हर समय चर्चा में रहती है…प्रदेश की ग्वालियर सीट

ग्वालियर सीट

भोपाल/बिच्छू डॉट कॉम। प्रदेश की ग्वालियर लोकसभा सीट हमेशा से ही चर्चा में बनी रहती है। इसकी वजह है इस सीट पर होने वाले आश्चर्यजनक राजनैतिक घटनाक्रम। खुद में राजनैतिक रूप से समृद्ध ऐतिहासिक विरासत को समेटे इस सीट पर नामी गिरामी चेहरे चुनावी मैदान में उतरते रहे हैं। यह प्रदेश की दूसरी ऐसी सीट है, जो राष्ट्रीय फलक पर उभर चुकी है। इस सीट के इतिहास पर नजर डालें तो , वह पूरी तरह से राजनीति ड्रामा , ट्रेजेडी और उठापटक से भरा हुआ नजर आता है। इस सीट की राजनीति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या से लेकर राजा-महाराजाओं का राजपाट छिनने से लेकर पारिवारिक कलह तक सभी कुछ है।
इस सीट पर भाजपा की स्थापना से लेकर ग्वालियर राजघराने की राजमाता का इकलौते बेटे से विरक्ति का दुखद प्रसंग भी भरा पड़ा है। इसकी धरा पर ही हिंदी प्रेमी, कवि हृदय स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म हुआ है। वे न केवल देश के प्रधानमंत्री बने हैं, बल्कि उनकी हार की भी साक्षी यह सीट रही है। सीट पर अब तक हुए चुनावों पर नजर डालें तो अब तक उपचुनाव सहित कुल 19 चुनाव हुए जिनमें से नौ बार भाजपा , जिसमें जनता पार्टी और जनसंघ को जीत मिली है , जबकि आठ बार कांग्रेस। दो बार अन्य दल भी जीते। इस सीट पर शुरु से ही महल का प्रभाव रहा है। यही वजह है कि महल से आने वाले सिंधिया परिवार के ही सदस्य आठ बार जीते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस हो या फिर भाजपा दोनों में सिंधिया परिवार का दखल पूरी तरह से दिखता है।
सांसद रिश्वत कांड में भी आया नाम
वर्ष 2005 में भारतीय राजनीति में उस वक्त भूचाल आ गया था, जब एक टीवी चैनल ने 11 सांसदों का स्टिंग ऑपरेशन कर रुपये देकर संसद में सवाल पूछने के लिए राजी कर लिया था। इनमें ग्वालियर से उस वक्त के कांग्रेसी सांसद रामसेवक बाबूजी भी शामिल थे। बाबूजी ने पचास हजार रुपये लिए थे। उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई थी। इसके बाद से ही यह सीट भाजपा का गढ़ बन गई। इस दौरान लगातार चुनाव जीत रहे माधवराव सिंधिया को जयभान सिंह पवैया से तगड़ी चुनौती मिलनी शुरू हुई, तो वे ग्वालियर छोडक़र 1999 में गुना चले गए। सिंधिया राजघराने की राजनीति में एंट्री कराने का श्रेय राजमाता विजयाराजे सिंधिया को है। वे सबसे पहले कांग्रेस के टिकट पर 1962 ही यहां से जीतीं। उसके बाद वह भाजपा के संस्थापक सदस्यों में एक रहीं। विदेश से लौटे माधवराव ने राजमाता की इच्छा के चलते जनसंघ की सदस्यता ले ली, लेकिन बाद में वे कांग्रेस में चले गए। इससे राजमाता नाराज रहने लगी।  यह नाराजगी उस समय चरम पर पहुंच गई , जब माधवराव ने ग्वालियर से अटल जी के खिलाफ पर्चा भर दिया था।
अटल जी को भी मिल चुकी मात
इस सीट पर महल का प्रभाव इससे ही समझा जा सकता है कि 1984 के लोकसभा चुनाव में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से चुनाव मैदान में थे, जिससे उनकी जीत तय मानी जा रही थी। इसकी दो वजहें थीं। पहली वे खुद ग्वालियर के थे, दूसरा उन्हें राजमाता विजयाराजे सिंधिया का समर्थन था। इस दौरान स्व. माधवराव सिंधिया गुना संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। नामांकन के अंतिम दिन कांग्रेस ने सिंधिया का ग्वालियर से अटलजी के खिलाफ  पर्चा दाखिल करा दिया। इस चुनाव में राजमाता धर्मसंकट में रहीं। एक ओर पुत्र था तो दूसरी ओर पार्टी। आखिर अटल बिहारी वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा था।
यह भी है हकीकत
वर्ष 1952 में यहां से पहला चुनाव जीतने वाले वीजी देशपांडे उसी हिंदू महासभा के प्रत्याशी थे, जिससे महात्मा गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे जुड़ा था। गांधी की हत्या के तीन दिन पहले भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराने वाले वीजी देशपांडे ने उनकी जमकर आलोचना की थी। हत्या की साजिश रचने के शक में देशपांडे को गिरफ्तार भी किया गया था।

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