
- राकेश श्रीमाल
यह माना जाता है कि समय प्रति पल खुद को ही नहीं बदलता, वह बहुत चुपचाप रहकर एक लंबे समय में आदमी को भी बदल देता है। लेकिन इन दिनों आदमी जितनी तेजी से बदला है, उसके लिए समय नहीं, कोरोना दोषी है। भले ही हम इसे कोरोना-समय की तरह समझते हैं। इस महामारी का संकट, जितना भी, जैसा भी कहर से लबालब भरा हो लेकिन वह अभी भी अपनी धीमी गति के बावजूद थमा नहीं है। इन सबसे परे उसने एक ऐसा नासूर उत्पन्न कर दिया है जो इस समाज की आम मानसिकता में यानी जीवित सभी आयु वर्ग की पीढ़ियों में समाता जा रहा है। असल में ऐसा होना मानवता के लिए ही खतरनाक है। यह किसी भी तरह के युद्ध से बिलकुल विपरीत मानवता को खुद अपने आप से ही लड़ा रहा है और वे जो अनजाने ही अपने दिमाग की सोच का खंजर-कटार लेकर इस समय-समर में शरीक हो गए हैं, उन्हें यह मालूम ही नहीं है कि वे अंतत: कर क्या रहे हैं।
बात इतनी भर नहीं है। आज की वरिष्ठ पीढ़ी की मानसिकता अपने से युवतर पीढ़ी से होते हुए आने वाली नस्ल के लिए क्रमश: परिपक्व होती जाएगी। निश्चित ही इसका सबसे अधिक घातक असर कला-संस्कृति पर होगा, जिसका थोड़ा सा पूर्वाभास हम इसी समय की उन जड़ों में देख सकते हैं, जिसे आगे जाकर अपनी तनों को मजबूत बनाना है। खाद-पानी तो उसे वर्तमान परिवेश से मिल ही रहा है। कला-संस्कृति के लिए यह सब जंगली या बेशर्म की झाड़ियों की तरह सारी सीमाओं का उल्लंघन करते हुए बढ़ता ही जा रहा है। सवाल यह है कि इसे कौन देख-समझ पा रहा है? यह सब घटित हो रहा है और अधिकांश लेखक-कलाकार अपने अतीत-सुख, पुराने एलबमों-पुरस्कारों या अपनी जोड़ी-जुगाड़ी सम्पत्ति के छाते तले इस सबसे बेखबर न मालूम अभी भी किस तरह की महत्वाकांक्षाओं-सपनों में, लगभग नशे की हालात में जी रहे हैं। उन्हें यह जानने की उत्सुकता कतई नहीं, कि शराब किसकी है और खुमार अंतत: किसे हो रहा है। वे अपने ही अर्थहीन नशे में वह सब कर रहे हैं, जो उन्हें अपने-अपने क्षेत्र के भविष्य के लिए नहीं करना चाहिए।
आज के लेखक-कलाकार को दो किस्मों में देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि इन्हीं दो किस्मों की भरमार है। एक तो वे हैं, जिन्हें औसत की श्रेणी में रखा जा सकता है। उनकी सीमाएं खुद उन्हें पता होती है। वे भूगोल और विचार-विमर्श की अत्यंत छोटी घेराबंदी में खुश रहते हुए अपना जीवन निकाल देते हैं। दूसरे किस्म के लोग वे होते हैं, जो जागते-सोते हुए हमेशा बड़बोले रहते हैं और निकृष्टतम स्तर पर भी प्राय: आत्मप्रशंसा में लीन रहते हैं। इस किस्म को अधिकतर बाजार ग्लैमराइज भी इसलिए करता है कि उसे इसी तरह अपनी ‘मांग और आपूर्ति’ के अर्थशास्त्रीय नियम को कायम और संतुलित करते हुए पूंजी को अपने पक्ष में करना है। साहित्य में यह पूंजी (हिंदी सन्दर्भ में) अकेले प्रकाशक ही लूट लेता है और अधिकांश लेखक ठन-ठन गोपाल बनकर ही खुश रहते हैं। कलाओं में इस पूंजी की बिसात शतरंज के विभिन्न किरदारों के पास रहती है और बाकायदा इसके लिए बहुत शालीन और बौद्धिक-वैचारिक अखाड़े-बाजी से लेकर जूडो-कराते तक का खूबसूरत इस्तेमाल किया जाता है। कब कौन क्या चाल चल देगा, सफलता इसी पर निर्भर है। जाहिर है कि कोरोना का असर इस बाजार पर भी बहुत गहराई से हुआ है। इस बाजार में कलाओं में विनियोग करना अब भयभीत कर देने वाले जोखिम की तरह हो गया है। खिलाड़ी यह मानने लगे हैं कि हाथ में रखी पूंजी को अब विनियोग करने की अपेक्षा हाथ में ही रखना अधिक सुरक्षित है। इसका प्रभाव कलाकारों की सोच और उनके जीवन-व्यवहार पर इस तरह से हुआ है, कि वे बदल रहे हैं और उन्हें बदलते हुए चुपचाप देखने के अतिरिक्त अब न हमारे पास कुछ बचा है, न ही शायद समय के पास। इस बदलने में यह हुआ है कि वे स्वार्थ की हद में बैठे निकट की दुनिया को किसी दूरबीन से देख रहे हैं। यह तय है कि अपने निकट को दूरबीन से देखने में अमूमन डर तो लगता ही है। समय बेहिचक हो इनका डरना देख रहा होगा और सम्भवतया यह सोच भी रहा होगा कि मैंने, जो कि समय हूं, आखिर इस कला-संस्कृति की इतनी अवनति इससे पहले नहीं देखी होगी।
यह जो बदलना है, उसमें उन्हें अधिक खुमारी हो रही है, जिन्होंने इस समय की शराब नहीं पी। वे अपनी कथित रचनात्मकता की, जो फिलवक्त उनसे दूर किसी महंगी शीशम की लकड़ी की बनी प्राचीन टेबल में भविष्य की एक ड्राज में अदृश्य ताले में रखी है, वह शराब जिसका कार्क लंबे अरसे से नहीं खुला, उसे पीते हुए, एक ऐसी खुमारी भरी अधनीन्द में हैं, जो उन्हें ही नहीं, इस समूचे दौर को किसी टेबल-टॉप हवाई पट्टी की तरह खाई में ले जा रही है। यूं तो भारत में टेबल-टॉप रनवे तीन ही शहरों में हैं, जिसमें दो बड़ी जगहों में दहला देने वाली दुर्घटनाओं ने, बड़ी संख्या में यात्रियों के चीथड़े उड़ाते हुए हेडलाइंस बनाई है। लेकिन यहाँ माजरा कुछ और ही है। कला-संस्कृति ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे’ वाली वास्तविकता में आ खड़ी हुई है। इसमें खत्म होने वालों के लिए कोई हेडलाइंस कभी नहीं बनने वाली। अखबार की तकनीकी भाषा में कहा जाए तो स्थानीय अखबारों में शायद सिंगल कॉलम खबर छप जाए, वरना भावी इतिहास तो उन्हें अभी से भुला देने की कसम खा चुका है। लेखकों-कलाकारों को प्राय: संवेदनशीलता से संलग्न कर देखा जाता है। लेकिन वे ही अगर कोरोना से उपजी परिस्थितियों में स्वार्थी हो जाएं, तब क्या किया जा सकता है। दोस्तोवस्की ने अपने एक उपन्यास में लिखा है कि- ‘दुनिया कहती है कि आपकी अपनी जरूरतें हैं। उन्हें पूरा करें। इसके लिए आपके पास अमीर और ताकतवर के जैसे ही अधिकार हैं। अपनी जरूरतों को पूरा करने में संकोच न करें, बल्कि आप अधिक ही मांगे। यह एक सांसारिक सिद्धांत है। दुनिया इसे ही आजादी मानती है। अमीरों के लिए इसके परिणाम अलगाव और आत्महत्या है, जबकि गरीबों के लिए ईर्ष्या और हत्या।’
यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि हिंदी के वितान में इन दिनों यही सब चल रहा है। यह भयावह और विचलित कर देने वाला है। बहुत छोटे-छोटे समूह में विभाजित हमारी कला-संस्कृति के नामवर और नामहीन कबीलों ने इस वैश्विक संघर्ष को अपने समूह या विचारधारा तक सीमित कर दिया है। बोफोर्स, राफेल जैसे अत्याधुनिक रक्षा संसाधनों को खारिज करते हुए कोरोना के इस घातक, वायरल और अदृश्य हथियार ने एक ऐसी जगह बना ली है, जिसमें संघर्ष-विराम की कोई संभावना तो अभी दिखाई नहीं देती। लेकिन कला-संस्कृति तो अपने-अपने रचनात्मक मैदान में अपनी मानसिकता से इसे युद्ध-विराम देते हुए खुमारी या सुरूर से बाहर निकल सकती है। यह जानते हुए भी कि अरुंधति राय ने लिखा है कि- ‘कोविड 19 हमें उन मूल्यों पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करता है, जिन पर हमने आधुनिक समाजों का निर्माण किया। इसने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बकवास साबित कर दिया है और आधुनिक दुनिया को रोक दिया है।’
निश्चित ही इसमें आधुनिक कला-संस्कृति भी शामिल हैं, जो दुर्भाग्य से अपनी ही बेबसी का लुत्फ उठा रही है।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार