जबलपुर आयुर्वेद तो भोपाल आर्गेनिक खेती का बन रहा हब

भोपाल आर्गेनिक खेती
  • केरल व पूर्वोत्तर राज्यों को चुनौती देने के लिए तैयार हो रहा है मप्र

भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। वह दिन दूर नहीं जब मप्र आयुर्वेद में केरल को तो आर्गेनिक खेती में पूर्वोत्तर राज्यों के लिए चुनौति देता नजर आएगा। इसकी वजह है अब प्रदेश के लोगों में इसको लेकर तेजी से रुचि का बढ्ना। यही वजह है कि जबलपुर जिले में आयुर्वेदिक औषधीय की खेती और इसके  पेड़ लगाने की होड़ दिखनी शुरू हो गई तो वहीं ,भोपाल और  उसके आसपास के इलाके में आर्गेनिक खेती को लेकर लोगों में रुझान तेजी से बढ़  रहा है। यही वजह है कि अब जहां महाकौशल अंचल में औषधियों वाली फसल की बड़ी मंडी बननी शुरू हो गई है। आसानी से आयुर्वेद दवाओं के उपयोग वाली जड़ीबूटियों अब यहां पर आसानी से बहुतायत मात्रा में उपलब्ध होने की वजह से दो दर्जन से अधिकारी दवा बनाने वाली बडी़ कंपनियों ने जबलपुर, सिवनी, अमरकंटक, छिंदवाड़ा में अपनी निर्माण इकाइयां लगाकर दवाओं को बनाना तक शुरू कर दिया है। इसमें से करीब डेढ़ दर्जन से अधिक दवा कंपनियां जबलपुर शहर में ही आ चुकी हैं।  इसकी वजह से अब यहां आयुर्वेद के विशेषज्ञ डॉक्टर तैयार करने वाले संस्थानों की संख्या भी एक की जगह तीन हो चुकी है।
यही नहीं अब तो  केरल और उत्तराखंड की तरह कई बड़े दवा समूह जबलपुर शहर के आसपास अपनी कंपनियां शुरू करने के लिए जमीन तक तलाश रहे हैं।  दरअसल जबलपुर शहर और उसके आसपास के इलकों में भी प्राकृतिक रुप से औषधियोंं के पेड़ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इन इलाकों में पाटबाबा, मदनमहल, ठाकुर ताल की पहाड़ी, सिद्ध बाबा की टोरिया, चरगवां, कुंडम के वन क्षेत्र शामिल हैं। इसके अलावा इसके करीब ही छिंदवाड़ा के पाताल कोट में भी औषधियों का प्रचुर मात्रा में भंडार पाया जाता है।
डेढ़ हजार एकड़ में हो रही आॅर्गेनिक खेती
महाकौशल के बाद मध्यभारत का राजधानी और उसके आसपास का इलाका भी आॅर्गेनिक खेती में तेजी से पहचान बना रहा है। इसके आसपास रहने वाले करीब एक हजार किसान आॅर्गेनिक खेती कर रहे हैं। भोपाल से सटे मुगालिया हाट, मुगालिया छाप, गुराड़ी, परवलिया, बैरसिया सहित 130 गांवों के किसान करीब 1500 एकड़ रकबे में गेहूं, सोयाबीन, सरसों, कई प्रकार की दालें, सब्जी, लहसुन, प्याज, धनिया, काला गेंहू, हल्दी व अन्य प्रकार की फसलों की खेती कर रहे हैं। यह बात अलग है कि इसके लिए अलग से कोई खरीदी की व्यवस्था नहीं होने की वजह से किसानों को अब भी व्यापारियों के हाथों लुटने को मजबूर होना पड़ रहा है। खास बात यह है कि यहां पर जिस काले गेंहू का उत्पादन किया जा रहा है वह डायबिटीज के लिए बेहद फायद ेमंद माना जाता है। यह काला गेहूं चेन्नई, बेंगलुरू, कलकत्ता तक जाता है।  इस तरह की आर्गेनिक फसलों की मांग स्थानीय स्तर पर भी बहुत है। इस मामले में एक किसान का कहना है कि कड़ी मेहनत और धैर्य के बाद आॅर्गेनिक फसल तैयार होती है।
यूरिया और डीएपी मिलाकर एक एकड़ में जितना लहसुन और प्याज पैदा होता है , आॅर्गेनिक खेती में उससे आधा ही उत्पादन होता है। यही नहीं जहां यूरिया, डीएपी की फसल जल्दी हो जाती है, वहीं आर्गेनिक फसल में उससे अधिक समय लगता है। इस मामले में कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि  आॅर्गेनिक खेती का रकबा काफी बढ़ रहा है। किसानों को इसके अच्छे रेट मिल सकें इसके लिए विभाग की तरफ से गुलाब उद्यान में माह में दो बार जैविक हाट लगाई जा रही है। उच्च वर्ग भी जैविक सब्जी, खाद्यान पसंद कर रहा है। गुड़ और घी भी जैविक पद्वति से तैयार हो रहे हैं।
इस तरह की औषधियों का है भंडार
विशेषज्ञों की माने तो नर्मदा बेसिन के वन क्षेत्र से लेकर महाकौशल के जंगलों तक में औषधियों वाले पेड़ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें गुरबेल, अशोक, अर्जुन, विदारीकंद, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, ग्वारपाठा, नीम, अश्वगंधा, मुसली, क्रौंच, अपामार्ग, अमलतास, कुटज, गुड़मार, सतावर, बेल, आंवला, हर्रा, बहेरा, कई तुलसी, गोंद, गोंद मोरंगा, मुनगा, गुल बकावली, गुलाब, महुआ, मुंडी, भटकटैया, हडजोड़, भुई आंवला, भृंगराज, गूलर, पलास, चाल मखाना, गोखरू, बबूल आदि शामिल हैं।
अनुसंधान केन्द्र की मांग
आयुर्वेद के विशेषज्ञों के अनुसार इस अंचल में जड़ी-बूटियों का बड़ा भंडार है, लेकिन औषधियां पहचानने वालों की संख्या घट रही है। आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. सुधीर अग्रवाल की माने तो यहां आयुर्वेदिक औषधियों का अनुसंधान केंद्र भी बनाने की जरूरत है। इससे दुर्लभ जड़ी-बूटियों की पहचान होगी। बताते हैं, अमरकंटक, मंडला, डिंडौरी के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ऐसी जड़ी-बूटियां उपलब्ध हैं, जो असाध्य बीमारी में भी बेहद कारगर है।
की जा रही स्थानीय स्तर पर ब्रांडिंग
कुछ बड़े किसानों ने 50 एकड़ तक रकबे में आॅर्गेनिक खेती शुरू कर दी है। वह तरह -तरह की फसल उगाकर उसे पैक कर सोशल मीडिया के माध्यम से देश ही नहीं विदेशों में भी अपने स्तर पर ब्रांडिग कर बेंचने का भी काम कर रहे हैं। यह बात अलग है कि इस तरह की फसल में उत्पादन कम और लागत अधिक आती है जिसकी वजह से आम आदमी इसे खरीदने में रुचि नहीं ले रहा है, लेकिन पैसे वालों की यह पहली पंसद बनाता जा रहा है।
यह है अभी स्थिति
बीते वर्ष प्रदेश ने  2 हजार 683 करोड़ रुपये के मूल्य के 5 लाख मी.टन से अधिक के जैविक उत्पाद निर्यात किये हैं। प्रदेश का जैविक उत्पाद निर्यात लगातार तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2020-21 में प्रदेश में 5 लाख 41 हेक्टेयर में जैविक फसलों की बोनी की गई। प्रदेश में जैविक खेती की अपार संभावनाओं से पूरित है। यहां सभी धान्य फसल, सब्जियाँ, फल, मसाले, सुगंधित एवं औषधीय फसलें न्यूनतम रासायनिक इनपुट के उपयोग से ली जाती हैं। प्रदेश में कई जिले, ग्राम, विकासखण्ड और ग्राम पंचायत क्षेत्र ऐसे हैं, जो राज्य औसत से कम से कम 50 से 60 प्रतिशत कम बाह्य आदान जैसे रासायनिक उर्वरक, कृषि रसायन आदि का उपयोग कर रहे हैं। इस दृष्टि से अधिकांश जनजातीय जिले जैसे मंडला, डिंडौरी, बैतूल, झाबुआ, अलीराजपुर आदि जैविक कृषि विकास के अनुकूल है।

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