इंदौरी ‘अटल’ का अवसान ….खाली हाथ चला गया ‘सुदामा’

  • नितिन मोहन शर्मा
सुदामा

स्मृति शेष…

सुदामा खाली हाथ ही चला गया। तुम उसकी झोली में सत्ता सुख का एक दाना तक डाल नहीं पाये। ऐसा नही की वो इस सुख का प्रार्थी नही था या पात्र नहीं था। योग्यता और पात्रता तो उसमें उन लोगो से कई -कई गुना ज्यादा थी ,जो बगैर किसी योग्यता और गुण के सत्ता सुख भोग रहे है।  वो सुदामा भी स्वाभिमानी था। ये सुदामा भी उसी का अनुगामी था। वो सुदामा भी बस इसमें ही खुश था कि द्वारकाधीश उसका मित्र है। ये सुदामा भी बस ये सोचकर ही खुश होता था कि मेरा दल अब सत्ता में है। उस सुदामा की तरह इस सुदामा की भी गरीबी,अभाव, विपन्नता ही…सपन्नता थी।
वो सुदामा भी इस पक्ष में नहीं था कि में स्वयं क्यों जाकर द्वारकाधीश को अपने हालात बताऊँ। वो स्वयं सब देख समझ लेंगे और मेरा उद्धार कर देंगे। ये सुदामा भी ऐसा ही सोचता था। इसलिए सत्ता के राजप्रसाद के समक्ष वो कभी याचक बनकर नहीं गया। कहता रहा सदा की जो ललाट पर लिखा है वो मिलकर रहेगा। देर सबेर संगठन मेरा मूल्यांकन कर लेंगे। लेकिन मूल्यांकन करने वालों ने जब -जब इस सुदामा का हक बना, तब तब हक मारकर निजी पसंद को ताज पहनाया। ठगा-अपमानित महसूस करते हुए सुदामा को ” दीनदयाल” का पाठ पढ़ाया गया जबकि उसे तो ये पाठ कंठस्थ था। तभी तो अंतिम समय तक अपने दल के लिए पसीना बहाता रहा।
उस सुदामा ओर इसमे बस ये ही एक फर्क था। उस सुदामा को द्वारकाधीश का साथ सहयोग सम्बल मिल गया। ये सुदामा खाली हाथ ही रहा। उस सुदामा की अर्धांगिनी सुशीला ने उसे द्वारकाधीश के पास भेज दिया। गुहार लगाई। द्वारपालों ने जाकर कहा और दौड़े आये योगेश्वर। पलभर में सुदामा के दुर्दिन दूर हो गए। इस सुदामा ने भी घर के हालातों से मजबूर होकर सत्ता के राजप्रसाद के समक्ष कई बार गुहार लगाई। द्वारपालों ने जाकर सत्ता के सिहांसन को बताया भी कोई फटेहाल, आपके संघर्षमय दौर का कोई साथी आपको मित्र बताते हुए आपसे मिलना चाह रहा है। सत्ता ने सुना नहीं या सुनकर अनसुना कर दिया। सुदामा द्वार पर ही टकटकी लगाए  इंतजार करता  रह गया कि अंदर से बुलावा आएगा।
लेकिन इस सुदामा की झोली में राजप्रसाद ने सत्ता सुख का मुट्ठीभर आटा भी नहीं डाला। उलटे सुदामा की झोली में बंधे वो परिश्रम, पुरुषार्थ ओर पराक्रम रूपी चावल की पोटली ही झपटने की कोशिश की गई को उसके जीवनभर की पूंजी थी। जो घर से निकलते वक्त उसने बांधकर अपने पास रखी थी कि इसे देखकर किसी भी सत्ता सिंहासन को कुछ भी देने में दिक्कत नहीं आएगी।  लेकिन  ये पोटली ज्यो की त्यों बंधी ही रह गई।  ऐसी कोई सत्ता ही नही आई जो इस गरीब सुदामा की गांठ में बंधी पोटली को खोले।  उसमे से दो मुट्ठी फांककर, फांके का जीवन जी रहे इस सुदामा को राज वैभव दे सके। उल्टा पोटली ही झपटने के प्रयास हुए। मुंह के सामने 56 व्यंजन की उम्मीद थी , लेकिन उसे दाल रोटी की शादी थाली भी नहीं परोसी  गई।  उसके मुंह के सामने अयोग्य लोग, उसकी आँखों के सामने ही राजप्रसाद की नजदीकियां ही नही पाते गए, बल्कि सत्ता सुख भी भोगते रहे। …सच मे कलयुग है। तभी तो आप हम सबके सुदामा रूपी उमेश भाई खाली हाथ चले गये। हाथ पसारे कब तक खड़ा रहते। कब तक याचक बना रहते। ललाट पर तो उनके भी वैभव लिखा था, लेकिन वो जमीन पर रचे गए प्रपंचो से घिराते रहे। अपनी जिजीविषा, जीवटता ओर जीवंतता से वो ऐसे प्रपंचो ओर षड्यंत्र से अविचलित हुए संगठन पथ पर गतिमान रहे। भगवती सरस्वती मैय्या का ये मानस पुत्र अपनी धाराप्रवाह वक्तव्य कला और हाजिर जवाबी के लिए आजीवन जाना पहचाना जाएगा ही। ये इंदौर के अटल बिहारी वाजपेयी का अवसान है। उमेश भाई “इंदौरी अटल” थे जिसे सुनने को स्वयम अटलजी भी लालायित रहते थे। जो जिम्मेदारी मिली,पूरी सहजता और सजगता से निभाने वाले उमेश शर्मा परिवार की अनेक जिम्मेदारियों को अधूरा छोड़कर महाप्रस्थान कर गए। पीछे छोड़ गए रोता बिलखता परिवार और वो मासूम दिव्यांग पुत्र जिसे अपने पापा के बिना नींद नही आती….!!!
तो है सत्ता के मसीहाओ…अब वक्त है प्रायश्चित करने का। गरीब सुदामा को मरणोपरांत ही सही, मान देने का। परिवार को सम्मान देने का। तिल तिल कर जो पार्टी और संगठन के लिए मर-खप गया… उसके लिए आपके पास क्या वाकई कुछ नही था? या अब भी नही है? सिवाय सांत्वना के घड़ियाली शब्द और आंसू के..?? या कुछ दोगे इस सुदामा के परिवार को। परिजनों को। उसके पुरुषार्थ का मान रख लीजिये। जीते जी नही, कम से कम मरणोपरांत तो सुदामा को उसका हक मिल जाये। अन्यथा इस कलयुग में इस सुदामा का महाप्रयाण आपको चेन से सोने नही देगा….!!! कोशिश कर के देख लीजिएगा।
उमेश भैय्या
अलविदा
खुलासा फर्स्ट से साभार

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