभाव है तो उनके प्रतिदंद्वी भाजपा नेता का भी वहां अपनी साख है, ऐसे में दोनों नेताओं का कद टकराहट की वजह न बनें इस पर भी संगठन के नेताओं को ध्यान देना होगा।