
प्रवीण कक्कड़
भारत के स्वाधीनता संग्राम में अनगिनत नाम हैं, पर कुछ ऐसे भी हैं जिनकी गाथा जंगलों की ख़ामोशी में जन्मी और जनजातीय समाज के हृदयों में अमर हो गई। मालवा-निमाड़ की धरती पर जन्मे जननायक टंट्या भील, जिन्हें आम जनता प्रेम से टंट्या मामा कहती है, ऐसे ही अमर नायकों की श्रेणी में आते हैं। वे केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि आदिवासी स्वाभिमान, न्याय, नेतृत्व और सामाजिक अस्मिता की जीवित चेतना थे।
आज भी मालवा की मिट्टी, निमाड़ के जंगल, सतपुड़ा की वादियाँ और दक्कन की पहाडिय़ाँ टंट्या मामा के कदमों की प्रतिध्वनि का एहसास कराती हैं। 4 दिसंबर, जो मध्य प्रदेश में बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है, केवल एक ऐतिहासिक तिथि नहीं, बल्कि साहस, नेतृत्व, संघर्ष और आत्मगौरव का पर्व है।
अन्याय के विरुद्ध उठी एक आवाज: टंट्या मामा का जीवन उस दौर में शुरू हुआ जब भील जनजाति पर अंग्रेजी हुकूमत, साहूकारों और जमींदारों के अत्याचार गहराते जा रहे थे। जंगलों पर लगने वाले प्रतिबंध, पारंपरिक आजीविका पर दबाव, भूमि अधिकारों का हनन और प्रशासनिक कठोरता, इन सबने जनजातीय समाज को गहरे घाव दिए थे। इन्हीं परिस्थितियों ने टंट्या मामा को एक सामान्य व्यक्ति से जननायक बना दिया। उनका संघर्ष किसी हिंसक विद्रोह या प्रतिशोध का परिणाम नहीं था। यह उस पीड़ा का प्रतिफल था जो आदिवासी समुदाय ने वर्षों तक सहन की, अपनी जमीन, अपनी संस्कृति और अपने अधिकार की रक्षा के लिए वे खड़े हुए।
गुरिल्ला युद्ध कला में अप्रतिम दक्ष योद्धा
टंट्या मामा ने गुरिल्ला युद्ध नीति में अद्भुत महारत हासिल की थी। वे पहाड़ों, जंगलों और कठिन भूगोल का उपयोग ऐसे करते थे कि अंग्रेजी सैनिक उनसे हमेशा एक कदम पीछे रहते। मालवा-निमाड़, सतपुड़ा और दक्षिण के जंगल उनके रणक्षेत्र थे और आदिवासी समाज उनका परिवार। अंग्रेज उनके लिए बड़ी संख्या में टुकडिय़ाँ भेजते रहे, पर मामा अपनी रणनीति, तेज बुद्धि और अद्भुत फुर्ती के कारण बार-बार पकड़ से बाहर रहते। उनकी जीवन-गाथा में उल्लेख मिलता है कि वे अत्याचारियों से धन लूटते और गरीब आदिवासियों में अनाज, नमक और कपड़े बाँट देते, इसी सामाजिक न्याय के कारण जनता ने उन्हें प्यार से मामा कहा—एक ऐसा संबोधन जो आज भी गहरे रिश्ते का प्रतीक है।
आदिवासी न्याय और स्वाभिमान का सबसे बड़ा संदेश: टंट्या मामा अन्याय, शोषण, असमानता और अत्याचार के खिलाफ खड़े थे। उनका संदेश तीन मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित था—
1. नेतृत्व पद से नहीं, साहस और करुणा से जन्मता है
उन्होंने दिखाया कि नेता वही है जो अपने समुदाय के दुख को महसूस करे और समाधान के लिए आगे आए।
2. अधिकार संघर्ष से प्राप्त होते हैं
टंट्या मामा ने आदिवासी समाज को बताया कि सम्मान भीख नहीं—साहस और सामुदायिक एकजुटता से मिलता है।
3. संस्कृति और पहचान सबसे बड़ी शक्ति है
उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि जब तक समुदाय अपनी भाषा, परंपरा, संस्कृति और जमीन पर गर्व नहीं करेगा, तब तक वह बाहरी दमन के खिलाफ खड़ा नहीं हो सकता।
4 दिसंबर: एक स्मृति से अधिक, आत्मसम्मान का दिवस
यह तिथि मध्यप्रदेश में अत्यंत सम्मान के साथ मनाई जाती है। 4 दिसंबर को टंट्या मामा के अद्वितीय बलिदान को सम्मानित करने के लिए मध्य प्रदेश उनका बलिदान दिवस मनाता है और हजारों आदिवासी आज भी इस दिन उन्हें अपने पुरखों, अपने लोकनायक और अपने स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में नमन करते हैं।
आज के युवाओं के लिए टंट्या मामा का संदेश: समय बदल गया है, पर उनके मूल्य आज भी वही प्रकाशस्तंभ हैं जो वर्तमान युवा पीढ़ी को दिशा देते हैं।
1. अन्याय के खिलाफ आवाज उठाओ
यदि कहीं असमानता है—सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक—तो खामोश रहने के बजाय साहसपूर्वक आगे आना ही नेतृत्व का पहला कदम है।
2. समुदाय को साथ लेकर चलो
नेतृत्व कभी अकेला नहीं होता। टंट्या मामा की असली ताकत भील समाज की एकजुटता थी।
युवाओं को भी अपने गाँव, समाज, भाषा और संस्कृति से जुडऩा चाहिए।
3. शिक्षा और कौशल ही आधुनिक हथियार हैं
जिस तरह टंट्या मामा ने गुरिल्ला नीति सीखकर अंग्रेजों को चुनौती दी, आज के युवाओं को तकनीक, ज्ञान, प्रशासनिक कौशल, खेल और उद्यमशीलता को अपना हथियार बनाना होगा।
4. संस्कृति पर गर्व करो
उनकी शक्ति उनकी संस्कृति थी। यही कारण है कि टंट्या मामा आज भी भील समाज की अस्मिता, सम्मान और गौरव का प्रतीक हैं।
इतिहास से भविष्य तक: टंट्या मामा की विरासत
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा चलाई जा रहीं योजनाएं यह दर्शाती हैं कि उनका योगदान केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि विकास की वर्तमान यात्रा का आधार भी है।
आज आदिवासी युवा खेल, शिक्षा, प्रशासन, सेना, कला और उद्यमिता—हर क्षेत्र में नई पहचान बना रहे हैं। यदि उन्हें सही अवसर, संसाधन और मार्गदर्शन मिले तो वे समाज के लिए वही ऊर्जा बन सकते हैं जो टंट्या मामा थे। साहस, नेतृत्व और न्याय की ऊर्जा।
साहस का वह प्रकाश जो कभी मंद नहीं पड़ता: टंट्या मामा केवल अतीत के नायक नहीं। वे वर्तमान का मार्गदर्शन और भविष्य की प्रेरणा हैं। उनकी गाथा हमें बताती है – कि अन्याय से लड़ना ही नहीं, बल्कि अपने समुदाय के लिए खड़ा रहना भी वीरता है। 4 दिसंबर केवल एक स्मृति का दिन नहीं, यह संकल्प का दिन है कि आदिवासी समाज का उत्थान ही मध्य प्रदेश की असली शक्ति है और साहस, स्वाभिमान और न्याय की वह ज्योति आज भी उतनी ही तेज है जितनी टंट्या मामा के समय थी।
(लेखक पूर्व पुलिस अधिकारी हैं)
